घर में क्यों चलें जंगल के कायदे

chama sharma

क्षमा शर्मा। मध्य प्रदेश के अलीराजपुर के पास के गांव की घटना है। यह इलाका आदिवासी बहुल है। यहां के बने चांदी के आभूषण बहुत मशहूर हैं। यहां एक आदमी ने अपनी पत्नी को पुकारा। पत्नी ने आवाज नहीं सुनी या वह किसी काम में लगी थी। वह नहीं आई। पति के पुकारने पर पत्नी न आए, इस अपमान को पत्नी का तथाकथित स्वामी और देवता स्वरूप पति कैसे बर्दाश्त करता। उसने गुस्से में तीर चलाकर पत्नी की आंख फोड़ दी। अब उस आंख में रोशनी कभी नहीं लौटेगी।
दूसरी घटना उत्तर प्रदेश के बरेली के पास की है। यहां एक पांच साल की बच्ची को पिता ने इसलिए मार दिया कि उसके सिर से दुपट्टा सरक गया था। पिता को लड़की का इस तरह से नंगे सिर होना बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने उसकी जान ले ली।
उत्तर प्रदेश के खुर्जा जिले के एक गांव में मात्र छब्बीस दिन की बच्ची से एक आदमी ने दुष्कर्म किया। बच्ची के माता-पिता पंचायत चुनाव में वोट देने गए थे। यह हैवान घर वालों का परिचित और रिश्तेदार था। ये सभी घटनाएं घरों के भीतर हुईं। उन्ही घरों में जिन्हें लड़कियों के लिए सबसे ज्यादा महफूज माना जाता है। मगर हम देखते हैं कि घरों के भीतर ही लड़कियों और महिलाओं को किन मुसीबतों से गुजरना पड़ता है। अपराधी उनके इतने आसपास होते हैं कि कई बार उनसे बचना और फिर उनके अपराध की शिकायत करना भी मुश्किल होता है।
अकसर माएं या घर की अन्य स्त्रियां ही उन्हें चुप रहने और किसी से न कहने की सलाह देती हैं। ये औरतें घर में उपस्थित अपराधियों को एक तरह से परिवार की इज्जत जाने के नाम पर बचाती हैं। इन्हें अपने घर की लड़कियों के सम्मान की जैसे कोई चिंता ही नहीं होती। अकसर घर के आदमियों के अपराधों की जिम्मेदारी घर की लड़कियों और महिलाओं की तरफ ही सरका दी जाती है।
कई बार पंचायतों के फैसले भी ऐसे होते हैं कि घर की महिला को अपने घर के किसी पुरुष के अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है। पंचायतों के तुगलकी फरमान जारी होते रहते हैं। यानी कि महिला कहीं की भी हो, पुरुष के अपराध की सजा उसे ही मिलती है। आम तौर पर इसमें गांव के लोगों की सहमति भी होती है। पुलिस जब ऐसे अपराधियों को पकडऩे आती है तो गांव का कोई भी आदमी बोलने और गवाही देने तक को तैयार नहीं होता। अपनी मरजी से शादी करने पर तो घर के लोग ही अपने बच्चों की जान ले लेते हैं और उन्हें भी कभी सजा नहीं मिलती। माना जाता है कि अगर इसकी सजा मिलती है तो बाकी बच्चों के भी कान खड़े हो जाते हैं। वे खौफ से ऐसा कदम नहीं उठाते।
ऊपर जिन तीन घटनाओं का जिक्र किया गया है, अखबारों में इन दर्दनाक घटनाओं ने किसी कोने में दो-चार पंक्तियों की जगह पाई। कह सकते हैं कि जगह तो मिली। चैनल्स में तो कहीं भी इन घटनाओं के बारे में न कोई खबर दिखाई दी, न ही कोई ऐसी बहस चली कि लोग सोचने पर मजबूर होते। वैसे भी बहसों में लिप्त बयान बहादुरों के लिए गरीब की खबर कभी बड़ी होती भी नहीं है। खबर तो उनकी बड़ी होती है जो पहले से ही खबरों में छाए रहते हैं। जबकि आम आदमी हर रोज न जाने कितने अपराधों और तकलीफों से गुजरता है। लेकिन अपना विजुअल मीडिया वहां तक कभी नहीं पहुंचता।
अकसर महिला सुरक्षा की जब भी हम बात करते हैं, हमारी उंगली बाहर की तरफ ही उठती है। बाहरी दुनिया को महिलाओं के लिए खतरों और राक्षसों से भरा दिखाया जाता है। उसके अंधेरे पक्ष को अकसर अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से बढ़ा-चढ़ाकर भी पेश किया जाता है। इसलिए बसों में सिपाही तैनात किए जाते हैं। कैमरे लगाने की बात हो रही है। काम करने की जगह कैसे सुरक्षित हो, इसकी नियमावली जारी की जा रही है। महिलाओं को सुरक्षा के तरह-तरह के गुर सिखाए-बताए जा रहे हैं। अंधेरी सड़कों पर तेज रोशनियों की मांग की जा रही है।
ये सभी उपाय अच्छे हैं और होने भी चाहिए। मगर घरों में न तो कोई कानून लागू होता है और न ही वहां रात-दिन पुलिस का पहरा बैठाया जा सकता है। अगर बाहर के दुष्कर्मी को फांसी देने की बातें होती हैं तो घरों में जो ऐसे लोग हैं, नाते, रिश्तेदार और परिचित, जिनकी शिकार हर उम्र की लड़की और महिला होती है, उनसे कैसे निपटा जाए, यह कोई नहीं बताता।
पुलिस के आंकड़े कहते हैं कि 92 प्रतिशत से अधिक दुष्कर्म नाते-रिश्तेदार और परिचित करते हैं। क्या ऐसे लोगों को सजा मिलते सुना है। घर की बात घर में ही दफन कर दी जाती है। अपराध बढ़ते जाते हैं। नए-नए शिकार फंसते हैं जो अपने आसपास के ही होते हैं और कोई सजा भी नहीं मिलती। इसलिए घर में रहने वाले इन अपराधियों की हिम्मत और हौसला बढ़ता है। लड़कियां ताउम्र अपनों द्वारा किए गए अपराध और अपमान के भय से मुक्त नहीं हो पातीं। उन्हें कभी न्याय भी नहीं मिलता।
सरकारों और महिला सुरक्षा पर रात-दिन शोर मचाने वालों को बताना चाहिए कि घर के भीतर हुए अपराधों से औरतें कैसे बचें।