विराटता में असीम चेतना की अनुभूति

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बनी सिंह जांगड़ा। सारा ब्रह्माण्ड एक नियम में अनन्त काल से चलता आ रहा है। नक्षत्र, चांद, सितारे, धरती आदि सब कुछ एक नियम में गतिमान हैं। प्रकृति के हर क्षेत्र में न जाने कितने लोग शोध कार्य कर चुके हैं, कितने अभी कार्यरत हैं और न जाने कितने और प्रकृति के बारे में जानने में लगे हैं। शोधार्थी अपने कार्य को करते-करते इस संसार से ही विदा हो जाते हैं परंतु इस प्रकृति व परमात्मा के गर्भ में दबे पड़े रहस्य पूरे जानने में नहीं आते।
परमात्मा तथा प्रकृति के बारे में सबसे ज्यादा योगियों ने जाना और संसार को अपनी साधना से अनुभूत उसी ज्ञान को संसार को दिया। परमात्मा व प्रकृति के अथाह को न नाप पाने के उपरांत ही ऋषियों-महर्षियों, संतों, मुनि-साधकों ने प्रकृति व परमात्मा के इस रहस्यमयी ज्ञान को नेति-नेति कहकर अपने कार्य को विराम दिया और वे केवल इस सत्ता के सामने नतमस्तक हो गए। होता भी यही है। संसार में आने वाला व्यक्ति आकर चला जाता है, लेकिन परमात्मा तथा प्रकृति के भेद को पूरा नहीं जान पाता। जब मनुष्य अपनी पूरी शक्ति लगाकर, हार थककर निराश बैठ जाता है, तब परमात्मा के वैराट्य को व्यक्ति अनुभव करता है, देखता है तथा तलाशता है। विशेष बात यह है कि जो भी परमात्मा के इस विराट् को देख लेता है अथवा जिसने देखा है, वह गद्गद हुए बिना न रहा।
देखता वही है जिसके ऊपर परमात्मा अनुग्रह करते हैं। परमात्मा अनुग्रह उन्हीं पर करते हैं जो उसका होकर जीते हैं, जो उसकी सच्चे मन से उपासना करते हैं, जो शास्त्रों व धर्मग्रंथों में बताए परमात्मा के मार्ग पर चलकर अपना जीवन संवारने की आकांक्षा रखते हैं अथवा जिनका परमात्मा व उसकी बनाई सृष्टि पर पूरा विश्वास होता है, वे उसके शरणेय होकर परमात्मा से अपने अभिष्ट की पूर्ति करा ही लेते हैं। पौराणिक कथानुसार, सत्यवान के प्राण हरण करके यमदूत जब जा रहे थे तो सत्यवान की पत्नी सावित्री ने अपने पातिवर्त्य-धर्मबलाधार पर सत्यवान को पुनर्जीवित करा लेने का परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त कर लिया था।
संसार में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। जिसने भी परमात्मा के वैराट्य का अनुभव किया, उसने यही देखा कि सर्वत्र सब में एक ही चेतना का संचरण हो रहा है। भारतीय वांङमय में उदाहरण आते हैं, जिनमें यह इंगित है कि यह सारा संसार एक ही तत्व की अनेक रूपों में अभिव्यक्ति है। ऋषि-महर्षियों, सिद्ध-साधकों ने परम सत्ता का साक्षात करके ही कहा था-एकं सद विप्रा: बहुधा वदंति। साधक विराट ब्रह्म की असीम चेतना का नाना रूपों में अनुभव कर लेता है। बालक ध्रुव अपनी मां द्वारा बताए गए सूत्र को पकड़कर विष्णु भगवान के जाप में समाधिस्थ बैठ गए। भगवान का विराट-दर्शन पाकर निहाल हुआ ध्रुव अपनी राज्य करने की मन में संजोयी इच्छा को भूल गया और भगवान के कहने पर भी राज्य न चाहा, वरन सर्व कामनाओं से निवृत हो गया।
भगवान के विराट् रूप को भगवान श्रीकृष्ण की ही कृपा से अर्जुन ने देखा। विश्वरूप दर्शन करके कंपित व रोमांचित अर्जुन श्रीकृष्ण भगवान से प्रार्थना करते हैं-हे नाथ, मुझे अपना वही सांसारिक रूप दिखाओ। मेरे से आपका यह विराट् रूप देखा नहीं जा रहा है। दर्शनोपरांत अर्जुन का मोह भी नष्ट हो चला और उसको अपने कर्तव्य-कर्म का भी स्मरण हो आया था।
महाभारत काल में संजय ने भगवान के वैराट्य को देखा। दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई, जिससे उन्होंने कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाया। प्रभु के विराट् स्वरूप को देखने का सौभाग्य राजा बलि को हुआ। राजा बलि पहचान गए थे कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं, साक्षात विष्णु भगवान ही हैं। माता यशोदा ने मिट्टी खाते हुए श्रीकृष्ण के मुंह में देखा कि यह ब्रह्मांड श्रीकृष्ण के मुंह में ही समाया हुआ है। ऐसे ही माता कौशल्या ने श्रीराम जी को पलने में झुलाते समय बालरूप श्रीराम के मुंह में सारा ब्रह्मांड देख लिया था। तत्वदर्शी भक्तों को यत्र-तत्र सारे जीवों में सर्वत्र प्रभु की ही बनाई हुई ये प्रतिमाएं नजर आती हैं। उनकी दृष्टि में यही परमात्मा का वैराट्य है।
ेखा जाता है कि प्राणी मात्र सुख का भूखा है और वह सुख प्राप्ति के अनेक साधन जुटाता है, लेकिन उसे सुख मिलता नहीं है। भ्रमित मानव यदि मोह निद्रा से जागकर सर्वत्र उस परमात्मा के विराट् स्वरूप की झांकी में मात्र झांक कर भी एकदा देख ले तो वह मानव परमात्मा के उन श्रेष्ठ गुणों को धारण करता हुआ इसी धरा पर श्रेष्ठतम जीवन जी सकने में सक्षम हो सकता है। उसके जीवन में नगण्यता से प्रभुता आ जाती है। वह स्वयं तो निहाल होता ही है, उसके द्वारा सदाचरण से होने वाले सद्व्यवहारों से संसार भी उपकृत होता जाता है। मनुष्य जीवन की सार्थकता भी तो इसी में है।