अर्थव्यवस्था : आर्थिक संकट की अनदेखी

indian economy1प्रो.अरुण कुमार। आम बजट से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था तमाम झटकों को झेल रही थी. लेकिन इनसे पहले अर्थव्यवस्था पटरी पर थी, करीब 7 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही थी. एकाएक संकट में फंस गई. बेरोजगारी तेजी से बढऩे लगी. निवेश गिरने लगा. बैंकिंग प्रणाली मुश्किलों से घिर गई. अर्थव्यवस्था अन्य तमाम अड़चनों से भी घिर गई. बजट अवसर था, जब अर्थव्यवस्था में मंदी का सबब बने तमाम कारकों को दुरुस्त किया जा सकता था. गौरतलब है कि कोई अर्थव्यवस्था मंदी से घिर जाती है, तो उसके लिए अपने स्तर पर इससे उबरना संभव नहीं हो पाता.
उम्मीद थी कि ऐसे नाजुक समय में अर्थव्यवस्था को उबारने के बजट में उपाय होंगे. खास तौर पर इसके अंसगठित क्षेत्रों पर मंदी के हालात के चलते पड़ रहे दुष्प्रभावों से निजात दिलाने की कोशिश होंगी. लेकिन नहीं. केंद्रीय बजट 2017-18 ने निराश किया. इसमें परिव्यवय 20.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 21.47 लाख करोड़ रुपये करने का प्रस्ताव है यानी परिव्यय में 1.33 लाख करोड़ रुपये या कहें कि लगभग 6.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी की जाएगी. लेकिन अर्थव्यवस्था को यह खुराक मंदी के हालात से शायद ही उबार सके. 2017-18 में जीडीपी में 11.75 प्रतिशत की वृद्धि दर की बात कही गई है. अब इस आशावाद पर क्या कहा जाए?
खासकर तब जबकि आर्थिक सर्वेक्षण में वृद्धि दर गिरने की बात कही गई थी. अगर समूचे वर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में 2 प्रतिशत की गिरावट यानी यह 7 से गिरकर 5 प्रतिशत हो जाती है, तो इसका मतलब यही तो होगा कि नवम्बर, 2016 के बाद की अवधि में अर्थव्यवस्था में शून्य प्रतिशत के आसपास की वृद्धि हो रही है. इसे ध्यान में रखते हुए ही आगामी वर्ष के लिए कोई पूर्वानुमान लगाया जाना चाहिए था न कि इस आधार पर नवम्बर, 2016 के पहले के हालात क्या थे. वो हालात अब नहीं हैं. और यह भी नहीं माना जा सकता है कि वे एकाएक फिर से नमूदार हो जाएंगे. हकीकत तो यह है कि नवम्बर, 2016 के बाद से अनेक प्रतिकूलताएं उभर आई हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए. बजट में अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए कोई प्रयास नहीं दिख रहा है. अगर बेहतरी का प्रयास होता तो ही नवम्बर, 2016 से पहले के हालात वृद्धि दर के आकलन के लिए वाजिब कहे जा सकते थे, लेकिन अभी के हालात में यह उचित नहीं.
अगर कोई पूर्वानुमान लगाया जाना है, तो नवम्बर, 2016 के बाद की स्थितियों के आधार पर लगाया जाना चाहिए यानी शून्य या नकारात्मक वृद्धि दर के आधार पर. सरकार के मुताबिक, दामों में वृद्धि चार से पांच प्रतिशत के बीच रह सकती है, तो सामान्य जीडीपी हद से हद करीब चार प्रतिशत बढ़ेगी न कि 11.75 प्रतिशत जैसा कि बजट में अंदाजा लगाया गया है. कहना यह भी कि बजट में सकल कर संग्रह में 2.08 लाख करोड़ रुपये की जिस वृद्धि की बात कही गई है, उसे हासिल नहीं किया जा सकेगा. दरअसल, नवम्बर, 2016 के बाद अर्थव्यवस्था में मंदी जैसे हालात बने हैं, उनसे नहीं लगता कि इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा. तो क्या यह आशावाद उचित है? उस पर भारत के मुख्य सांख्यिकीविद् तथा मुख्य अर्थशास्त्री कह चुके हैं कि जीडीपी पर विमुद्रीकरण के असर का अभी तक आकलन नहीं किया गया है.
आर्थिक सर्वेक्षण और बजट भाषण, दोनों में कहा गया है कि विमुद्रीकरण से आर्थिक गतिविधि प्रभावित हुई हैं, लेकिन यह जिक्र नहीं किया गया कि इसका असर कितना होगा? तो फिर ऐसे में बजट कैसे बनाया जा सकता है? कहना यह कि इसके आकलन गलत साबित हो सकते हैं. उद्योग तथा व्यापार संबंधी हालिया सर्वेक्षणों से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में खासा संकुचन हुआ है. देश भर के जिन बाजारों में इस लेखक का हाल के दिनों में जाना हुआ है, वहां सामान्य स्थिति की तुलना में कारोबार में 25 से 30 प्रतिशत की गिरावट का पता चला. अर्थव्यवस्था को तेज झटका लगा है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए लेकिन बजट इसमें नाकाम रहा है. संभवत: सरकार इस स्थिति से वाकिफ है, लेकिन इसे स्वीकार नहीं करना चाहती. इसलिए समुचित आंकड़ों तथा सही आकलन के अभाव में कहा जा सकता है कि बजट में जितना कुछ कहा गया है, उससे ज्यादा कहीं कुछ लुका-छिपा रह गया है. संक्षेप में कहें तो यह बजट मकडज़ाल में फंसा है. मानकर चल रहा है कि अर्थव्यवस्था सामान्य स्थिति की ओर लौट रही है, इसलिए इसने अर्थव्यवस्था के समक्ष संकट की अनदेखी कर दी है.
बजट और आर्थिक सर्वेक्षणों, दोनों ने रोजकोषीय मजबूती को लेकर सतर्क रवैया अपनाया है. उनमें रोजकोषीय घाटे को जीडीपी के करीब तीन प्रतिशत के स्तर पर रखने की बात कही गई है. ऐसे में जीडीपी में वृद्धि दर के त्रुटिपूर्ण आकलन के चलते राजस्व संबंधी अनुमानों के गलत साबित होने की संभावनाओं की बाबत क्या कहना चाहेंगे? अगर घाटे के इसी स्तर को बनाए रखने की मंशा रही तो यकीनन परिव्यय में कमी लानी होगी.
बजट में जितना जाहिर हुआ है, उससे कहीं ज्यादा छिपाया गया है. इसमें सामान्य कारोबारी हालात को आधार बनाया गया जो नवम्बर, 2016 के बाद तो कतई सामान्य नहीं थे. यह एक घातक गलती है. इसके चलते 2016-17 के राजस्व ही नहीं बल्कि आगामी वर्ष 2017-18 के लिए भी गलत आकलन किए गए हैं. नतीजतन, न तो योजनागत परिव्यय और न ही वित्तीय घाटे संबंधी लक्ष्य हासिल हो सकेंगे. फलस्वरूप, अर्थव्यवस्था में उत्पादन, रोजगार, निवेश को लेकर जो संकट पसरा हुआ है, बजट उसके प्रति गंभीर नहीं दिखा. निजी क्षेत्र ज्यादा निवेश नहीं करेगा क्योंकि वह अपनी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहा और उसके लाभ में कमी आई है. सरकार निवेश बढ़ाने को तत्पर नहीं दिख रही. कह सकते हैं कि रोम जल रहा था, नीरो बंसी बजा रहा था.