गतिरोध खत्म करने की हो पहल

courtअनूप भटनागर।
पिछले कुछ महीनों से देश के प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी के विषय पर सरकार की चुप्पी को लेकर काफी व्यथित हैं। प्रधान न्यायाधीश की व्यथा का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्होंने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण में न्यायिक सुधारों के बारे में कोई जिक्र नहीं होने पर निराशा व्यक्त करने में समय नहीं गंवाया। प्रधान न्यायाधीश का कहना है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये वह 78 नामों की सिफारिश कर चुके हैं लेकिन सरकार की ओर से इस पर कोई ठोस कार्यवाही होती नजर नहीं आ रही है।
दूसरी ओर, कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद का कहना है कि पारदर्शिता के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित प्रक्रिया से जुड़े विभिन्न पहलुओं को प्रधान न्यायाधीश की दूरदर्शिता की मदद से शीघ्र सुलझा लिया जायेगा। एक अनुमान के अनुसार इस समय देश के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 478 पद रिक्त हैं जबकि इनमें करीब 40 लाख मुकदमे लंबित हैं। इसी तरह, उच्चतम न्यायालय में भी न्यायाधीशों के तीन पद रिक्त हैं।
न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये चयन और तबादले की करीब 24 साल पुरानी व्यवस्था में बदलाव करने संबंधी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन संबंधी कानून तथा इससे संबंधित संविधान संशोधन कानून उच्चतम न्यायालय में निरस्त होने के बाद से न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया में एक तरह से गतिरोध उत्पन्न हो गया है। हालांकि सरकार ने बीच-बीच में कुछ अस्थाई न्यायाधीशों का कार्यकाल बढ़ाने के साथ ही कुछ उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति को मंजूरी दी भी है।
संविधान पीठ ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया अधिक पारदर्शी बनाने के इरादे से सरकार को इससे संबंधित प्रक्रिया ज्ञापन तैयार करने का निर्देश दिया था जो मौजूदा प्रक्रिया में पूरक का काम करेगा। न्यायालय ने सरकार को प्रधान न्यायाधीश की सलाह से न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित वर्तमान प्रक्रिया ज्ञापन को अंतिम रूप देने का निर्देश दिया था। बताते हैं कि सरकार द्वारा भेजे गये ज्ञापन से न्यायाधीशों की समिति सहमत नहीं थी और प्रधान न्यायाघीश ने उसे अस्वीकार कर दिया। यहीं से सरकार और न्यायपालिका के बीच उत्पन्न गतिरोध और अधिक बढ़ गया।
इस गतिरोध को दूर करने के प्रयासों के बीच इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश धनंजय चन्द्रचूड़ के उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त होने के बाद उनके द्वारा उच्च न्यायालय में नियुक्तियों के लिये प्रधान न्यायाधीश के पास गये भेजे गये कथित नामों के सार्वजनिक होने से एक नया विवाद छिड़ गया।
कालेजियम व्यवस्था को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायपालिका में तेजी से पनप रहे अंकल सिन्ड्रोम पर भी अंकुश लगाया जाये। पिछले करीब 24 साल से लागू कालेजियम व्यवस्था के दौरान न्यायाधीशों की नियुक्ति में कथित भाई-भतीजावाद के बोलबाले और पारदर्शिता की कमी को लेकर उच्चतम न्यायालय के ही कई पूर्व न्यायाधीश सवाल उठा चुके हैं। उच्चतम न्यायालय के ही न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने तो अपने एक फैसले में न्यायालय में फैले भाई-भतीजावाद का जिक्र करते हुए कई तीखी टिप्पणियां की थीं। प्रधान न्यायाधीश का मत है कि न्याय प्रदान करने की गति ब्रिटिश काल में मुकदमों के निपटारे में लगने वाले समय से भी कहीं अधिक धीमी हो गयी है।
इस बीच, न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता लाने और इसमें भाई-भतीजावाद की संभावना कम करने तथा पूर्व न्यायाधीशों, विधिवेत्ताओं, विधि अधिकारियों और वरिष्ठ अधिवक्ताओं के जूनियर अधिवक्ताओं से इतर समाज के दूसरे वर्ग के योग्य वकीलों को भी उच्चतर न्यायपालिका में स्थान दिलाने के लिये वकीलों का ही एक अन्य संगठन भी सक्रिय हो गया है।
नेशनल लायर्स कैंपेन नामक इस संगठन की पिछले सप्ताह मुंबई में बैठक हुई थी जिसमें वर्तमान कालेजियम प्रणाली की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए वकीलों से कहा गया कि यदि वे न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति की अहर्तायें पूरी करते हैं तो उन्हें अधिक से अधिक संख्या में इसके लिये आवेदन करना चाहिए।
बेहतर होगा कि सरकार और प्रधान न्यायाधीश तथा उच्चतम न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश यथाशीघ्र न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया के ज्ञापन को अंतिम रूप देकर पिछले करीब दस महीने से चल रहे इस गतिरोध को समाप्त करें ताकि न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को लेकर जनता में फैल रहीं अटकलों पर विराम लग सके।