कविता-अंखिया बड़ी-बड़ी

joyti gupta
नीलम नहीं हीरा नहीं

हैं रुबाई जड़ी

टेढ़ी-मेढ़ी अपनी पगडंडी

पर चलती उड़ती,

ये अंखियां बड़ी-बड़ी

रहैं दूर हीं दूर

है जो राह भीड़ भरी.

ममता की नदिया में

चपल,मुस्कानों की

खेती हैं कश्ती

ये अँखियाँ बड़ी-बड़ी।

प्रेमिल है भाषा

हैं ये ज्योति की लड़ी।

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स्वप्न
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लपेट कर

मगही पान की कतरनें,

जाते साल की

किसी आखिरी दुपहर ,

हम चूम रहे हैं

जून के रेगिस्तान,

हम चूम रहे हैं

कोहसार की दिसंबर।

महेंद्रू के ‘वन वे’ से

जरा दूर

हम गंगा के पार लेटते हैं

मु_ी में भरने को

रेत मिली धुप

के बीच

इक दूसरे की बीच वाली ऊँगली।

हम चूम रहे हैं

गंगा के पानी लगे स्वप्न।

लेखक- ज्योति गुप्ता