प्रामाणिकता बनी रहे संसद की

hn dixitहृदयनारायण दीक्षित। संसद भारत के मन का दर्पण है. दर्पण अपनी ओर से साज सज्जा नहीं करते. हम जैसे हैं, दर्पण हमारे चेहरे को वैसा ही दिखाता है. सबके मन व्यक्तिगत होते हैं. पूर्वजों और मनस्विदों ने मन को चंचल भी बताया है. भारत का मन प्राचीनकाल से जनतंत्री है. भिन्न विचार का आदर प्राचीन परंपरा है. संविधान निर्माताओं ने इसीलिए संसदीय प्रणाली अपनाई. संसदीय व्यवस्था में जनता ही बहुमत को सत्ता संचालन का अधिकार देती है और जनता ही विपक्ष को आलोचना का अधिकार देती है. कांग्रेस लम्बे समय तक देश की सत्ता में रही है. लेकिन 2014 में वह बुरी तरह पराजित हो गई. जनादेश ने उसे सत्ता पक्ष की आलोचना का कर्त्तव्य सौंपा.
आलोचना का अर्थ हंगामा नहीं होता. आलोचना के साथ विपक्ष को वैकल्पिक विचार भी देने होते हैं. ब्रिटिश संसदीय परंपरा में विपक्ष को गवर्नमेंट इन वेटिंग कहा जाता है. इसलिए विपक्ष गैर जिम्मेदार नहीं हो सकता है, लेकिन कांग्रेस सहित संपूर्ण विपक्ष ने आलोचना और सुझाव के अपने अधिकार को हंगामा मान लिया है. संविधान ने सत्ता को जवाबदेह बनाया और विपक्ष को निगरानीकर्ता. डॉ.अम्बेडकर ने संविधान सभा (4.11.1948) में सरकारी जिम्मेदारी की नियमित छानबीन की बात कही, संसद के सदस्य प्रश्न, प्रस्ताव, अविास और अभिभाषणों पर वाद-विवाद द्वारा और मतदाता चुनाव के समय जवाबदेही तय करते हैं.
भारत जैसे देश में कार्यपालक वर्ग की दैनिक छानबीन बहुत ही आवश्यक है. लेकिन विपक्ष ने जिम्मेदारी नहीं निभाई. सदनों की बाधित कार्यवाही राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कुछ बरस पहले लखनऊ में बाधा डालने वालों को बाकी सदन का अधिकार छीनने वाला बताया था और कहा था कि ऐसा कृत्य संसदीय जनतंत्र के प्रति अविास भी है. उन्होंने चाणक्य का उद्धरण दिया, सभा के सदस्यों की निन्दा व सदस्यों के लिए आशोभनीय और अविसनीय वक्तव्य नहीं देने चाहिए.
राष्ट्रपति ने इस दफा भी अपनी व्यथा प्रकट की है. भारत के वैदिक काल में सभा थी, बुद्धकाल में शिष्ट बहसें थीं, कौटिल्य और उसके बाद भी वाद-विवाद संवाद की सभ्यता-संस्कृति थी. स्वाधीनता के बाद की हमारी संसद भी तेजस्वी थी, बहसें थीं, तीखे तर्क और प्रतितर्क थे. पक्ष-विपक्ष सदन की कार्यवाही के प्रति निष्ठावान थे. फिर शालीन परम्परा को काल बाह्य और शोर-शराबे को विरोध का सही तरीका मानने का फैशन आया. सदनों की गरिमा घटी. अब विरोध में हंगामा करने का चलन है.
विपक्ष काल का आह्वान सुनें. जनगणमन संसदीय जनतंत्र से निराश है. संसद और विधानमण्डलों का मूल्यवान समय नष्ट हो रहा है. संसद के साथ राज्य विधानमण्डलों की स्थिति भी खराब है. सत्ता व विपक्ष में संवाद का अभाव है. सार्थक वाद-विवाद की गुंजाइश ही नहीं है.
यूनानी इतिहासवेत्ता ग्रोट ने ठीक कहा था कि स्वतंत्र और शान्तिप्रिय सत्ता संचालन के लिए वैधानिक नैतिकता जरूरी है वरना दुराग्रही अल्पमत कार्यसंचालन को दुरूह बना सकता है. लेकिन यहां ‘वैधानिक नैतिकता’ नहीं है और अल्पमत विपक्ष में कार्यवाही को शून्य बनाया है. संसद सहित सभी संस्थाओं की प्रामाणिकता बचाए रखने की आवश्यकता है. इसी में संसदीय जनतंत्र का भविष्य है.