मिल-बैठकर समाधान खोजने का वक्त

courtअनूप भटनागर।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर ने भावुक होकर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के अनुरोध किया। इसके साथ ही अदालतों में लंबित तीन करोड़ से अधिक मुकदमों, न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के रिक्त स्थान और जनसंख्या के अनुपात में न्यायाधीशों और अदालतों की संख्या में वृद्धि नहीं किये जाने का मसला एक बार फिर न्यायिक सुधारों की चर्चा का केन्द्र बिन्दु बन गया है।
इसमें दो राय नहीं है कि न्यायमूर्ति जे. एस. खेहड की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग और इससे संबंधित संविधान संशोधन निरस्त किये जाने के बाद से ही कार्यपालिका और न्यायपालिका के रिश्ते मधुर नहीं हैं। संविधान पीठ का यह निर्णय आने के बाद से ही उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों का काम आगे नहीं बढ़ पा रहा है। सारा मामला अब इन नियुक्तियों के लिये अपनाई जाने वाली प्रक्रिया संबंधी प्रतिवेदन को अंतिम रूप दिये जाने को लेकर अधर में अटका है। कहते हैं कि कार्यपालिका इसमें अपनी भूमिका चाहती है जबकि न्यायाधीशों की समिति इसके लिये तैयार नजर नहीं आती।
यह सही है कि विधि आयोग ने अपनी रिपोर्टों में न्यायपालिका के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 40 हजार करने की सिफारिश की थी लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गयी है। विधि आयोग ने करीब तीन दशक पहले सिफारिश की थी कि दस लाख की आबादी पर कम से कम 50 न्यायाधीश होने चाहिए जबकि आज भी 58,800 की आबादी पर सिर्फ एक न्यायाधीश ही है। स्थिति यह है कि राज्यों की अधीनस्थ अदालतों में इस समय न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के करीब 4,600 पद रिक्त हैं जबकि 24 उच्च न्यायालयों में इस तरह के करीब 470 पद रिक्त हैं। प्राप्त संकेतों के अनुसार मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में निर्णय लिया गया है कि यदि नयी नियुक्तियां नहीं की गयीं तो फिर संविधान के अनुच्छेद 224-ए के आपात प्रावधान का इस्तेमाल करके सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को तदर्थ आधार पर नियुक्त करने की कवायद शुरू की जा सकती है।
वर्ष 2013 में मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पदों में 25 फीसदी वृद्धि करने का प्रस्ताव पारित किया गया था। इस प्रस्ताव के अनुरूप न्यायाधीशों के नये पदों के सृजन के प्रयास किये भी गये हैं। लेकिन यहां सवाल उठता है कि राज्य सरकारें और प्रदेश की नौकरशाही अधीनस्थ न्यायपालिका में अदालतों की संख्या बढ़ाने के साथ ही आबादी के अनुपात में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की संख्या में वृद्धि क्यों नहीं करती? क्यों अधीनस्थ न्यायपालिका में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के 4600 से अधिक पद रिक्त हैं? अधीनस्थ न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाने और अदालतों की संख्या के साथ ही न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि का मुद्दा उठने पर राज्य सरकारें धन की कमी का रोना रोते हुए केन्द्र से वित्तीय सहायता की अपेक्षा क्यों करती हैं?
11वें वित्त आयोग ने सत्र अदालतों में लंबित मुकदमों के तेजी से निपटारे के लिये 1734 त्वरित अदालतें गठित करने की सिफारिश की थी। केन्द्र सरकार ने 1562 ऐसी अदालतों के सृजन को मंजूरी दी। इन अदालतों के लिये 31 मार्च 2005 तक केन्द्र ने वित्तीय मदद देने का निश्चय किया था लेकिन जैसे ही केन्द्र ने वित्तीय मदद से हाथ खींचा, अधिकांश राज्यों ने धन की कमी का हवाला देते हुए त्वरित अदालतों को बंद करना शुरू कर दिया।
आज भी न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के पदों पर भर्तियों की प्रक्रिया में अपेक्षित तेजी नजर नहीं आती। ऐसा लगता है कि शायद कार्यपालिका के लिये यह प्राथमिकता का विषय नहीं है। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि राज्य स्तर पर अधीनस्थ अदालतों को सुदृढ़ बनाने की मंशा ही नहीं है क्योंकि यदि अधीनस्थ न्यायपालिका को सुदृढ़ करके इसमें अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ा दी गयी तो मुकदमों के निपटारे की प्रक्रिया गति पकड़ लेगी और इससे सत्ता का सुख भोगने वालों का राजनीतिक भविष्य प्रभावित हो सकता है।
अब जहां तक उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्तियों को लेकर व्याप्त गतिरोध का मामला है तो प्रधानमंत्री ने भी मिल बैठकर इसका समाधान खोजने के संकेत दिये हैं, लेकिन इतना निश्चित है कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिये इस विवाद का सर्वमान्य और स्थाई हल खोजना जरूरी है। देखना यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उच्च स्तरीय बैठक करके किस तरह से इस गतिरोध को दूर करते हैं।