शाहखर्ची जलाती है लाखों चूल्हे

marriageअभिषेक कुमार। बहुत से भारतीय दुनिया के अरबपतियों की सूची में शामिल हैं और यह तर्क दिया जाता है कि भारत के अमीरों को गरीबों के लिए और ज्यादा करना चाहिए। उन्हें अपनी संपत्ति में से कुछ दान करना चाहिए और ऐसे आयोजन करने चाहिए, जिनसे रोजगार पैदा हों। अमीरों और राजसी परिवारों में आमतौर पर होने वाली शादियों के ज्यादा चर्चे उनमें होने वाले खर्च की वजह से होते हैं, पर उनका एक पहलू यह है कि वैभव दर्शाने वाला यह आयोजन कई तरह के रोजगार और कई तबकों की आर्थिक मदद का मौका पैदा करता है। बात सिर्फ अमीरों की नहीं है, देश के विशाल मध्य वर्ग में भी काफी बड़ा प्रतिशत ऐसे लोगों का है जो अपने बच्चों की शादियों में दिल के सारे अरमान निकाल लेना चाहते हैं और अपनी हैसियत के मुताबिक खर्च करते हैं। इनका एक संबंध विवाह आयोजन के जरिये बाजार में पूंजी पहुंचने और उस कामगार तबके की रोजी-रोटी से भी जुड़ता है जो इधर ढाई लाख रुपये के खर्च की पाबंदी के कारण बुरी तरह कसमसा रहा है।
सामाजिक परंपरा देखें तो भारत में विवाह दो आत्माओं का पवित्र मिलन है। विवाह से जुड़ी रीतियां और परंपराएं बहुत कुछ करने और दिखाने का मौका देते हैं। यही वजह है कि शादियों से जुड़ी खरीद-फरोख्त देश में करीब डेढ़-दो लाख करोड़ रुपये का बड़ा कारोबार बन चुकी है। इस बिजनेस को देश-दुनिया में ‘बिग फैट इंडियन वेडिंगÓ के मुहावरे के साथ पेश किया जाता है, जिसमें शानदार गहनों की खरीद, आकर्षक तोहफे, थीम वेडिंग के आलीशान मंडप, लजीज व्यंजन, यादगार हनीमून पैकेज, फिल्मी सितारों का नाच-गाना तक शामिल होता है। सिर्फ दूल्हा-दुल्हन ही नहीं, बल्कि पूरा परिवार, नाते-रिश्तेदार और यार-दोस्त भी इस मौके को जश्न के एक अवसर के रूप में देखते हैं। यह बात भी ध्यान देेने योग्य है कि आधुनिकता के बावजूद नई पीढ़ी विवाह में पारंपरिक रीति-रिवाजों की मुरीद बन जाती है, जिससे खर्च बढ़ जाता है।
एक बड़ा बदलाव हाल के दशकों में यह हुआ है कि अब शहरी मध्यवर्गीय परिवारों में भी शादी के वक्त किराये पर हॉल लेने, टेंट के सामान की व्यवस्था करने और हलवाई ढूंढ़कर पार्टी की व्यवस्था नहीं की जाती। ये सारी सहूलियतें एक पैकेज के रूप में एक साथ देने वाले होटल या बैंक्विट हॉल को बुक किया जाता है। सजे-सजाए बैंक्विट हॉल में भोजन और संगीत आदि का ही खर्च पांच-सात लाख रुपये हो जाता है। कुछ साल पहले आई फिल्म ‘बैंड, बाजा, बारातÓ का एक संदेश यह भी था कि अगर मेहनत के साथ वेडिंग प्लानर का काम शुरू किया जाए तो व्यक्ति करोड़ों रुपये कमा सकता है।
इन सारी बातों को अगर ढाई लाख रुपये की पाबंदी के साथ रखकर देखा जाए तो लगता है कि समाज के कई तबकों से उठी यह शिकायत जायज है कि ऐसा करके सरकार ने उनके साथ अन्याय किया है। एक तो नोटबंदी की मार, ऊपर से ढाई लाख रुपये खर्च की पाबंदी ने सिर्फ उन परिवारों की खुशी पर ग्रहण नहीं लगाया है जो इसकी हैसियत रखते हैं और शादी में ज्यादा खर्च करना चाहते हैं, बल्कि इससे एक बड़ा झटका उस पूरे व्यवसाय को लगा है जिसकी नीव शादियों के भव्य आयोजन पर टिकी है।
ध्यान रखना होगा कि अब हमारे देश में असंख्य परिवारों की रोजी-रोटी दूसरों की शादियों के भरोसे चलती है। ये परिवार तब थोड़े मजे में होते हैं, जब शादी वाले परिवार बजट बढ़ाकर अपने मन की साध पूरी कर रहे होते हैं। नोटबंदी और पाबंदी का असर इधर यह पड़ा है कि शादियों में बैंड बजाने वाले, सजी-सजाई घोड़ी लाने वाले फाके करने को मजबूर हैं। न कोई कमाई हो रही है और न कोई इनाम-बख्शीश की बात कर रहा है। ज्यादातर शहरों से ऐसी खबरें आई हैं कि बैंड-बाजे वालों की बुकिंग में पचास से साठ फीसदी तक गिरावट आई है। फूलों की सजावट करने वाले का 70 फीसदी धंधा तक चौपट हो गया है। मंडप और गाडिय़ां सजाने वाले भी मुश्किल में हैं, क्योंकि लोग इस खर्च में भी कटौती कर रहे हैं। मुमकिन है कि कैश की दिक्कत चंद रोज में खत्म हो जाए, लेकिन ऐसे कामधंधे की कमर टूटने का असर लंबे वक्त तक रहता है। मजदूरी नहीं मिलने से कामगार अपने मूल स्थानों को लौट जाते हैं, बाद में उन्हें बुलाना काफी मुश्किल होता है।
निश्चय ही, शादियों में बूते से बाहर जाकर की जाने वाली शाहखर्ची और पैसे के विद्रूप दिखावे की परंपरा ने हमारे समाज में एक गलत मिसाल रखी थी, लेकिन अगर कोई पाबंदी शादियों से जुड़े रोजी-रोजगार की ही कमर तोड़ देती है तो उसे सही ठहराना भी गलत होगा। शादी के नाम पर नाजायज फायदे उठाने वालों से तो सरकार सख्ती से निपटे, लेकिन जिन लोगों की रोजी-रोटी पर ढाई लाख की पाबंदी असर डाल रही है, उनकी पीड़ा को भी उसे समझना होगा। अन्यथा सिर्फ इस पाबंदी के कारण बेरोजगार हुए लोगों की फौज से जुड़े हादसे देश और समाज के लिए नया संकट खड़ा कर सकते हैं।