भावना की चौखट से निकल कामना का दरवाजा खटखटाता प्रेम

valentines dayविमल शंकर झा।
वक्त बदला, हालात बदले और उल्फत ए जज्बात बदल गए
जाने इस दौरंा ऐसा क्या हुआ कि रुह के एहसास बदल गए
जबसे इस कायनात का वजूद है, रफ्ता रफ्ता मुहब्बत का अहसास भी इसके साथ ही हो चला था । आदम और हवा कह लें, या फिर इलेक्ट्रान, प्रोट्रान और न्यूट्रान से अणु और परमाणु के मिलन की दास्तां । धर्म और विज्ञान दोनों ही दृष्टि से सृष्टि की उत्पत्ति के नेपथ्य में प्रेम की यह शाश्वत अवधारणा रही है। दो दिलों के बीच पनपने वाला यह मीठा दर्द हजारों हजार साल से अपनी अहमियत और रुमानियत का एहसास कराता रहा है। कभी यह आदिम युग मे अंधेरी पाषाण कंदराओं में निर्वस्त्र हो थिरका तो कभी सभ्यता की घाटियों में इठलाया तो कभी गुलामी के साये मे भी अपनी गुलाबियत से पाकीजगी का सबूत देता रहा ।दर्द ए दिल को गुदगुदाने वाला प्रेम का यह रुहानी और बेजुबानी एहसास लोगों के लिए एक यादगार ख्वाब बनकर रह गया है। वक्त के निर्मम सुनामी थपेड़ों के गुर्दो-गुबार में मुहब्बत का यह मखमली और मोगराई गलीचा अब मैली चादर में तब्दील होता हो गया है। इस कुदरती और इंसानियत के इल्मो-एहसास की यह नायाब शै बदलते वक्त के साथ बदल रही है । प्रेम में अब बदलाव कुछ इस तरह देखा जा रहा है कि खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों.. और लागा चुनरी में दाग छिपाऊं कैसे.. तक बात आ पहुंची है। हमने देखी है, इन आंखों की महकती खुशबू, हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो..पर नई उमर की नई नसल का न तो यकीन रहा और न ही ऐतबार । पश्चिमीकरण और वैश्वीकरण की अंधी आंधी ने पूरब का जो बहुत कुछ छीन लिया उसमें कुदरत की इस कायनात में हमें मिली मुहब्बत की यह सबसे हंसीन नेमत भी शुमार थी। भारत जैसे देश में जहां की तहजीब ही रतिक्रीड़ा के दौरान क्रौंच वध की पीड़ा से डाकू वाल्मिीकि को रामायण जैसा इंसानियत का महाग्रंथ रचने की प्रेरणा देता है। मानस को घर-घर पहुंचाकर हर घर में राम और सीता की कल्पना से रामराज की कल्पना करने वाले तुलसी को इस आदर्श महाकाव्य सृजित करने की प्रेरणा देने वाला भी वह पावन प्यार ही था जो उन्होंने प्रेम सागर की अतल गहराईयों में जाकर अपनी धर्म पत्नी से किया था। रत्नावली से उन्हें इतना गहरा प्रेम था कि उन्होंने कुछ इसी तरह डूबकर भगवान से प्रेम करने की नसीहत थी जिससे उन्होंने मानस की रचना कर डाली । कालजयी प्रेम काव्य मेघदूत रचने वाले मूढ़ महाकवि कालीदास को भी इसके लिए जहां से ताकत मिली वह प्रेम ही था। प्रेम का यह शास्वत तत्व दुनिया की अनमोल धरोहर ही नहीं बल्कि इस दुनिया के निर्माण से लेकर इसके विकास तक के सफर में मील दर मील मील का पत्थर रहा है । रोमियो-जूलियट, हीर-रांंझा,शीरी -फरहाद से लेकर लैला-मजनू और सोहणी-महीवाल तक की प्रेमगाथा के पीछे प्रेम की यही पाकीजगी और अदबी रवायत रही है जिसकी शक्ति के कारण ही जान और तख्तोताज कुर्बान ही नहीं किए जाते रहे बल्कि तख्ते-ताऊस को भी इसके आगे झुकना पड़ा या फिर वे टकराकर चूर चूर हो गए। गोर्की ने अपने महान उपन्यास मां में प्रेम को दुनिया की सबसे सबसे बड़ी ताकत तो प्रेमचंद ने निर्मला में इसे सबसे बड़ा मानवीय गुण बताया है। लेकिन बदलते दौर में जहां तेजी से बदलती सोच और जीवन शैली में भी बदलाव आ रहा है,दो दिलों का रिश्ता कु छ इस तरह रिसने लगा है कि इसके माएने ही बदल गए हैं। खुदगर्जी और मशीनी जिंदगी में निश्छल, निर्मल और त्याग का पर्याय माने जाने वाला प्रेम सौदेबाजी और शोशेबाजी तक सिमट कर रह गया है। यह फरिश्ताई और करिशमाई शै अब रुह से निकलकर देह पर फिर फिसल रही है । छुईमुई सा प्रेम पांच रुपए के सुर्ख गुलाब के रुप में बाजार में बिक रहा है । नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद नवसाम्राज्यवाद ने इस देश को एक बड़े बाजार में तब्दील कर दिया और न सिर्फ आदमी बल्कि उसकी हर फीलिंग को बाजारु उत्पाद बना बना डाला गया । चूंकि बाजारु जीवन शैली खुदगर्जी की बुनियाद पर परवान चढ़ती है लिहाजा सामाजिक मूल्य इस तेजी से दरकने लगे कि मुहब्बत की तमीज और तहजीब भी नई पीढ़ी भूलने लगी । पश्चिमी संस्कृति ने इस कोमल और पावन भावना को कामना और इससे भी आगे जाकर देह तक महदूद कर दिया। नई नसल की नजर में प्रेम दिल और आंखों का रुहानी अहसास नहीं बल्कि पावलो केवलो के वैश्विक उपन्यास 11 मिनिट्स की तरह फकत दैहिक हलचल है। उनका इंडियन आयडल अपने प्रेमी से बिंदास प्रेम करने और उसके हाथों मारी जाने वाली रोजमेरी के आगाथा क्रिस्टी के नावेल स्पार्कलिंग सायनाइट है, या फिर इससे भी आगे जाकर देह शास्त्र की केमेस्ट्री रचने रचने वाले स्किन राईटर शोभा डे और चेतन भगत के संस्कारिक और सुसभ्य समाज को बोल्ड करते खलनायक नुमा बोल्ड नायक नायिका । भूमंडलीकरण के दौर में भौंडी फिल्मों, सीरियलों और अब इंटरनेट ने प्रेम को पोर्न में बदल दिया है। बहुकोण प्रेम, बलात्कार फिर हत्या प्रेम की परिणिति हो गई है। स्कूल-कालेज के लड़के -लड़कियां कैंपस में ही बेहयाई और नकाबजदा होकर फर्राटे भरते हिचकोले खा रहे हैं तो कभी खुलेआम उद्यानों,नुक्कड़ों से लेकर मयखानों और खेत-खलिहानों में प्रेम की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं।उपभोक्तावादी संस्कृति ने सबसे ज्यादा इसी पीढ़ी को प्रभावित किया है जो एजूकेशन को शार्ट-आउट करने के साथ प्यार को भी शार्टकट मानकर चल रही है। तमाम तरह की सामाजिक वर्तनाएं इस तेजी से टूट रही हैं कि प्रेम की मर्यादा और पवित्रता उसके लिए कोई माएने नहीं रखती । सिर्फ एहसास है ये रुह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो..वाली बात से उसे कोई सरोकार नहीं है।इससे अलग प्रेम का हश्र लिव इन रिलेशन से होते हुए खाप पंचायत और लव जिहाद तक पहुंच गया है। बपर्दा प्रेम का बेपर्दा हो जाना दकियानूसी समाज को मंजूर नहीं है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि नई नई जवान हो रही पीढ़ी पढ़ाई के नाम पर पालकों के खून-पसीने की कमाई को तबाह कर नशा और देह का सबक पढ़ रही है। माता-पिता के विश्वास और इज्जत की रुसवाई उनके लिए सदमे और गुस्से का सबब बन नही है। फैशन और पैसन के इस चक्र व्यूह में फंसी युवा पीढ़ी को समझना जरुरी है कि प्रेम सिल्वर स्क्रीन की जिस्मानी कल्पना से परे रुहानी कुर्बानी का एक जज्बा है । इसे समझने और फिर हासिल करने का हक उन्हें तब है जब वे अपने आप से देश और प्यार करते हों और अपने भविष्य के प्रति पूरी तरह ईमानदार और परिवक्व हों ।यदि उनमें यह सामथ्र्य है तभी वे दुनिया के जीवन के सागर के तल में जाकर प्रेम का मोती निकाल सकते हैं । पहले वे अपने आपको समझ लें फिर मुहब्बत है क्या चीज इसे फील करने की कोशिश करें । प्यार कोई बोल नहीं प्यार आवाज नहीं, एक खामोशी है सुनती है कहा करती है.., न ये रुकती है न झुकती है न ठहरी है कहीं, नूर की बूंद है सदियों से बहा करती है.. ।