बात लेखकीय असहिष्णुता की भी हो

book fairअनंत विजय। समकालीन हिंदी साहित्य के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बीच देश में फैल रही असहिष्णुता और कट्टरता के खिलाफ बहस चल रही है। देश में बढ़ रही कट्टरता और प्रधानमंत्री की चुप्पी को आधार बनाकर कई लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का ऐलान किया है। हालांकि पुरस्कार वापसी अभियान पर लेखक समुदाय बंटा हुआ है।
इस लेख का विषय पुरस्कार वापसी नहीं है। हम बात करेंगे लेखक समुदाय में अपनी रचना की आलोचना को लेकर बढ़ती असहिष्णुता पर, खासकर हिंदी लेखकों के बीच बढ़ रही इस प्रवृत्ति पर। समकालीन हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर अगर हम बात करते हैं तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि कवियों से लेकर कथाकारों तक में अपनी आलोचना सुनने-सहने की क्षमता का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है। किसी भी कृति पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने से पहले कई बार सोचना पड़ता है। अगर आप तर्क के साथ भी किसी कृति की स्वस्थ आलोचना करते हैं तो लेखक उसको अपनी आलोचना मानकर टिप्पणीकार से खफा हो जाते हैं। उसके बाद खफा लेखक इस ताक में रहते हैं कि रचना की आलोचना करने वाले टिप्पणीकार से कैसे बदला चुकाया जाए। आलोचनात्मक टिप्पणी करने वाले और रचनाकार के बीच बातचीत बंद हो जाना तो आम बात है।
यह हिंदी साहित्य समाज में लेखकों के बीच बढ़ रही असहिष्णुता का संकेत है। इसको सोशल मीडिया खासकर फेसबुक ने और हवा दी। फेसबुक पर आलोचकों को आमतौर पर निशाना बनाया जाता है और फिर माफिया की तरह घेरकर उस पर हमले होते हैं। आलोचक के अतीत से लेकर वर्तमान तक को खंगालकर उड़ेल दिया जाता है। घर परिवार, नातेदार-रिश्तेदारों की बातें शुरू हो जाती हैं। कई मसलों पर तो यह भी देखा गया है कि चरित्र हनन का खेल भी शुरू हो जाता है। सोशल मीडिया पर इसके पीछे की वजह साफतौर पर रेखांकित की जा सकती है। आज इस वजह से हिंदी में समीक्षा की हालत बहुत खराब हो गई है। समीक्षक सत्य कहने से डरने लगे हैं। काफी पहले अपने एक लेख में हिंदी की वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन ने भी इस बात का संकेत किया था। कालांतर में कई लेखकों ने लेखकों के बीच बढ़ती इस असहिष्णु प्रवृत्ति को पुख्ता किया है। आज ज्यादातर लेखकों की अपेक्षा होती है कि उनकी रचनाओं को कालजयी इत्यादि घोषित कर दिया जाए। दो-चार कहानी लिखकर, एकाध संग्रह छपवाकर, दंद-फंद से पुरस्कार आदि हासिल करने वाले कहानीकारों की अपेक्षा होती है कि उनकी कहानियों को प्रेमचंद की कहानियों के बराबर मान लिया जाए। अगर ये न हो सके तो कम से कम प्रेमचंद और रेणु की परंपरा का लेखक तो घोषित कर ही दिया जाए। इसी तरह से उपन्यासकारों की आकांक्षा होती है कि उनको भी रेणु, अमृतलाल नागर के बराबर ना भी माना जाए तो कम से कम कमलेश्वर, मोहन राकेश या फिर राजेन्द्र यादव के बराबर तो खड़ा कर ही दिया जाए। ऐसा नहीं होने पर बात बिगडऩे लगती है।
लेखकों के बीच बढ़ती इस प्रशंसा-पिपासा के उदाहरण इस वक्त हिंदी में यत्र-तत्र-सर्वत्र मिल जाएंगे। इन दिनों हिंदी में व्हाट्सएप पर कई साहित्यिक ग्रुप सक्रिय हैं। वहां भी आलोचना की कोई गुंजाइश नहीं है। अगर आप व्हाट्सएप पर चलने वाले समूहों के सदस्य हैं तो आपको इस बात का अंदाजा होगा कि वहां किस तरह से तू पंत-मैं निराला का दौर चलता है। खुदा ना खास्ता अगर किसी ने किसी रचना पर सवाल खड़े कर दिए तो उसकी खैर नहीं। आपको नकारात्मक सोच से लेकर हर वक्त मीन-मेख निकालने वाला करार दे दिया जाएगा। फेसबुक आदि की तरह इन समूहों में भी लेखक संगठित होकर आलोचना करने वालों पर वार करते हैं और उसको इतना अपमानित करते हैं कि वो समूह छोडऩे पर मजबूर हो जाता है। अगर फिर भी हिम्मत करके आलोचनात्मक टिप्पणी करने वाला शख्स इन समूहों में बना रहता है तो गाहे-बगाहे उसके विवेक पर सवाल खड़ा किया जाता रहता है।
अपनी आलोचना न सहने की प्रवृत्ति का विकास हाल के दिनों में युवा लेखकों के बीच वायरल की तरह फैला है। अब अगर हम इसके पीछे के वजह की पड़ताल करें तो पाते हैं कि सोशल मीडिया के फैलाव और फेसबुक के लाइक बटन ने रचनाकारों को अपनी आलोचना सुनने की क्षमता ही विकसित नहीं होने दी। कोई भी रचनाकार फेसबुक पर अपनी रचना डालता है तो उसको सौ-दो सौ लोग लाइक कर देते हैं। सौ-पचास टिप्पणियां वाह-वाह की मिल जाती हैं। लेखकों को यह लगने लगता है कि वे हिंदी के महान लेखक हो गये। इस मानसिकता से गुजर रहे लेखक का सामना जब आलोचनात्मक टिप्पणी से होता है तो वो इसको बर्दाश्त नहीं कर पाता और टिप्पणीकार को अपनी सफलता की राह में बाधा की तरह देखने लगता है। फिर वो वही सारे काम करता है जो कोई भी अपनी राह के रोड़े को हटाने के लिए करता है।
इसके अलावा हिंदी में थोक के भाव बंट रहे पुरस्कारों ने भी कई युवा लेखकों का दिमाग खराब कर दिया है। जुगाड़ से हासिल पुरस्कार को वो अपने लेखन से जोड़कर छद्म की जमीन पर खड़ा होना चाहता है। छद्म की जमीन को सबसे बड़ा खतरा आलोचना या समीक्षा से ही रहता है।
आज अगर हिंदी में समीक्षा पर सवाल उठ रहे हैं तो उसके पीछे की वजहों को जानने की जरूरत है। एक वजह तो यही है जिस पर विस्तार से लिखा गया। समीक्षक खुलकर अपनी बात कहने से घबराने लगे हैं। कोई भी अपने व्यक्तिगत रिश्ते खराब नहीं करना चाहता है। नतीजा यह होता है कि किताब के बारे में परिचयात्मक लेख लिखे जाते हैं। पहले लेखक के बारे में एक पैरा, फिर किताब का सारांश और अंत में बगैर कुछ कहे या फिर बीच का रास्ता निकालते हुए समीक्षक अपनी बात खत्म कर देता है।
यह स्थिति हिंदी साहित्य के लिए अच्छी नहीं है। लेखकों के बीच बढ़ रही असहिष्णुता से एक विधा पर उसके खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है। इसको बचाने की आवश्यकता है। लेखकों को उदार और सकारात्मक तरीके से स्वस्थ आलोचना का स्वागत करना चाहिए। अगर किसी समीक्षक ने तर्कों के साथ अपनी बात रखी है तो उसकी बातों का सम्मान होना चाहिए। विमर्श हो तो और भी बेहतर है।