ललित गर्ग। अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की जिन परिस्थितियों में आत्महत्या की घटना सामने आयी है, वह दुखद तो है ही, उसने अनेक प्रश्न खड़े कर दिये हैं। राजनीति की दूषित हवाओं ने न केवल आम-आदमी को बल्कि सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को भी इस तरह की घटनाओं के लिये विवश किया है, यह एक देश की छवि को सहज ही आहत करता है। आत्महत्या का नाम जहन में आते ही दिल सहर उठता है लेकिन एक पूर्व मुख्यमंत्री की आत्महत्या का शायद यह पहला प्रकरण है, जिसने भारतीय राजनीति व्यवस्था के मंच पर बिखरते जीवन मूल्यों को उजागर किया है। यह घटना बताती है कि राजनीति की कड़वाहट कभी-कभी हमें किस हद तक ले जाती है। इस घटना ने दिमाग को सोचने को विवश किया है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि पुल के सामने मौत के अलावा कोई दूसरा रास्ता शेष नहीं बचा। आखिर क्यों एक राजनेता आत्महत्या करता है ? क्यों जन-जन के जीवन की रक्षा करने का भरोसा देने वाला राजनेता अपना जीवन स्वयं समाप्त कर लेता है? आखिर जनजीवन में जीवन के आश्वासन के अंकुरण को आधार देने वाला राजनेता कैसे अपने जीवन के अंकुरण को समाप्त कर देता है?
कलिखो पुल का इस तरह से भयावह घटनाक्रम में हमारे बीच से जाना यह बताता है कि हमारी राजनीति में छोटी-छोटी लड़ाइयों और सत्ता के संघर्षो को कुछ ज्यादा ही तूल दी जाने लगी है, साथ ही उन्हें बेवजह जीवन-मरन का प्रश्न भी बना दिया गया है। राजनीति को इस तरह की विसंगतियों एवं विषमताओं से मुक्ति दिलाना जरूरी है। पुल की जिंदगी का अंत इस तरह होगा, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। इसी साल फरवरी महीने में उन्होंने मुख्यमंत्री का पद जिस तरह संभाला था, वह घटनाक्रम काफी विवादास्पद था। विवादास्पद तो पुल को मुख्यमंत्री पद की जिस तरह शपथ दिलायी वह घटनाक्रम भी बना। साढ़े चार महीने के भीतर ही वे इस पद से अलग कर दिए गए। इसके बाद पुल ने आत्महत्या कर ली है। बताया जा रहा है कि सत्ता जाने के बाद वह मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजर रहे थे। उनकी आत्महत्या को लेकर तरह-तरह के विचार सामने आ रहे हैं, लेकिन राजनीति कड़वाहटों ने एक ऐसे राजनेता की बलि ले ली, जिसमें भविष्य की बहुत सारी संभावनाएं थीं। उनका आत्महत्या करने का निर्णय दुखद है तो इस तरह की राजनीति परिस्थितियां बनना उससे भी बड़ी दुखद घटना है। 47 वर्ष के आयु में पांच बार विधानसभा चुनाव जीतकर अरुणाचल जैसे खूबसूरत प्रदेश की राजनीति में अव्वल स्थान बनाने वाले पुल का आत्महत्या की ओर अग्रसर होने का यदि राजनीतिक कारण है तो यह भारतीय सम्पूर्ण राजनीतिक प्रक्रिया पर कालिख लगने के समान है। भारतीय राजनीति में शीर्ष नेतृत्व की आत्महत्या की बात का गले उतरना बहुत आसान नहीं है, क्योंकि आमतौर पर हमारे नेता राजनीतिक पराजय से टूटते नहीं हैं, बल्कि वे तो उसके बाद और मजबूत होकर सामने आते हैं। अक्सर राजनीति में इतना ऊपर पहुंचने वाला कोई भी शख्स जीत और हार की हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ होता है और नेता बनते-बनते हार के सदमे को बर्दाश्त करने की कला भी सीख जाता है। हम राजनीतिक तौर-तरीके ही न बदलें बल्कि उन कारणों की जड़ें भी उखाडऩे का प्रयत्न करें जिनके कारण राजनीति दूषित होती है।
मुख्यमंत्री बनने से पहले तक वह राज्य के वित्त मंत्री थे। अंजव जिले के हवई निवासी पुल कमन मिशमी जनजाति के नेता थे। ऐसे इलाके या जनजाति का कोई व्यक्ति अगर आगे बढ़कर विधायक, मंत्री या मुख्यमंत्री बनता है, तो सबमें एक नई उम्मीद बंधती है। पुल के निधन के बाद यह उम्मीद निश्चित रूप से टूटी है। इस लिहाज से देश के लिए यह एक बहुत बड़ी क्षति है, अरुणाचल प्रदेश की तो खैर है ही।
मनोचिकित्सकों और समाजशास्त्रियों ने आत्महत्या के तथ्यों पर काफी मंथन किया है। भारत में तो किसान और युवा लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं। लेकिन पुल जैसे राजनीति में तपे व्यक्तित्व का, जमीन से उठकर आसमानी ऊंचााइयों पर पहुंचे राजनेता का आत्महत्या करना अनेक सुलगते प्रश्नों का बयां कर रहा हैं। जो व्यक्ति सत्ता सुख भी भोगा और मेहनत-मजदूरी भी की, वह इतना कैसे अवसाद में जा सकता है कि उसे अन्तिम रास्ता आत्महत्या ही लगे? आत्महत्या को कभी तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता लेकिन आत्महत्या लोग तभी करते हैं जब वह सोचते हैं कि जीवित रहना असहनीय हो चुका है या जीवन में अब उनके लिए कुछ नहीं बचा।
कई मनोवैज्ञानिक अवस्थाएं आत्महत्या के खतरों को बढ़ाती हैं, जिनमें निराशा, आर्थिक तंगी, सामाजिक बहिष्कार, जीवन में आनंद की कमी, अवसाद तथा व्यग्रता शामिल हैं। समस्याओं को हल करने की क्षमता की कमी तथा आवेग पर नियंत्रण में कमी भी इसमें भूमिका निभाते हैं। हाल के जीवन के तनाव जैसे परिवार के किसी सदस्य अथवा किसी मित्र को खोना, नौकरी खोना, अथवा सामाजिक अलगाव (जैसे अकेले रहना) इस खतरे में वृद्धि करते हैं। लेकिन राजनीतिक अवसाद के कारण आत्महत्या एक विडम्बनापूर्ण स्थिति है।
अकसर देखा गया है जब इंसान की जिंदगी पूरी तरह नीरस हो जाती है और उसे ये महसूस होने लगता है कि इस तकलीफ का कोई अन्त नहीं है और उसके अंदर इन समस्याओं का सामना करने की हिम्मत शेष नहीं रह जाती तब वह जिंदगी खत्म करने का असाधारण निर्णय लेता है। कई बार आत्महत्या करने वालों का यह निर्णय सुचिंतित होता है लेकिन कभी इंसान का यह फैसला क्षणिक आवेग में आकर लिया हुआ होता है। दर्द अचानक से सामने आ जाए तो सहना मजबूरी होती है और इंसान इससे लडऩे की हिम्मत जुटा ही लेता है लेकिन कितना मुश्किल होता है खुद उस दर्द को सामने से चुनना जो असहनीय है। जिस तरह से पुल ने आत्महत्या की विवशता को चुना है वह बेहद ही चिंताजनक बात है। आत्महत्या किसी समस्या का हल नहीं बस जिंदगी से पलायन की प्रवृति है और इंसान के लिए जरूरी है कि वह परिस्थितियों से पलायन की जगह उनका डटकर मुकाबला करे क्योंकि इसी का नाम जिंदगी है। एक सवाल जो हर वक्त जवाब मांगता है कि क्या तकलीफों का अन्त आत्महत्या है? आखिर क्यों यह प्रवृति आज इतनी बढ़ती जा रही है और कैसे इसे रोका जा सकता है।
अन्धकार के अथाह सागर में प्रकाश की तलाश करने वाली आंखें थकती जा रही है। वे देखती हैं चारों ओर खण्डित सपने, टूटती आस्थाएं, बिखरती राजनीति मर्यादाएं, ध्वस्त होती कामनाएं, बिखरते विश्वास, पलायनवादी सोच, निराशावादी दृष्टिकोण और रीतती सांसें। आदमी दौड़ते जा रहे हैं, पर उन्हें कहां जाना है, यह पता ही नहीं है। प्रगति के नाम पर कितने रफू और पैबंद लगाए जा चुके हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं है। मानव जी रहे हैं, पर मानवता सिसक रही है। महावीर, बुद्ध, गांधी और आचार्य तुलसी की इस अहिंसा भूमि में हिंसा का तांडव सोचनीय है। अहिंसा की संस्कृति को त्राण कौन देगा? कौन इस राष्ट्र की सूरत बदलने का बीड़ा उठायेगा? जब रास्ता दिखाने वाले ही भटकाव की स्थिति में खड़े है।
राष्ट्र के किसी भी हिस्से में कहीं कुछ जीवन मूल्यों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोचकर शांति नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये किसी भी स्वस्थ समाज में आत्महत्या का पनपना एक विसंगति है। ऐसी विसंगतियों एवं विषमताओं से पलायन नहीं, उनका परिष्कार करना होगा। ऐसा कहकर हम अपने दायित्व और कत्र्तव्य को विराम न दें कि राजनीति एवं सत्ता में तो आजकल यूं ही चलता है। चिनगारी को छोटी समझकर दावानल की संभावनाओं को नकार देने वाला जीवन कभी सुरक्षा नहीं पा सकता।