क्या अतीत की तरह स्वर्णिम होगा देश का भविष्य

child and gagetsविमल शंकर झा।
स्वर्णिम अतीत वाले देश में उम्मीद की जा रही है कि इसका भविष्य भी सुनहरा होगा। यह खुशफहमी गलतफहमी न साबित हो इसके लिए इस देश की सरकार और समाज कितने संजीदा और ईमानदार हैं ? आज के बच्चे ही देश का भविष्य हैं, नई पीढ़ी से हमारी इस तरह की आशाएं कितनी अपेक्षित हैं, यह उनके वर्तमान को देख कर अंदाज लगाया जा सकता है। और देश का भविष्य गढऩे हम उन्हें किस तरह तैयार कर रहे हैं ? निस्संदेह बच्चे पहले की अपेक्षा आज अधिक समझदार हैं मगर क्या आज के आधुनिक युग के अनुरुप भारत के भविष्य का नवनिर्माण करने में यह पीढ़ी सक्षम साबित होगी, इस प्रश्न से पूरे देश का कई बौद्धिक और अनौपचारिक मंचों पर आए दिन सामना होता है किंतु इसका माकूल जवाब किसी के पास नहीं है। पुरानी कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही दिखाई दिख जाते हैं। दुखदायी सच्चाई यह है कि आज के निराशाजनक माहौल में किशोर और युवा पीढ़ी से भारत को फिर से विश्व गुरु और सोने चिडिय़ा बनाने की उम्मीद करना बेमानी हो सकता है। इसके लिए यह पीढ़ी जिम्मेदार नहीं है बल्कि उन्हें अंधकार में धकेलने वाला हमारा यह खुद गुमराह समाज और सरकार जिम्मेदार है। इसकी वजह यह है कि नई पीढ़ी का एक बड़ा तबका वह है जो पब्लिक स्कूलों और बड़े कालेजों व विश्वविद्यालयों में महज इसलिए पढ़ रहा है कि डिग्री लेकर साहब बनना है। नैतिकता की तालीम देना उन शैक्षणिक संस्थाओं के पाठ्यक्रम में नहीं है। न ही पालक ही इसे लेकर बहुत ज्यादा संजीदा दिखाई देते हैं। स्टेटस सिंबाल और इंजीनियर डाक्टर बनाने के लिए डिग्रियां हासिल करवाना ही उनका मकसद है। बच्चे भी इसी मानसिकता, लक्ष्य और वातावरण में अपनी तालीम हासिल कर रहे हैं। वहींं इस पीढी का दूसरा एक बड़ा वर्ग वह है जो गरीब और निम्न मध्यम वर्ग से जुड़़ा होने से अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़ कर भटक जाते हैं । कुल मिला कर दोनों ही वर्ग के बच्चों का एक बड़ा प्रतिशत अंधेरी गलियों में भटक रहा है। वहीं जो अंग्रेजियत और पश्चिमी संस्कृति के माहौल में पढ़ लिख रहे हैं उन्हें इंडिया के बच्चे हैं उन्हें भारत से कोई सरोकार नहीं है। इनके उच्च मध्यम, उच्च और यहां तक की अब तो मध्यम वर्ग के पालकों की सोच अपना सपना मनी मनी हो गई है तब देश का भावी भविष्य कहे जाने वाले उनके बच्चों की सोच आगे कैसी होगी इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। आधुनिक संस्कृति में रचे बसे इस वर्ग की सोच का एक सीमित दायरा है। मौजूदा सूरते हाल यह है कि एक वे बच्चे जिनकी पढ़ाई छूटने के बाद जो स्ट्रीट ब्वाय बन कर रह गए हैं और दूसरे वे बच्चे जो संपन्न और सक्षम पालकों को संतानें होने और पश्चिमी सभ्ययता के रंग में रंगे हैं। अंधेरी गलियों में भटकने वाले दोनों ही तबकों के बच्चों का एक बड़ा वर्ग समाज के सामने एक बड़ी चुनौती है। इंटरनेट के अत्याधुनिक शस्त्र से लैस नशा, अपराध, फैशन, सेक्स, पार्टी और आवारगी इनकी संस्कृति बन गई है। इसमें लड़कों के साथ कंधा से कंधा मिलाते हुए लड़कियां कदमताल कर रही है। हाय माम हाय डैड और ब्याय फ्रैंड, गर्ल फ्रैंड के कल्चर में नई पीढ़ी सांस ले रही है। और जिम्मेदार लोग खुदगर्जी, मसरुफियत और लापरवाही के नाम पर निहायत ही अकर्मण्य और असंवेदनीशील बने हुए हैं, ऐसे हताशा के माहौल में देश का भविष्य उज्जवल होगा,यह अवधारणा कितनी आधारभूत है? यह एक ज्वलंत और गंभीर सवाल है। सबसे चिंताजनक बात अंधेरी गलियों में भटकते बच्चों की है जो आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या है जिसे इस रुप में ट्रीट ही नहीं किये जाने से यह लाईलाज होती जा रही है। ताजातरीन मिसाल छत्तीसगढ़ में दुर्ग के बाल संप्रेक्षण गृह के अपचारी बच्चों के हिंसक हो जाने की घटना है। 11 जुलाई को बाल संरक्षण गृह के 59 बच्चे एकाएक हिंसक हो गए और छत पर चढ़कर पुलिस पर पथराव करने लगे। एक पुलिस कर्मी को एक बच्चे ने चाकू मार दिया दो अन्य लोग घायल हो गए। इतना ही नहीं बच्चे गैस सिलेंडर छत पर ले आए और भवन को उड़ाने की बात कहने लगे। अपचारी बच्चों के पास से मोबाईल और नशा की वस्तुएं भी मिलीं। कई लोग नशा किए हुए थे। कलेक्टर, एसपी और जज की समझाईश के बाद भी वे शांत नहीं हुए। बच्चे वर्दी में आए एक पुलिस कर्मी को देख भड़के थे। कई बच्चे रात में भाग भी गए । इसके पहले भी बाल संप्रेक्षण गृह में अपचारी बच्चों के इस तरह के उत्पात मचाने और फरार होने की घटनाएं हो चुकी हैं। बाल संप्रेक्षण गृह में उन नाबालिग बच्चों को रखा जाता है जो विभिन्न अपराधों के आरोपी होते हैं या सजायाफ्ता होते हैं। इन बाल संरक्षण गृह और जेलों में कोई खास फर्क नहीं है। देशभर के बाल संप्रेक्षण गृहों और जेलों की बद्तर स्थिति किसी से छिपी नहीं है। फिर बाल संप्रेक्षण गृह में बंद अपचारी बच्चों की संख्या बाहर अंधेरी गलियों में भटक रहेे अपचारी बच्चों की तुलना में ऊंट के मुंह में जीरा की तरह है। यह तबका अपचारी कैसे बना और उन्हें इस स्टेज पर लाने के लिए यह समाज और सरकार कितने जिम्मेदार है ? फिर उन्हें सुधारने के लिए हम कितने गंभीर और ईमानदार हैं। इस बात का जवाब कौन देगा कि दुर्ग के बाल संप्रेक्षण गृह के बच्चों को नशे की वस्तुएं और मोबाईल किसने उपलब्ध करवाया। देश की तकदीर और तस्वीर बदलने के सब्जबागी दावे में आत्ममुगध इस सरकार के पास भी 67 साल तक राज करने वाली तमाम केंद्र सरकारों और राज्य सरकारों की तरह कोई जवाब नहीं है कि देशभर के बाल संरक्षण गृहों और जेलों में इस तरह के नशे के सामान और असलाहा, मौबाईल से लेकर तमाम अवैध सामान कैसे पहुंच जाता है। थाने और जेलों की नीलामी के हिस्से में कितने और किस लेबल के राजनीतिकों और अफसरों की हिस्सेदारी होती है? इनमें सुविधाओं और व्यवस्था के नाम पर 79 सालों में सरकारों ने क्या किया। किरण बेदी से लेकर छत्तीसगढ़ के रमेशचंद्र शर्मा तक कितने ही आईपीएस आफिसर गुमराह हुए ऐसे लोगों को सुधारने और जेलों को सुधार गृह में तब्दील करने के प्रयास में थक कर उन्ही राजनीतिक दलों में शामिल हो गए जो कभी इसके लिए गंभीर नहीं दिखे। उनकी सकारात्मक और पहल को सरकारों ने कभी बहुत गंभीरता से नहीं लिया और कभी बजट तो कभी कानून व्यवस्था के नाम पर इस समस्या का निदान तलाशने की ही खानापूर्ति की। नतीजा यह हुआ कि आज ऐसे अपचारी बच्चों की तादाद में इंटरनेट और पश्चिमी माहौल में निरंतर गुणात्मक बढ़ोत्तरी हो रही हैैैैैैैै। हमारी जेलें और सुधारगृह अमरीका,जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रेलिया और इंगलैंड की के उलट सीलन बदबू, तंगखाने और क्राईम एंड करेप्शन सेंटर के रुप में जानी जाती हैं। यहां की व्यवस्था और बंदियों और कैदियों को सुधारने कभी गंभीर प्रयास नहीं किए गए। जाने अंजाने पहली बार अपराध करने वाला यहां पहुंच कर हार्डकोर अपराधी की टे्रनिंग लेकर बाहर निकल कर पहले भी ज्यादा समाज में अराजकता फैलाता है। सुधार और सुविधाओं के बजट व्यवस्था के पैरोकार निगल रहे हैं। सबसे दुखदायी बात तो यह है कि बाल सुधार गृह और अंधेरी गलियों में भटक रहे ऐसे बच्चों को सुधारने की जिम्मेदारी किसकी है। जिसने उन्हें परोक्ष रुप से बिगाड़ा उनकी या फिर किसी और की है? सरकार इस सामाजिक,आर्थिक और मनोवैज्ञानिक समस्या को कानून व्यवस्था से परे हटकर सुलझाएगी तभी इस लाइलाज हो चुकी व्याधि की सर्जरी हो पाएगी। सरकार के साथ समाज को भी इसके लिए प्रयास करना होगा कि वह स्वस्थ्य वातावरण बच्चों को उपलब्ध करवाया जाए जहां नशा, अपराध और फैशन के नाम पश्चिमी संस्कृति का अराजक माहौल नहीं बल्कि संस्कार,शिक्षा, सुविधा, प्यार और अपनापन मिले। बच्चे जब स्वस्थ्य वातावरण में पलेंगे, पढ़ेंगे बढ़ेंगे तभी देश का भविष्य उज्जवल होगा। यदि यह दोनों जिम्मेदार एजेंसिया लापरवाह और इसी तरह सुस्त रहेंगी तो बच्चे इसी तरह अराजक होते रहेंगे।