कश्मीरियों की फिक्र करें

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पिछले 40 दिनों से जल रही कश्मीर घाटी में हिंसा और अशांति की लपटें धीमी पडऩी शुरू हो गई थीं, लेकिन ऐन 15 अगस्त को श्रीनगर में सीआरपीएफ पर हुए आतंकी हमले के बाद से ये दोबारा जोर पकड़ रही हैं। मंगलवार को दिन में वहां सुरक्षा बलों और प्रदर्शनकारियों के टकराव में पांच लोग मारे गए और रात में सेना के काफिले पर हुए हमले में दो सैनिकों सहित तीन सुरक्षाकर्मी शहीद हुए। इन घटनाओं के बाद राज्य का माहौल और ज्यादा बिगडऩे की आशंका बढ़ गई है।
दरअसल, कश्मीर अभी हिंसा के सन 2010 वाले दौर से भी ज्यादा बड़े फंदे में फंसता दिख रहा है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि राज्य को इस अंधी गली से बाहर निकालने का कोई प्रयास भी शुरू नहीं हो पा रहा। कश्मीर में सक्रिय किसी भी राजनीतिक शक्ति की दिलचस्पी इस काम में नहीं लगती। पीडीपी हो या बीजेपी, दोनों पार्टियां राज्य में अपने-अपने समर्थकों को धार्मिक आधार पर ही संबोधित करती रही हैं। यह भी कोई बताने की बात नहीं कि इनके समर्थक एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं। रहा सवाल नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का तो अभी उन्हें यह साझा आड़ मिली हुई है कि राज्य और केंद्र की सरकारें उन्हें किसी भी स्तर पर राज्य की राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदार नहीं बना रहीं।
अपने तात्कालिक स्वार्थों से ऊपर उठने का जज्बा राज्य की कोई भी राजनीतिक पार्टी दिखाएगी, इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है। ऐसे में कश्मीर के हालात सुधारने की जिम्मेदारी ले-देकर केंद्र सरकार पर ही आती है। लेकिन संसद में हुई चर्चा और फिर सर्वदलीय बैठक में ही नहीं, लाल किले से दिए गए प्रधानमंत्री के भाषण से भी जो संदेश उभरा है, वह यह कि कश्मीर के मौजूदा हालात के लिए पाकिस्तान की तरफ से हो रही आतंकी घुसपैठ जिम्मेदार है और सरकार का इरादा पाकिस्तान के प्रति ज्यादा से ज्यादा सख्ती दिखाकर इस मसले से निपटने का है। ऐसे में यह सवाल अपनी जगह बना रह गया कि वहां हिंसा-प्रतिहिंसा के दुष्चक्र को तोडऩे के लिए घरेलू स्तर पर भी कुछ किया जाएगा या नहीं।
जमीनी तौर पर प्रधानमंत्री के सख्त तेवर का कुल नतीजा यह निकला है कि प्रशासनिक स्तर पर ज्यादा से ज्यादा ताकत के इस्तेमाल को ही कश्मीर में शांति स्थापना का अकेला रास्ता समझ लिया गया है। शायद यही वजह है कि बेंगलूरु में टूटे परिवारों को जोडऩे को लेकर हुई एक मानवाधिकार गोष्ठी में कुछ कश्मीरियों द्वारा अपनी बात रखने को देशविरोधी कृत्य मान लिया गया और ऐमनेस्टी इंटरनेशनल की भारतीय शाखा के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करा दिया गया।
हमें समझना होगा कि कश्मीर में ताकत का इस्तेमाल कुछ समय के लिए भले ही जरूरी हो, लेकिन एक सीमावर्ती राज्य को देश की मुख्यधारा में बनाए रखने का यह कोई स्थायी उपाय नहीं हो सकता। अगर घाटी का हंगामा ज्यादा लंबा खिंचता है तो भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका नुकसान उठाना पड़ेगा, लिहाजा शांति स्थापना के प्रयास जल्द से जल्द शुरू किए जाने चाहिए।