यूपी में चुनावी चौसर के बीच चेहरों का चक्कर

collage upलखनऊ। यूपी में चुनावी चौसर बिछ चुकी है और सभी सियासी दलों ने अपने—अपने प्यादे आगे कर चाल चलनी भी शुरू कर दी है। शह और मात के इस खेल में किसी राजनीतिक दल की ताकत उसका वोट बैंक है तो किसी को अपने संगठन पर ही नाज है। जबकि कुछ पार्टियां तो महज चेहरे पर ही चुनावी जंग जीत लेने का दावा कर रही हैं। यूपी के चुनाव में चेहरे की ताकत और कमजोरी बयां करती लोकसभा चुनाव में चेहरे के जरिए भाग्योदय करने वाली भाजपा यूपी के विधानसभा चुनाव में किसी भी चेहरे को सामने लाने से कतरा रही है। दिल्ली, बिहार के बाद यूपी में भी वह मोदी मंतर के सहारे ही मतदाताओं को रिझाना चाहती है। कहने के लिए तो भाजपा के पास बहुत सारे चेहरे हैं लेकिन वह उनमें से किसी भी एक को प्रोजेक्ट नहीं कर पा रही है। इस बीच कई नेता कभी खुद तो कभी बैनर पोस्टर के जरिए खुद को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश कर रहे हैं। हालांकि पार्टी नेताओं का यह भी कहना है कि बीजेपी को किसी चेहरे की जरूरत नहीं है क्योंकि यहां सभी सीएम हैंं। दरअसल भाजपा इस कड़वी सच्चाई से भी वाकिफ है कि जब—जब उसने अपने यूपी चुनाव में चेहरे को आगे किया, उसे मुंह की खानी पड़ी है। कल्याण सिंह को पार्टी ने चेहरा बनाया तो 1996 में सीटों की संख्या 221 से 177 और 2007 में 88 से 51 पहुंच गई। इसी तरह राजनाथ सिंह को जब 2002 में चेहरा बनाया तो सीटों की संख्या 174 से 88 पहुंच गई।
पांच साल के कार्यकाल के जरिए अखिलेश यादव ने खुद को समाजवाद के नए चेहरे के रूप प्रस्तुत किया है। दो भागों में बंटती सपा का खेमा कोई भी हो इस बात से इंकार नहीं करता कि अखिलेश ही चाहे—अनचाहे पार्टी की अंतिम आस हैं। समाजवादी महाभारत के बीच गांव से लेकर शहर की गलियों तक सिर्फ और सिर्फ एक अखिलेश यादव के सहारे ही समाजवादी पार्टी के सुनहरे भविष्य का ताना—बाना बुना जा रहा है। तकरार और मतभेदों के बीच न सिर्फ शिवपाल यादव बल्कि सपा सुप्रीमो भी यही इसी बात पर मुहर लगाते नजर आए कि चुनावी चेहरा सिर्फ और सिर्फ अखिलेश यादव ही हैं। गौरतलब है कि सपा के भीतर तब सनसनी फैल गई थी, जब मुलायम सिंह ने चुनाव बाद मुख्यमंत्री का तय किए जाने का ऐलान कर दिया था।
जातिगत संतुलन को साधने और अखिलेश के विकास को टक्कर देने के लिए कांग्रेस पार्टी ने जिस चेहरे के जरिए सबसे पहली चुनावी चाल चली थी, अब वह बेअसर होती दिख रही है। दिल्ली में बतौर मुख्यमंत्री 15 साल तक एकक्षत्र राज करने वाली की उम्मीदवारी पर शुरू से ही सवाल उठने लगे थे। कभी उनकी बीमारी को लेकर तो कभी उनके कार्यकाल में हुए घोटाले को लेकर विपक्षी दलों ने घेरना शुरू कर दिया था। चेहरे के जरिए यूपी में चौथे नंबर की पार्टी को नंबर एक पर लाने की कांग्रेस की कोशिश फिलहाल असफल होती नजर आ रही है और वह गठबंधन के जरिए चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत लगा रही है।
बगैर चुनाव लड़े ही मायावती बहुजन समाज पार्टी का चेहरा हैं। चाहे—अनचाहे यूपी की राजनीति इसी चेहरे के इर्द—गिर्द घूमती नजर आती है। क्या सपा क्या भाजपा सभी अपनी सीधी टक्टर मायवती से बताते हैं। बसपा के भीतर मायावती एक ऐसा मजबूत चेहरा हैं जिनकी मौजूदगी में मंच पर कोई भी नजर नहीं आता। पार्टी से संबंधित सभी छोटे—बड़े आदेश भी उन्हीं के जरिए ही जारी किए जाते हैं। कहना गलत न होगा कि बसपा के भीतर सत्ता हासिल करने की एक मात्र चाभी मायावती ही हैं। जिन्हे न तो पाला बदलने वालों को चिंता है और न ही विपक्षी दलों के सवालों दिक्कत है। आत्मविश्वास से लबरेज माया को यकीन है कि न सिर्फ परंपरागत दलित वोटबैंक बल्कि मुस्लिम मतदाता भी इस बार विश्वास जताते हुए उन्हें सत्ता के सिंहासन पर पहुंचाएंगे।