बिहार का प्रयोग राष्ट्रीय स्तर पर दोहराने को आतुर नीतिश

nitish_kumarकृष्णमोहन झा।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के एक फैसले ने सारे राष्ट्र का ध्यान आकर्षित किया है। उनकी सरकार ने बिहार में देशी एवं विदेशी शराब की बिक्री को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया है। यद्यपि यह फैसला राज्य में सत्तारूढ़ इस महागठबंधन की सरकार ने किया है जिसमें राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस शामिल है परन्तु राज्य में पूर्ण शराब बंदी को लागू करने की असली पहल मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की ओर से ही प्रारंभ हुई थी। इस तरह नीतिश कुमार ने अब यह भी साबित कर दिया है कि भले ही सत्तारूढ़ महागठबंधन में जदयू संख्या बल की दृष्टि से राजद से पीछे हो परन्तु मुख्यमंत्री के रूप में उनके फैसलों को महागठबंधन के घटक दलों का पूरा समर्थन हासिल है। बिहार में शराब की बिक्री पर पूर्ण रूपेण प्रतिबंध लग जाने के बाद अब इस राज्य ने देश का चौथा ड्राइस्टेट कहलाने का गौरव भी अर्जित कर लिया है। गौरतलब है कि बिहार के पहले नागालैण्ड, मिजोरम और गुजरात में भी इस तरह की शराब की बिक्री को प्रतिबंधित किया जा चुका है। मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने यह उम्मीद भी व्यक्त की है कि देश के दूसरे राज्यों की सरकारें भी राजस्व की चिंता छोडकऱ जनहित को सर्वोपरि मानकर उनकी सरकार के इस फैसले का अनुकरण करने के लिए प्रेरित होंगी। नीतिश कुमार के इस कथन से असहमत होने का कोई कारण भी नहीं खोजा जा सकता कि शराब परिवार और समाज को तोड़ती है और विकास में अवरोधक बनती है। बिहार की तर्ज पर पूरे देश में शराब बन्दी की मांग करते हुए नीतिश कुमार ने तक उम्मीद व्यक्त की है कि उनके राज्य से शुरू हुई शराब बन्दी की लहर इतनी तेज गति से निकली है कि अब इसे कोई रोक नहीं सकता। राज्य में शराब की बिक्री प्रतिबंधित किए जाने के बाद अवैध शराब का कारोबार बढऩे की आशंका को खारिज करते हुए नीतिश कुमार ने यह भरोसा दिलाया है कि उनकी सरकार अवैध शराब के कारोबार को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी। दरअसल नीतिश कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि अब राज्य में अवैध शराब का करोाबर करने वालों की चांदी न होने पाये। अगर वे ऐसे तत्वों पर अंकुश लगाने में सफल हो गए तो सुशासन बाबू की तो राज्य में जय जयकार होने लगेगी। पर कम से कम इस बात के लिए तो सुशासन बाबू की सराहना की ही जानी चाहिए कि उन्होंने इस फैसले से अपनी सरकार को होने वाले आर्थिक नुकसान की परवाह न करते हुए एक साहसिक कदम उठाने की पहल की।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने राज्य में पूर्ण शराब बंदी के अलावा अपने इस फैसले से भी राजनीतिक क्षेत्रों में हलचल पैदा की है कि वे जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद भी संभालने के लिए तैयार है। अभी तक कभी भी उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री के साथ ही जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की बागडोर थामने में दिलचस्पी नहीं दिखाई परन्तु जिस तरह शरद यादव के स्थान पर वे स्वयं जदयू के अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन होने के लिए आगे आए है उससे तो यही संकेत मिलता है कि वे जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की योजना पर काम कर रहे है। यह मानना गलत नहीं होगा कि वे 2019 के लोकसभा चुनावों के पूर्व ही स्वयं को इतना ताकतवर बना लेना चाहते है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कोई तगड़ी चुनौती पेश कर सकें। बिहार विधानसभा के पिछले चुनावों में महागठबंधन को मिली शानदार विजय ने उनके अन्दर एक अनोखे आत्मविश्वास के साथ साथ महत्वाकांक्षा भी जगा दी है। गौरतलब है कि भाजपा ने जब गत लोकसभा चुनावों के लगभग एक वर्ष पूर्व नरेन्द्र मोदी को जो भावी प्रधानमंत्री के रूप में चुनावों में प्रोजेक्ट करने का फैसला किया था इसके विरोध में ही नीतिश कुमार ने राजग से अपने सत्रह साल पुराने सबंध एक झटके में तोड़ दिए थे। नीतिश कुमार को तब यह बात कतई पसंद नहीं आई थी कि राजग के घटक के रूप में भाजपा भावी प्रधानमंत्री के नाम पर अकेले फैसला कर ले। उनके अनुसार यह फैसला राजग के द्वारा किया जाना चाहिए था। जाहिर सी बात है कि उस समय नीतिश कुमार के दिल में भी कहीं न कहीं प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा छुपी बैठी थी। अब जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की बागडोर संभालने के उनके फैसले से वह महत्वाकांक्षा उजागर हो गई है।
नीतिश कुमार ने एक सोची समझी राजनीति के तहत जदयू अध्यक्ष पद की बागडोर भी अपने हाथ में थामने का फैसला किया है। वे यह संदेश देना चाहते है कि जिस तरह पं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक आदि नेता अपने-अपने दल के सर्वेसर्वा अध्यक्ष हैं उसी तरह वे भी अपने दल जदयू के सुप्रीमो के रूप में जाने जावें और आगे आने वाले दिनों में अगर तृणमूल कांग्रेस, अन्नाद्रमुक, बीजद, आम आदमी पार्टी, सपा और राजद आदि दलों के बीच कोई महागठबंधन बनाने पर सहमति बनी तो उनकी अपनी राय भी एक दल के सुप्रीमो की राय के रूप में वजनदार साबित हो। नीतिश कुमार शायद मन ही मन यह मान चुके है कि 2019 के लोकसभा चुनावों का समय आते तक भाजपा का जनाधार देश में 2014 के लोकसभा चुनावों जितना नहीं रह पाएगा और उस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ भी उस ऊंचाई पर नहीं होगा जिस ऊंचाई पर 2014 के लोकसभा चुनावों के वक्त था। नीतिश कुमार शायद यह मानकर चल रहे है कि प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती पेश करने के इरादे से अगर कोई महागठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बन जाता है तो उसका मुखिया बनने का सौभाग्य भी उन्हें ही मिलेगा लेकिन इसमें उन्हें निराशा भी हाथ लग सकती है। ममता बैनर्जी, जयललीता और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं की महत्वाकांक्षा नीतिश कुमार की योजना को इतनी आसानी से पूरा नहीं होने देगी फिर भी नीतिश कुमार इस दृष्टि से तो बाकी समकक्ष नेताओं पर भारी पड़ सकते है कि मुख्यमंत्री के रूप में उनकी छवि सुशासन बाबू की ही रही है। लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को भले ही बिहार विधानसभा के गत चुनावों में जदयू से अधिक सीटें मिली हो परन्तु नीतिश कुमार ने पूर्ण शराब बंदी जैसे फैसले से राष्ट्रीय स्तर पर सराहना अर्जित की है। पूरे देश में शराब बंदी लागू करने की उनकी मांग भी उनकी अपनी सोची समझी रणनीति का ही एक हिस्सा है और वे इस मामले में दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों से आगे निकल जाने में सफल तो हुए ही है।
नीतिश कुमार ने एक सोची समझी रणनीति के तहत ही ‘संघ मुक्त भारतÓ बनाने के लिए भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों से एकजुट होने की अपील भी कर डाली है परन्तु उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि जदयू को सत्रह वर्षों तक भाजपा के साथ राजग के बैनर तले रहने के दौरान संघ मुक्त भारत के निर्माण की जरूरत क्यों महसूस नहीं हुई। नीतिश कुमार की यह अपील भाजपा विरोधी सभी राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय स्तर पर भी एक महागठबंधन बनाने के लिए प्रेरित करने में सफल होगी यह मान लेना अभी जल्दबाजी होगी। दरअसल देश की जो राजनीतिक पार्टियां भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 2019 के लोकसभा चुनावों में कड़ी टक्कर देने के लिए एकजुट होने की पक्षधर है वे सभी नीतिश कुमार को अपना सर्वमान्य नेता मानने के प्रश्न पर एकमत नहीं हो सकती। महत्वाकांक्षाओं के टकराव से नीतिश की योजना पर पानी फिर सकता है। अब देखना यह है कि क्या नीतिश कुमार अपनी राजनीतिक चतुराई के बल पर अपनी योजना में किस हद तक सफल हो पाते है। अगले लोकसभा चुनावों में अभी इतना समय बाकी है कि तब तक नए नए राजनीतिक समीकरण बनते और बिगड़ते रहेंगे।