बारिश के मिजाज में खतरे की आहट

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डॉ. भरत झुनझुनवाला।
इन्द्रदेव देश के साथ आंख मिचौली खेल रहे हैं। जून में वर्षा सामान्य रही। सामान्य का अर्थ है कि पूर्व के औसत से चार प्रतिशत कम या अधिक वर्षा हुई है। इसके बाद जुलाई के पहले पखवाड़े में वर्षा बहुत कम रही। सूखे की सम्भावना बढ़ती जा रही थी। लेकिन जुलाई के दूसरे पखवाड़े में देश के तमाम क्षेत्रों में अच्छी वर्षा होने से स्थिति पुन: सामान्य हो गई है। वर्तमान में वर्षा सामान्य से मात्र दो प्रतिशत कम है। राजस्थान के दक्षिणी इलाकों में भारी वर्षा के कारण बाढ़ आ गई है। शुभ संकेत मिल रहे हैं कि देश में सूखा नहीं पड़ेगा। लेकिन दूसरे संकेत बताते हैं कि परिस्थिति सामान्य नहीं है। उड़ीसा सरकार ने तत्काल 13 हजार नये बोरवेल बनाने का निर्णय लिया है, जिससे सूखे का सामना किया जा सके। महाराष्ट्र में प्याज के दामों में भारी वृद्धि हुई है। वर्षा की वजह से फसल कमजोर है और मंडी में आवक कम हुई है। देश के दक्षिणी एवं पश्िचमी हिस्से में वर्षा में कमी बनी हुई है।
रिजर्व बैंक ने आदेश दिये हैं कि बैंकों द्वारा किसानों को अधिक मात्रा में सीधे ऋण दिये जायें, जिससे वे सूखे का सामना कर सकें। वस्तुस्थिति यह है कि सम्पूर्ण देश में तथा सम्पूर्ण अवधि को समग्र रूप में देखा जाये तो वर्षा सामान्य है परन्तु समय एवं क्षेत्र विशेष में भारी उतार-चढ़ाव है। भविष्य में इस तरह के उतार-चढ़ाव के अधिक होने की सम्भावना है। विश्व की तमाम सरकारों द्वारा जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने के लिये बनाये गये इंटर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज के अनुसार आने वाले समय में वर्षा का रूप असंतुलित होता जायेगा, यद्यपि कुल वर्षा में अधिक परिवर्तन नहीं होगा। जैसे एक माह तक वर्षा न होने के बाद दो दिन तक भारी वर्षा हो तो वर्षा सामान्य रहेगी परन्तु खेती के लिये कम ही लाभदायक रहेगी। सूखे में बुआई नहीं हो सकेगी। एकाएक अधिक वर्षा आने से फसल बर्बाद होगी। इसलिये वर्तमान में वर्षा के सामान्य होने से हमे भ्रमित नहीं होना चाहिये। वर्षा सामान्य हो जाये तो भी हमारे सामने खाद्य संकट उत्पन्न हो रहा है।
वर्षा के इस बदलते रूप का सबसे गहरा प्रभाव भूमिगत जल के पुनर्भरण पर पड़ेगा। वर्षा कई दिन तक धीरे-धीरे हो तो पानी भूमि के अन्दर रिस कर भूमिगत तालाबों में जमा हो जाता है, जिन्हें एक्वीफर कहते हैं। थोड़ा-थोड़ा घी धीरे-धीरे सेवन किया जाये तो स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद रहता है। वहीं एक कटोरी घी एक साथ पी लिया जाये तो अपच पैदा करता है। इसी प्रकार एक झटके में आने वाली तीव्र वर्षा बाढ़ लाती है और खेती को नुकसान पहुंचाती है। विशेष यह कि अधिकतर पानी नदियों के रास्ते समुद्र को चला जाता है और हम उसके उपयोग से वंचित रह जाते हैं। फलस्वरूप पूरे देश में भूमिगत जलस्तर तेजी से घट रहा है। समस्या और विकराल होती जा रही है, चूंकि सरकार द्वारा भूमिगत जल को निकालने के लिये सब्सिडी दी जा रही है। अनेक राज्यों में किसानों को बिजली मुफ्त अथवा सस्ते मूल्य पर दी जा रही है। ऐसे में किसानों की प्रवृत्ति बनती है कि वे जल का अधिकाधिक उपयोग करें। भूख न होने पर भी सड़क किनारे लगे लंगर में व्यक्ति रुक ही जाता है, चूंकि उसे भोजन का पेमेंट नहीं करना होता है। इसी प्रकार फसल को पानी की जरूरत न होने पर भी किसान सिंचाई कर देता है, चूंकि उसे बिजली का मूल्य अदा नहीं करना होता है। नहर के पानी की भी बर्बादी हो रही है। किसान से पानी का मूल्य फसल के आधार पर वसूला जाता है। गेहूं के खेत में नहर के पानी से एक बार सिंचाई की जाये या पांच बार, किसान को उतना ही मूल्य अदा करना होता है। ऐसे में किसान की प्रवृत्ति बनती है कि तब तक सिंचाई करता रहे जब तक नहर में पानी उपलब्ध है। इस प्रकार देश के सामने दोहरा संकट उत्पन्न हो गया है। एक तरफ वर्षा के पैटर्न में बदलाव से भूमिगत जल का पुनर्भरण कम हो रहा है। दूसरी तरफ भूमिगत जल का अति दोहन हो रहा है।
इस समस्या का समाधान है कि किसान द्वारा उपयोग किये गये पानी की मात्रा के अनुसार मूल्य वसूल किया जाये। गेहूं के खेत की जितनी बार नहर से सिंचाई की जाये, उसी के अनुसार पानी का मूल्य वसूला जाये। तब पानी खोलने के पहले किसान विचार करेगा कि पानी देने की जरूरत है या नहीं। दूसरा समाधान है कि किसान को दी जा रही बिजली का पूरा मूल्य वसूला जाये। तब बोरवेल चलाने के पहले किसान विचार करेगा कि बिजली के मूल्य के सामने फसल को कितना लाभ होगा। तब पानी के दुरुपयोग पर सरकार का नियंत्रण होगा।
समस्या है कि किसान पहले ही घाटे में चल रहा है। पानी के मूल्य का बोझ डालने से उसकी हालत और बिगड़ जायेगी। समाधान है कि कृषि उत्पादों के मूल्यों में वृद्धि की जाये। पानी का खर्च यदि 100 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ता है तो फसल के दाम में 150 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की जाये। तब किसान को पानी का मूल्य अदा करने में परेशानी नहीं होगी लेकिन शहरी उपभोक्ताओं को अधिक मूल्य अदा करना होगा। यह मुख्य समस्या है। हमारी सरकारों की पालिसी रही है कि शहरी उपभोक्ता प्रसन्न रहे। इनका मीडिया और सरकार पर विशेष दबदबा रहता है। इन्हें सन्तुष्ट रखने के लिये सरकार द्वारा किसान को दुख दिया जा रहा है। साथ ही देश की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाया जा रहा है। इस बिन्दु पर सरकार को कठिन निर्णय लेना होगा।
एक तरफ देश के किसान और खाद्य सुरक्षा खड़ी है तो दूसरी तरफ शहरी उपभोक्ता। ऐसे में उपभोक्ता के हित से कतिपय समझौता किया जा सकता है परन्तु देश की खाद्य सुरक्षा से समझौता नहीं किया जा सकता। अत: पानी के सदुपयोग के लिए कदम उठाना ही होगा। सरकार को चाहिये कि इन बिन्दुओं पर ध्यान दे। सरकार ने नेशनल मिशन फार सस्टेनेबल एग्रीकल्चर की शुरुआत की है। दुर्भाग्य है कि इस मिशन के उद्देश्य में पानी के प्रबन्धन का यह प्रमुख विषय उल्लेखित नहीं है। खेती के पानी के उपयोग के तरीकों में सुधार एवं फसल के विविधिकरण जैसे ऊपरी मुद्दों मात्र को मिशन में शामिल किया गया है। कृषि उत्पादन के मूल्यों का विषय भी मिशन में शामिल नहीं है। यह मिशन तो शुतुरमुर्ग जैसा है।