अखिलेश यादव से यही उम्मीद थी

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कृष्णमोहन झा
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी में कौमी एकता दल के विलय को रुकवाकर यह साबित कर दिया है कि वे राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के बेटे भर नहीं है बल्कि मुख्यमंत्री के रूप में उनकी अपनी निजी हस्ती भी है और पार्टी के महत्वपूर्ण फैसलों में उनकी अपनी राय को नजरअंदाल नहीं किया जा सकता। विगत दिनों जब राज्य के वरिष्ठ मंत्री शिवपाल यादव ने कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय की घोषणा की थी तो मुख्यमंत्री को पार्टी का यह फैसला तनिक भी रास नहीं आया था और उन्होंने अपनी नाराजगी को छुपाने का प्रयास भी नहीं किया। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तत्काल ही अपनी सरकार के माध्यमिक शिक्षा मंत्री बलराम यादव को इसलिए बर्खास्त कर दिया था क्योंकि उन्होंने समाजवादी पार्टी में कौमी एकता दल के विलय की पृष्ठभूमि तैयार करने में मुख्य भूमिका निभाई थी। गौरतलब है कि बलराम यादव को समाजवादी पार्टी सुप्रिमो मुलायम सिंह यादव को बेहद करीबी माना जाता है। मुख्यमंत्री की इस घोर नाराजगी भरी कार्यवाही ने सपा सुप्रीमो को पार्टी के संसदीय बोर्ड की आपातकालीन बैठक बुलाने पर विवश कर दिया था। उक्त बैठक में फिर बीच का रास्ता निकाला गया। मुख्यमंत्री की राय का सम्मान करते हुए सपा में कौमी एकता दल के विलय का फैसला रद्द कर दिया गया और इसके बाद मुख्यमंत्री भी बलराम यादव को पुन: अपनी सरकार में शामिल करने के लिए तैयार हो गए। इस सारे घटनाक्रम से दो बातें उभरकर सामने आई हैं एक तो यह है कि मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव ने अपनी ताकता का अहसास करा दिया है और दूसरी पार्टी में मुलायम सिंह यादव अभी सर्वोच्च हस्ती हैं परन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पार्टी अगले विधानसभा चुनावों के दौरान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को ऐसे साफ सुथरी छवि वाले मुख्यमंत्री के रूप में पेश करना चाहती है जो आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को संरक्षण के पक्ष में नहीं है। गौरतलब है कि कौमी एकता दल का गठन उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल के बाहुबली विधायक मुख्यतार अंसारी ने किया था जो हत्या और अपहरण जैसे संगीन अपराधों के कारण जेल की सजा काट रहे है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नहीं चाहते थे कि पार्टी के इस फैसले से जनता में यह संदेश जाए कि सत्तारूढ़ पार्टी उस राजनीतिक दल से भी हाथ मिला सकती है जिनकी कमान आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के हाथों में है। समाजवादी पार्टी इस उम्मीद में थी कि उसमें कौमी एकता दल के विलय से सत्तारूढ़ पार्टी को पूर्वांचल की कुछ सीटों पर चुनावी लाभ अर्जित करने में मदद मिलेगी परन्तु मुख्यमंत्री पार्टी के इस विचार से असहमत थे। वे यह मानकर चल रहे थे कि कौमी एकता दल को सपा में शामिल कर लेने से राज्य के दूसरे हिस्सों में गलत संदेश जाएगा और उसकी वजह से उसे जो चुनावी नुकसान उठाना पड़ेगा वह पूर्वाचल में संभावित लाभ से ही बहुत अधिक होगा।
यहां यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में सन 2012 में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के पूर्व भी अखिलेश यादव ने ऐसे ही सख्त तेवर दिखाए थे जब उनहोंने बाहुबली नेता डीपी यादव की चुनाव लडऩे की मंशा पूरी नहीं होने दी थी। अखिलेश यादव के सख्त तेवरों के कारण ही डीपी यादव समाजवादी पार्टी की टिकिट हासिल करने से वंचित रह गए थे। बताया जाता है कि एक अन्य बाहुबली विधायक राजा भैया को भी सपा सरकार में शामिल करने के लिए अखिलेश यादव तैयार नहीं थे परन्तु राजनीतिक मजबूरियों के चलते उन्हें कुछ समझौते भी करना पड़े। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कठोर रूख के कारण समाजवादी पार्टी में कौमी एकता दल का विलय भले रूक गया हो परन्तु इससे यह हकीकत भी जाहिर हो गई है कि अगले चुनावों में वह दुबारा सत्ता में लौटने के प्रति निश्चित नहीं है अन्यथा वह उस कौमी एकता दल के अपनी पार्टी में विलय में इतनी दिलचस्पी नहीं दिखाती जिसके सदन में मात्र तीन विधायक है। अगर पार्टी संसदीय बोर्ड की बैठक में भी इस विलय प्रस्ताव पर मुहर लग जाती तो निश्चित रूप से भाजपा आगामी विधानसभा चुनावों में इसे सपा के विरूद्ध बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने से नहीं चूकती। गौरतलब है कि कौमी एकता दल के संस्थापक मुख्तार अंसारी, भाजपा विधायक कृष्णानन्द राय विहिप पदाधिकारी नन्द किशोर रूंगटा की हत्या के आरोप में ही जेल के सीकंचों में बन्द हैं। सपा में कौमी एकता दल के विलय की घोषणा होते ही राज्य भाजपा ने यह प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने यदि चार सालों में सचमुच प्रदेश का विकास किया होता तो उसे ऐसे किसी सियासी हथकंडे का सहारा लेने की जरूरत नहीं पड़ती।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सपा में कौमी एकता दल के विलय के प्रस्ताव को रद्द करवा निश्चित रूप से जनता को यह संदेश देना चाहा है कि वे अपराध और राजनीति में घालमेल के पक्ष में नहीं हैं परंतु केवल इतना भर काफी नहीं हैं सपा सरकार ने राज्य में पिछले चार सालों में कई विकास योजनाएं जो जरूर प्रारंभ की है परन्तु कानून और व्यवस्था की स्थिति पर उसका नियंत्रण इतना कमजोर हो चुका है कि विरोधी दल उसकी इस असफलता को चुनावी मुद्दा बनाने में पीछे नहीं रहेंगे। अब देखना यह हैं कि क्या मुख्यमंत्री अगले एक वर्ष में राज्य की कानून व्यास्था की स्थिति में जनता का भरोसा जगाने में सफल होंगे। अखिलेश यादव अगर अपनी कठोर प्रशासक की छवि को बरकरार रखना चाहते है तो उन्हें यही सख्त तेवर अगले एक साल के दौरान दिखाना होंगे। अगर अगले चुनावों में पार्टी टिकिट वितरण के दौरान भी वही सख्त तेवर दिखाए जो 2012 में डीपी यादव की टिकिट कटवाने के लिए दिखाए थे तो निश्चित रूप से वे जनता का दिल जीतने में सफल हो सकते है।