पंकज चतुर्वेदी।
आषाढ़ में कुछ घंटे पानी क्या बरसा राजधानी दिल्ली व उससे सटे शहर ठिठक गए। सड़क पर दरिया था और नाले उफान पर। दिल्ली से सटे गाजियाबाद, नोएडा, गुडग़ांव जैसे शहर घुटने-घुटने पानी में डूबते दिखे। भोपाल में 10 से 12 फुट पानी था तो इंदौर में सभी मुख्य मार्ग जलमग्न थे। ऐसी ही खबरें लखनऊ, गोंडा हो या औरेया, गुवाहाटी हो या फिर मुंबई से आ रही हैं। पूरे देश में गर्मी से निजात के आनंद की कल्पना करने वाले अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं।
विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। वैसे इस बात का जवाब कोई नहीं दे पाता कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है। यह सभी जानते हैं कि दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की-सी बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल हैं, लेकिन कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं करता कि आखिर निर्माण में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में।
देश भर के शहरों में बढ़ते यातायात को सहज बहाव देने के लिए बीते एक दशक के दौरान ढेर सारे फ्लाई ओवर और अंडरपास बने। कई बार दावे किए गए कि अमुक सड़क अब ट्रेफिक सिग्नल से मुक्त हो गई है। इसके बावजूद हर शहर में हर साल कोई 185 जगहों पर 125 बड़े जाम और औसतन प्रतिदिन चार से पांच छोटे जाम लगना आम बात है। बरसात में तो यही संरचनाएं जाम का कारक बनती हैं।
बारिश के दिनों में अंडरपास और बीआरटी कॉरीडोरों में पानी भरना ही था, इसका सबक हमारे नीति-निर्माताओं ने दिल्ली के दिल में स्थित आईटीओ के पास के शिवाजी ब्रिज और कनाट प्लेस के करीब के मिंटो ब्रिज से नहीं लिया था। ये दोनों ही निर्माण बेहद पुराने हैं और कई दशकों से बारिश के दिनों में दिल्ली में जलभराव के कारक रहे हैं। इसके बावजूद दिल्ली को ट्रेफिक सिग्नल मुक्त बनाने के नाम पर कोई चार अरब रुपए खर्च कर दर्जनभर अंडरपास बना दिए गए। सबसे शर्मनाक तो है हमारे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को जोडऩे वाले अंडरपास का नाले में तबदील हो जाना। कहीं पर पानी निकालने वाले पंपों के खराब होने का बहाना है तो सड़क डिजाइन करने वाले नीचे के नालों की ठीक से सफाई न होने का रोना रोते हैं तो दिल्ली नगर निगम अपने यहां काम नहीं कर रहे कई हजार कर्मचारियों की पहचान न कर पाने की मजबूरी बता देता है।
इन अंडरपास की समस्या केवल बारिश के दिनों में ही नहीं है। आम दिनों में भी यदि यहां कोई वाहन खराब हो जाए या दुर्घटना हो जाए तो उसे खींच कर ले जाने का काम इतना जटिल है कि जाम लगना तय ही होता है। जमीन की गहराई में जाकर ड्रेनेज किस तरह बनाया जाए, ताकि पानी की हर बूंद बह जाए, यह तकनीक अभी हमारे इंजीनियरों को सीखनी होगी। इंदौर, भोपाल के बीआरटी कॉरीडोर थोड़ी बरसात में नाव चलने लायक हो जाते हैं।
ठीक ऐसे ही हालात फ्लाईओवरों के भी हैं। जरा पानी बरसा कि उसके दोनों ओर यानी चढ़ाई व उतार पर पानी जमा हो जाता है। कारण एक बार फिर वहां बने सीवरों की ठीक से सफाई ना होना बता दिया जाता है। असल में तो इनके डिजाइन में ही कमी है। कई स्थानों पर इन पुलों का उठाव इतना अधिक है कि आए रोज इन पर भारी मालवाहक वाहनों का लोड न ले पाने के कारण खराब होना आम बात है।
यह विडंबना है कि हमारे नीति-निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे देश की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जहां न तो दिल्ली की तरह मौसम होता है और न ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। नागपुर का सीवर सिस्टम बरसात के जल का बोझ उठाने लायक नहीं है, साथ ही उसकी सफाई महज कागजों पर होती है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है।
महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण हैं। पॉलीथिन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा कुछ ऐसे कारण हैं, जो गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी।