देवबंद में एक संवाद

devbandहरीश खरे। देवबंद स्थित दारूल उलूम एक ऐसा जाना-माना संस्थान है, जो दुनिया भर में इस्लामिक शिक्षण के लिए जाना जाता है। संवाददाताओं की भाषा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के इस शहर को एक मुस्लिम बहुल शहर भी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश के इस हिस्से में विधानसभा के लिए आज मतदान होने जा रहा है। इस चुनावी दंगल को इसलिए भी काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि इनके नतीजों का असर मोदी प्रशासन की आगामी राजनीतिक प्राथमिकताओं और वरीयताओं का पुनर्निर्धारण करेगा। यह इलाका सूबे का वह हिस्सा भी है जहां लोकसभा के चुनाव से पहले वाले महीनों में बड़ी संख्या में रहने वाले मुसलमानों और दबंग एवं आक्रामक जाटों के बीच हिंसक संघर्ष हुए थे। इन लड़ाइयों ने पूरे प्रदेश के माहौल को संक्रमित करके रख दिया था। इसकी वजह से बड़े पैमाने का ध्रुवीकरण बिना कोई ज्यादा प्रयास किए हो गया था और नतीजा यह रहा कि आम चुनाव में भाजपा को राजनीतिक रूप से अभूतपूर्व लाभ पहुंचा था। हालांकि यह अब इतिहास का हिस्सा है लेकिन मुजफ्फरनगर हिंसा की परिचर्चाएं-किसने किसके साथ क्या किया और क्यों-इसके उल्लेख 2017 के विधानसभा चुनावों में विचार करने का एक विषयवस्तु प्रदान करते रहे हैं। यहां इस पर बहुत ज्यादा गौर करने की जरूरत है कि जहां भाजपा ने लगभग 400 उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे हैं वहीं वह अपने लिए एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं ढूंढ नहीं पाई है। इसलिए हो न हो, ये तथ्य हमारे देश के मूल विषयों में जिस एक अनसुलझे विषय की तरफ ध्यान खींच रहा है, वह है कि बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के सह-अस्तित्व की शर्त क्या है? बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के बीच अच्छे संबंध न केवल देश की राज्य-व्यवस्था बल्कि राजतंत्र की सक्रियता का स्वास्थ्य-सूचकांक भी होते हैं। कोई भी देश अपने यहां रहने वाले इन वर्गों के बीच स्वस्थ समीकरण बनाए बिना खुद को महान बनाने का ध्येय प्राप्त नहीं कर सकता।
लेकिन यह होना फिलहाल संभव नहीं लगता क्योंकि माहौल ऐसा बना हुआ है कि मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक इस संबंध के विषय में खुलकर और बिना विद्वेष अपने विचार व्यक्त करने में गुरेज कर रहे हैं। देवबंद में मुस्लिमों के कई वर्गों से बातचीत के बाद मुझे कुछ ने अपने समाधान सुझाए, कइयों ने उद्वेलित करने वाली अंदरूनी जानकारी दी और तो कुछेक ने अपने संजीदा विचार साझा किए।
हम में से बहुत से लोगों को भले ही 6 दिसंबर 1992 का जिक्र फिर से करना पंसद नहीं आएगा, लेकिन फिर भी हमें अपने जेहन में यह याद रखना होगा कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों के समीकरण में एक नया आयाम जोड़ दिया है। ऐतिहासिक रूप से मुसलमान इस देश में बेखौफ रहने का जो भी भरोसा महसूस किया करते थे, वह उन्हें मिला भी था। साथ ही संविधान-प्रदत्त जो भी प्रश्रय उन्हें प्राप्त था, उस पर उन्हें विश्वास था। परंतु उक्त घटना वाले दिन से मुल्क की सबसे बड़ी इस अल्पसंख्यक आबादी के मन में संविधान के हिसाब से सबको बराबर माने जाने का जो नारा था, वह टूटकर बिखर गया था। समता वाली भावना अभी भी पूरी तरह उनके मानस में नहीं बन पाई है और न ही राज्य-व्यवस्था ने इस भरोसे को फिर से कायम करने का कोई प्रयास किया है। शायद इसके पीछे कारण यही है कि किसी भी हुक्मरान ने यह नहीं जाना कि बराबरी वाले उस पुराने बोध और नफासत को फिर से कायम करना कितना जरूरी है।
फिर भी यह भारतीय लोकतंत्र के लचीलेपन का पैमाना है कि देवबंद के ज्यादातर मुस्लिमों ने कहा है कि वे न तो भाजपा से और न ही नरेंद्र मोदी से ‘डरÓ महसूस करते हैं। उनका बार-बार ऐसा कहना चुनौती का सुर न होकर भारतीय संविधान में निहित न्यायोचित व्यवस्था पर उनका भरोसा अभी भी कायम रहने का द्योतक है। उनके अंदर न तो किसी तरह अपनी घेराबंदी किए जाने और न ही निराशा की भावना थी।
बल्कि इस बेखौफता से एक दबा-ढंका विचार उभरकर सामने आता है। मुसलमान नहीं समझते कि उनके ऊपर भाजपा को प्रत्येक चुनाव में हराने का एक अतिरिक्त बोझ है, बल्कि उनमें शिद्दत से यह बोध है कि आए साल कोई न कोई चुनाव होता ही रहता है और इस लोकतांत्रिक अनुष्ठान को वर्गों के बीच मनमुटावों और ध्रुवीकरण को उभारने के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत कतई नहीं होनी चाहिए। साथ ही उनके जेहन में यह भावना भी है कि धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और व्यवस्था की हिफाजत करने का ठेका खासतौर से उनके पास नहीं है। बल्कि ये शब्द तो–और होने भी चाहिए-उन सभी राजनेताओं और दलों के लिए सबक देने वाले विचार हैं, जो खुद को भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अलंबरदार होने का दावा करते फिरते हैं।
इससे अलावा उनके विचारों में निष्ठुरता की हद तक साफगोई यह देखने को मिली कि भाजपा और आरएसएस भले ही कितना भी प्रचारित करें, लेकिन मुसलमान खुद को महज एक ‘वोट बैंकÓ की तरह नहीं मानते। मुस्लिम वोटर को मैंने अपनी-अपनी पसंद के मुताबिक तीन मुख्य गैर-भाजपा राजनीतिक दलों यानी समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य छोटे किंतु स्थानीय पार्टियों की तरफ भी झुकाव रखते पाया है। मुसलमानों में भाजपा को लेकर उलटे रोष यह है कि उसने अपने दरवाजे उनके वास्ते बंद कर रखे हैं और वह उनकी समस्याओं के प्रति न केवल उदासीनता रखती है वरन उनकी आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को समाहित नहीं करती। शायद मुसलमानों पर लगातार एक ‘वोट बैंकÓ का ठप्पा लगाने और बहुसंख्यकों के मन में उनके प्रति शक और असुरक्षा की भावना जगाकर भाजपा को राजनीतिक लाभ उठाने में सहायता मिलती है।
वर्ष 2013-14 में हुए जाट-मुस्लिम वर्ग संघर्ष की पैनी चुभन हालांकि अब उतार पर है लेकिन मुसलमानों और हिंदुओं के बीच ध्रुवीकरण अभी भी कायम है और ऊपरी तौर पर शांत दिखने वाली सतह के नीचे यह व्याप्त है। इस ध्रुवीकरण ने जो कट्टर राजनीतिक वफादारियां बना दी हैं, उसकी फांस अभी भी टीस पैदा कर रही है। यहां वर्णनयोग्य है कि एक भी हिंदू नेता-चाहे वह किसी भी दल का हो-उसकी यह हिम्मत नहीं पड़ी कि वह सार्वजनिक मंच पर मुसलमानों के पिछड़ेपन की चर्चा करे और कहे कि उनकी समस्याओं को दूर करना पूरे समाज की जिम्मेवारी बनती है।
लोगों से वार्तालाप में राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र बार-बार आता था। यूपीए सरकार के दिनों में बनी इस कमेटी ने चौंकाने वाले तथ्य पेश किए थे कि मुसलमानों की वास्तविक स्थिति दलितों से कहीं ज्यादा बुरी है और किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि वह इस रिपोर्ट को संसद के पटल पर प्रस्तुत करे। भाजपा का प्रिय पैंतरा राष्ट्रवाद को एकाधिकार से उभारना रहा है। तथापि मुसलमानों को इसकी परवाह नहीं है। उनके मन में यह विश्वासपूर्ण भावना व्याप्त है कि अपनी निजी राजनीतिक वफादारियों और पसंदगी के लिए उन्हें किसी भी तरह शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि उनके चित्त में सऊदी अरब, यूएई या पाकिस्तान के प्रति जरा भी खुमार नहीं है। उक्त बातों के आलोक में पता चलता है कि यह भाजपा ही है जो बेदर्दी से ध्रुवीकरण करने को कटिबद्ध है। मुसलमान कहते हैं कि भाजपा के प्रति सहिष्णुता दिखाने के फेर में वे अपनी पहचान और सिद्धांत को नहीं छोड़ सकते और भारतीय समाज के किसी भी अन्य वर्ग की भांति उन्हें भी ‘सुनवाईÓ का पूरा हक है और इस आश्वासन का भी कि सरकारें उनकी समस्याओं के प्रति उदासीनता नहीं रखेंगी और ‘हुकूमतेंÓ यह भी सुनिश्चित करें कि समाज के किसी भी वर्ग के साथ अन्याय नहीं किया जाएगा।
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में लड़े जाने वाले इस चुनावी संग्राम में उपरोक्त सीधी बातें विकास करवाने के तमाम हवा-हवाई दावों से इतर काफी मायने रखती हैं। योगी आदित्यनाथ और उनके चट्टे-बट्टों को पूरे प्रदेश में फूट डालने के काम पर लगाया गया है। दूसरी तरफ समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन सूबे को आधुनिक बनाने का दावा कर रहा है। बहुजन समाज पार्टी की बहन मायावती भी भाजपा की ध्रुवीकरण वाली नीति को चुनौती देती घूम रही हैं। 11 मार्च को आने वाले नतीजे जो भी होंगे लेकिन एक बात बिल्कुल पक्की है: अल्पसंख्यक धर्मनिरपेक्ष भारत के सिद्धांत से अपनी पीठ नहीं मोडऩे वालेज्आमीन।