नये सिरे से परिभाषित करें नेतृत्व

trump1हरीश खरे। बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति का पद खाली कर चुके हैं। वह पद जो दुनिया में सबसे ताकतवर और सबसे प्रभावशाली माना जाता है। उनके स्थान पर अमेरिकियों ने जिस व्यक्ति को चुना है, उन्होंने कभी किसी निर्वाचित पद को कभी नहीं संभाला और न ही जनसेवा का उनका कोई रिकार्ड है। आधुनिक जगत का विज्ञापन तंत्र और सोशल मीडिया के लोग यह सुनिश्चित करते हैं कि विजेता तो सर्वगुण सम्पन्न है। डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिकी लोकतंत्र के तमाम गुणों से सुशोभित किया जा रहा है और उन्हें नवीनता और समावेशिता की क्षमताओं से युक्त बताया जा रहा है। इसके विपरीत डेमोक्रेट्स की पराजय को ट्रम्प भक्तों और स्वयं उदारवादियों द्वारा ओबामा के नेतृत्व की हार के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन एक निष्पक्ष सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि क्या हमें अपनी आकलन क्षमता को इतना नीचे गिराना जरूरी है कि हम इसे एक नेता की हार सिर्फ इसलिए मान लें कि ट्रम्प ज्यों-त्यों करके व्हाइट हाउस तक का रास्ता नापने में कामयाब हो गए। क्या लोकतंत्रों का पतन कुशल खिलाडिय़ों के हाथों सुनिश्चित है।
हर राष्ट्र का अपना एक राजनीतिक समुदाय होता है, उसके अपना इतिहास होता है, एक भौगोलिक इकाई होती है और उसका अपना सत्ता, सम्पत्ति और विशेषाधिकारों का वितरण होता है, उसके अपने आदर्श और सिद्धांत होते हैं। हर राजनीतिक समुदाय उस समय टकराव और उथलपुथल महसूस करता है जब सत्ता की वास्तविकता घोषित सिद्धांतों से मेल नहीं खाती। अमेरिकियों ने खुद को एक निराले राजनीतिक समुदाय के रूप में देखा है जो समता के उच्च सिद्धांतों, खुलेपन और उद्यम के स्तंभों पर विराजमान है। ऐतिहासिक रूप से अमेरिकियों को आव्रजकों की कच्ची ताकत और उद्यमशीलता से आर्थिक एवं सांस्कृतिक लाभ मिलता रहा है। विश्व युद्ध के बाद के काल में अमेरिकी राजनीतिक समुदाय ने खुद को नागरिक अधिकारों के प्रति संघर्षशील और समानता के लिए प्रयासरत कौम के तौर पर ढाला है। 9/11 के बाद भी अमेरिकियों ने खुद को विश्व भर में लोकतंत्र के बड़े पैरोकार के रूप में पेश किया।
जब ओबामा ने 2008 में राष्ट्रपति पद के लिए विजय हासिल की तो इसे अमेरिकी आदर्शों की जीत के तौर पर देखा गया। अमेरिकियों ने उस समय आखिरकार यह एहसास किया था कि लोकतांत्रिक इतिहास के अपने तर्कों से सहमत हो रहे हैं। एक अश्वेत व्हाइट हाउस में रहने आया था। यह वह अनूठा क्षण था जब अमेरिकियों का प्रयोग सफल हो रहा था। और सुकून की बात यह थी कि ओबामा ने यह जीत नस्लीय शत्रुता भड़का कर हासिल नहीं की थी जैसा कि मैल्कम दशम के मामले में हुआ था बल्कि अमेरिकियों को उनके सिद्धांतों को जगाकर और बौद्धिक एवं अमेरिका की समस्या के सुयोग्य जवाबों के बल पर हासिल की थी। बाहरी दुनिया को भी यह भरोसा दिलाया गया था कि उदारवादी और समझदार नेतृत्व अमेरिका को मिलने जा रहा है। लेकिन विडम्बना यह है कि ओबामा को ऐसे निहायत प्रोफेशनल और उदार व्यक्ति के तौर पर देखा गया जो प्रभावी नेतृत्व न दे सके।
क्या वह खराब नेता साबित हुए? व्हाइट हाउस में ओबामा के आठ साल काफी हद तक मिश्रित वरदान साबित हुए। सच तो यह है कि मिश्रित वरदान अब प्राय: आधुनिक लोकतंत्र के प्रत्येक नेता के लिए जनादेश है। खासतौर से अमेरिका के राजनीतिक तंत्र में जहां कार्यपालिका को सत्ता और अधिकार के मामले में विधायिका का दामन थामना पड़ता है। प्रभावी नेतृत्व राष्ट्रपति को आसानी से या खुद-ब-खुद हासिल नहीं हो जाता और सत्ता सम्भालने के बाद से ही इस अश्वेत राष्ट्रपति को इससे वंचित रखने का प्रयास किया गया। बेशक यह एक आम राजनीति थी। लेकिन दुनियाभर में लोकतंत्र के अध्येताओं को एक मूल सवाल का जवाब तलाशना है कि क्या हमें अपने नेताओं के गुणों को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है। क्या सिर्फ इसलिए कि एक रियल एस्टेट सम्राट गोरे अमेरिकियों के गुस्से को भुनाने में कामयाब हो गया तो क्या यह मान लिया जाए कि नेतृत्व की परिभाषा हो गई। क्यों नेताओं को अनिवार्य रूप से क्रूर और चांडाल चौकड़ी वाला होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए कि वह हमेशा भौंडी और गिरी हुई मानसिकता को आकर्षक लगे। यूरोप में धुर राष्ट्रवादियों का बोलबाला है और ऐसा लगता है कि ऐसे लोगों का ही वक्त है। एंजेला मार्केल की सहृदय क्षमता को छोटा करके देखा जा रहा है और कट्टरपंथियों को आदर दिया जा रहा है। अफसोस की बात यह है कि जनमत बनाने वाला उद्योग ट्रम्प की जीत और यूरोप में अति दक्षिणपंथियों के उदय को यह कहकर सही ठहराने पर तुला है कि यह अभिजाता और जनभावनाओं की अनदेखी करने वालों के खिलाफ आक्रोश है। तथाकथित अभिजातों को उनके पाप कर्मों के लिए सही स्थान दिखा दिया गया है।
अमेरिकी इतिहासकार आर्थर एम. श्लेससिंगर जूनियर के मुताबिक इतिहास एक चक्र से गुजर रहा है जब उदारता, आदर्शवाद और सुधारवाद परास्त होकर भटकाव और सनक के सामने घुटने टेक देता है। जिस घटियापन और विद्रूपता से डोनाल्ड ट्रम्प जैसे सेल्समैन को चुना, वह एक दिन गुजर जाएगा। परम्परागत अमेरिकियों के उदारवाद और आव्रजकों की ताकत एक बार फिर से ट्रम्प को परास्त कर देगी और अमेरिकी आत्मा को ज्यादा क्षति नहीं होगी।
हालांकि तर्क और नारे एक खास मतदाता वर्ग को एक साथ खड़ा करने के लिए गढ़े जाते हैं लेकिन नेतृत्व को एक सात्विक खोज का दायित्व निभाना होता है। राजनीतिक नेतृत्व राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पर एक दायित्व डालता है। यह बोझा है राष्ट्रीय हितों का, राष्ट्रीय गौरव का। जब कोई नेतृत्व इस निराले दायित्व पर खरा नहीं उतर पाता तो उस देश के नागरिकों को और पूरी दुनिया को उसकी कीमत चुकानी पड़ती है।

हम हमेशा गैर ऐतिहासिक दौर में जीना चाहते हैं। हालांकि ओबामा की खामियां गिनाना एक फैशन-सा हो गया है पर इस बात पर विचार करना चाहिए कि अगर वह 2008 में रिपब्लिकन्स को परास्त न कर पाते तो अमेरिका और पूरी दुनिया की नियति क्या होती। बेशक अमेरिका और पूरी दुनिया एक टकराव के बाद दूसरे टकराव में उलझी होती। हमें शुक्रगुजार होना चाहिए ओबामा का कि उन्होंने जॉर्ज बुश और डिक चैनी जैसे नेताओं का बोरिया बिस्तर गोल कर दिया था। घरेलू मोर्चे पर ओबामा के काल में अमेरिकी समाज शांत और सद्भावपूर्ण हुआ, भले ही अमेरिका का एक तबका क्षुब्ध और जानवर हो गया हो। ट्रम्प की सफलता से ओबामा की उपलब्धियां धूसरित नहीं हो जातीं। ट्रम्प की जीत को इतिहास की अनिवार्यता मानना भारी भूल होगी। सदियों पहले अरस्तू ने हमारे आज के द्वंद्व की ओर इशारा किया था: ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को ढूंढ पाना बहुत दुष्कर होता है जो सिर्फ अपने लोगों के हितों के लिए काम करना जानते हों। निस्संदेह लोकतंत्र ऐसे सम्मानित शासकों को पहचानने और पदारूढ़ करने का सबसे अच्छा और निष्पक्ष तंत्र है। और इसी तर्क के आधार पर ट्रम्प की जीत को दुनियाभर में लोकतंत्र का मानक गिराने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।