लोकतांत्रिक इतिहास की दुखद घटना

kejriwal-modi

ललित गर्ग। यह अपने आपमें लोकतंत्र के इतिहास की एक आश्चर्यकारी दुखद घटना है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगा रहे हैं कि वे उनकी हत्या भी करवा सकते हैं। केजरीवाल का बयान आम-आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए वीडियो-संदेश के रूप में सामने आया है। केजरीवाल ने यह वीडियो सोशल मीडिया पर डाला है। 9.49 मिनट लंबे इस वीडियो में केजरीवाल ने अपने विधायकों से जेल जाने के लिए तैयार रहने को भी कहा है। उनका मत है कि मोदी और अमित शाह, आम आदमी पार्टी से बदला लेने के लिए किसी भी स्तर तक नीचे उतर सकते हैं और उन्हें मरवा तक सकते हैं। राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं, लेकिन स्वस्थ राजनीति के लिये उनका स्तर इस हद तक गिरना एक गंभीर चिन्ता का विषय है।
निर्वाचित मुख्यमंत्री का अपने ही देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री पर इस तरह का आरोप निश्चित ही लोकतंत्र की अवमानना है। केजरीवाल का इस तरह का आरोप लगाना देश के राजनीतिक-परिदृश्य के लिये त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण है। केजरीवाल को लगता है कि केन्द्र-सरकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार को परेशान करना चाहती है। आप विधायकों को गिरफ्तार करना हो या उन पर पुलिस कार्रवाई या फिर आयकर के छापों की कार्रवाई – इन परिप्रेक्ष्यों में केजरीवाल मानते हैं कि मोदी उनसे और उनकी पार्टी से काफी गुस्सा हैं और बौखलाए हुए हैं। आप के मंत्रियों और विधायकों को गलत मामलों में फंसाया जा रहा है। इस तरह की केजरीवाल की बयानबाजी और उनकी नौटंकी नयी बात नहीं है। लोकतंत्र में मतभेदों का होना भी नयी बात नहीं है, राजनीति में वैचारिक मतभेदों का सिलसिला लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती माना जाता है। लेकिन मतभेद जब मनभेद बन जाते हैं तब समस्या का रूप ले लेते हैं। लगता है भाजपा दिल्ली की हार को एवं केजरीवाल दिल्ली की जीत को पचा नहीं पा रहे हैं, दोनों ही स्थितियां राजनीतिक प्रदूषण को दर्शाती है।
प्रधानमंत्री पर लगाये आरोप के पीछे भले ही केजरीवाल के निहित राजनीतिक उद्देश्य हों, लेकिन टिप्पणी के तेवर और उसके संदर्भों को सिर्फ यहीं तक सीमित होकर नहीं देखा जा सकता, इसमें राजनीतिक-बदहजमी की गंध भी आ रही है। यह भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की अवमानना से भी जुड़ी है, अत: देश के प्रबुद्ध नागरिकों को भी इस बारे में सोचना चाहिए। सोचना आप पार्टी को भी चाहिए कि इस तरह की घटनाओं से लोकतांत्रिक व्यवस्था ही धुंधलाती है। कभी-कभी ऊंचा उठने और राजनीतिक उपलब्धियों की महत्वाकांक्षा राष्ट्र को यह सोचने-समझने का मौका ही नहीं देती कि कुछ पाने के लिए उसने कितना खो दिया? और जब यह सोचने का मौका मिलता है तब पता चलता है कि वक्त बहुत आगे निकल गया और तब राष्ट्र अनिर्णय के ऊहापोह में दिग्भ्रमित हो जाता है।
हमारे नेताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि लोकतंत्र की गरिमा पर लगा कोई भी धब्बा वस्तुत: हमारे देश तथा स्वयं हमारे चेहरे को बदरंग बनाता है। संसद की अवमानना चाहे जान-बूझ कर की जाये या फिर अनजाने में, एक अपराध है- अपने देश तथा अपनी जनतांत्रिक व्यवस्था के प्रति अपराध। महात्मा गांधी के प्रिय भजन की वह पंक्ति- सबको सन्मति दे भगवान में फिलहाल थोड़ा परिवर्तन हो- केवल आकाओं को सन्मति दे भगवान- केजरीवाल को सन्मति दे भगवान।
एक व्यक्ति पहाड़ (जिद के) पर चढ़कर नीचे खड़े लोगों को चिल्लाकर कहता है, तुम सब मुझे बहुत छोटे दिखाई देते हो। प्रत्युत्तर में नीचे से आवाज आई तुम भी हमें बहुत छोटे दिखाई देते हो। बस! यही कहानी तब तक दोहराई जाती रहेगी जब तक आरोप-प्रत्यारोप का स्तर गिरता रहेगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा संवैधानिक अधिकार है। जनतंत्र में किसी को भी अपनी बात कहने का हक मिलना ही चाहिए, लेकिन इस हक के साथ अभिव्यक्ति की शालीनता का कर्तव्य भी जुड़ा है। आरोप-प्रत्यारोप की स्वतंत्रता भी जरूरी है और उनका संयमित होना भी जरूरी है। असंयमित स्वतंत्रता उच्छृंखलता कहलाती है, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन हमारे सार्वजनिक जीवन में कम-से-कम राजनेताओं ने तो यह मान लिया लगता है कि उन्हें कुछ भी कहने का अधिकार है, भले ही वह कितना भी अनुचित और अनावश्यक क्यों न हो। देख रहे हैं कि कोई दयाशंकर किसी दलित महिला राजनेता पर घिनौनी छिंटाकशी करता है तो इसके प्रत्युत्तर में दयाशंकर की पत्नी और बेटी तक पर अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया जाता है-अक्सर हमने अपने नेताओं को अप्रिय और अनुशासनहीन भाषा का इस्तेमाल करते देखा है। जहां तक सार्वजनिक बयानों का सवाल है, हमारे नेता एक-दूसरे पर किसी भी तरह का कीचड़ उछालने में संकोच अनुभव नहीं करते। उल्टे यह मान लिया गया है कि कुछ भी कह देने का मतलब अपनी ताकत दिखाना होता है। राजनीति में शक्ति प्रदर्शन का तरीका घोर निन्दनीय है और आपत्तिजनक है।
आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है हम राष्ट्रीयता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर हमें अपनी व राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए। गांधी, नेहरू के बाद राष्ट्रीय नेताओं के कद छोटे होते जा रहे हैं और परछाइयां बड़ी होती जा रही हैं। हमारी प्रणाली में तंत्र ज्यादा और लोक कम रह गया है। यह प्रणाली उतनी ही अच्छी हो सकती है, जितने कुशल चलाने वाले होते हैं। लोकतंत्र श्रेष्ठ प्रणाली है। पर उसके संचालन में शुद्धता हो। लोक जीवन में लोकतंत्र प्रतिष्ठापित हो और लोकतंत्र में लोक मत को अधिमान मिले। कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति खड़ी है कि रास्ता बताने वाले रास्ता पूछ रहे हैं। और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं। दोनों ही भटकाव की स्थितियां हैं।
सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चैराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है। आंखें उस चेहरे पर सचाई की साक्षी ढूंढती हैं। देश के लोकतंत्र को हांकने वाले लोग इतने बदहवास होकर निर्लज्जतापूर्ण आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करें, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
राजनीति का वह युग बीत चुका जब राजनीतिज्ञ आदर्शों पर चलते थे। आज हम राजनीतिक दलों की विभीषिका और उसकी अतियों से ग्रस्त होकर राष्ट्र के मूल्यों को भूल गए हैं। भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। चारों ओर भ्रम और मायाजाल का वातावरण है। भ्रष्टाचार और घोटालों के शोर और किस्म-किस्म के आरोपों के बीच देश ने अपनी नैतिक एवं चारित्रिक गरिमा को खोया है। मुद्दों की जगह अभद्र टिप्पणियों ने ली है। व्यक्तिगत रूप से छींटाकशी की जा रही है।
दो तरह के नेता होते हैं- एक वे जो कुछ करना चाहते हैं, दूसरे वे जो कुछ होना चाहते हैं। असली नेता को सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी होकर, प्रासंगिक और अप्रासंगिक के बीच भेदरेखा बनानी होती है। ऐसा करके वे राजनीति को आदर्श तो बना ही सकते हैं, देश का नक्शा भी बदल सकते हैं। लेकिन नेतृत्व के नीचे शून्य तो सदैव खतरनाक होता ही है पर यहां तो ऊपर-नीचे शून्य ही शून्य है। इसी की निष्पत्ति है कि एक प्रांत का सर्वोच्च नेतृत्व विकास की बात पर केन्द्रित न होकर कोरी राजनीति कर रहा है। कहीं कोई रोशनी नहीं दिखाई दे रही है। रोशनी दिखाई भी कैसे देगी? क्योंकि झूठ और मूल्यहीनता के सहारे रोशनी अवतरित नहीं होती। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हमारी राजनीति में नैतिकता और चरित्र को देखने की परम्परा धूमिल होती जा रही है और यह अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई इस बारे में नहीं सोच रहा है।
आज जिस तरह से हमारा राष्ट्रीय जीवन और सोच विकृत हुए हैं, हमारा व्यवहार झूठा हुआ है, चेहरों से ज्यादा नकाबें ओढ़ रखी हैं, उसने हमारे सभी राजनीतिक मूल्यों को धराशायी कर दिया। हम क्यों राजनीति को प्रदूषित होते हुए देखकर भी मौन है? इन स्थितियों में कौन आदर्श उपस्थित करेगा?