कम्युनिष्ट योद्धा कामरेड रामबाबू (1918-2013)

अखिलेश चंद्र प्रभाकर। कामरेड रामबाबू इस संसार में बार-बार पैदा नहीं हुआ करते। उनका जन्म संभवत: 1918 में हुआ था। 1934 में जब उनकी उम्र महज 15 साल की रही होगी, अपने ननिहाल रोहियार-बँगलिया (जो बदलाघाट-धमहड़ा रेलवे स्टेशन के समीप है) के बागमती-कोशी नदी में अचानक हेलीकाप्टर को क्रैस होता देख जोर-जोर से चिल्लाया और अपने संगी-साथियों को बुलाकर उस पर सवार सभी 8 ऑफिसरों को लाठियों से मार गिराया था जो नदी तैर कर भागना चाहते थे। युवा रामबाबू ने सबसे पहले लड़ाई का आगाज शुरू किया था चौथम के राजा सुरेन्द्र सिंह के खिलाफ (जिनके पास 1600 एकड़ जमीनें हुआ करती थी)। सुरेन्द्र सिंह ने जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को खगडिय़ा के मानसी की सभा में मंच पर उपहार स्वरूप ‘सोने का हल’ भेंट किया तब इंदिरा ने खुशी जाहिर करते हुए इसे बिहार का तीसरा बड़ा राजा होने के खिताब से नवाजा था। इस राजा सुरेन्द्र सिंह ने चौथम इलाके के सभी लोगों को ‘भोज’ खाने का न्यौता देकर अपने यहाँ बुलाया। पिछड़ी जातियों व हरिजन/दलित (शूद्रों) के लिए बैठने और भोज खाने के लिए अलग से पंडाल बनाए गए थे। इन पिछड़ी जातियों-दलितों से कहा गया था की वे सभी भोज खाने के बाद अपना-अपना पत्तल उठाकर पंडाल के बाहर खुद फेंकेंगे। रामबाबू ने इस भेदभाव का विरोध किया और सैंकड़ों लोगों को साथ लेकर राजा के अपने रिश्तेदारों व जाति-बिरादरी (राजपूत) के लिए बनाए दूसरे पंडाल में घुस गए जहाँ अफरा-तफरी जैसा माहौल उत्पन्न हो गया और अंतत: भोज कार्यक्रम को ठप्प करना पड़ा। इस घटना के बाद राजा सुरेन्द्र सिंह ने ने ‘सार्वजनिक-भोज’ का फिर कभी दूसरा आयोजन नहीं किया। बाद के दिनों में रामबाबू ने बेलदौर का रूख किया जहाँ उत्तर-प्रदेश के बलिया से लेकर बिहार के पूर्णिया तक के 17 बड़े जमींदारों ने 10 हजार एकड़ से भी अधिक (सीलिंग से फाजिल जमीन) जबरन कब्जा कर अपना उपनिवेश कायम किया हुआ था। उन जमींदारों के खिलाफ कम्युनिष्ट योद्धा कामरेड रामबाबू (जनता के बीच इसी नाम से विख्यात थे) के नेतृत्व में बटाईदार किसानों का संगठितरूप से गौरवशाली बहादुराना सशस्त्र संग्राम छेड़ा गया जिन्हें अपना- अपना कचहरी समेत बोरिया-बिस्तर समेटने को बाध्य होना पड़ा था। पाँच दशकों तक चले इस महासंग्राम के दौरान कामरेड रामबाबू को (अपने दोनों भाईयों समेत अनेक क्रांतिकारी साथियों के साथ) हालांकि, कई वर्षों तक सहरसा,खगडिय़ा, मुंगेर, और भागलपुर के जेलों में बंद रहना पड़ा था। जमींदारों ने इस दौरान कांग्रेसी पुलिस, अपने निजी सिपाहियों और बाहरी लठैतों के दम पर सैंकड़ों बटाईदारों से जबरन जमीनें छीन ली। भूमिहीन खेतिहर दलित व पिछड़ी जातियों के बटाईदारों के ऊपर अनगिनत जुल्म ढाए गए। जमींदारों के मैनेजरों, सिपाहियों, मुंशियों द्वारा गरीब बटाईदारों के बहु-बेटियों की इज़्जतें लूटना, उन्हें अक्सर डराने-धमकाने के जरिए उनका शोषण करना बदस्तूर जारी रखा। 1974 में जेल से कामरेड रामबाबू की रिहाई के फौरन बाद 400 हल व बैल के साथ सैंकड़ों बटाईदारों ने जमींदारों द्वारा बोए गए फसलों को उजाड़ कर अपना फसल खुद बोया और तय किया की अब वे जमींदारों को एक मुठ्ठी भी अनाज उनकी कचहरी पर जाकर नहीं देंगे। जमींदारों और स्थानीय सामंतों ने किसानों और मजदूरों की व्यापक गोलबंदी /एकजुटता के आगे सरेंडर कर हथियार डाल चुके थे। उनके मैनेजरों, सिपाहियों को जमींदारों की कचहरी से खदेड़ दिया गया। जमींदारों के सिपाहियों की जमीनें छीन ली गई। उनकी बनी बनाई कचहरी को अपने कब्जे में लेकर उसी जगह पर स्कूल घोषित कर दिया गया। उनकी जमीनों पर भूमिहीन दलितों की कई बस्तियां बसाई गई। भूमि-संघर्षों का केन्द्रीय स्थल बेलदौर का रामनगर-शिवनगर (जहां पूर्णिया (रुपौली) के ब्रह्मज्ञानी एस्टेट का कुख्यात जमींदार बबूजन मण्डल ने अपना कचहरी बना रखा था) में 1974 में अखिल भारतीय किसान सभा का बिहार राज्य सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें कम्युनिष्ट नेता कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत, ए के गोपालन, पी सुंदरैया वगैरह बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे।
जमींदारों व सामंतों के खिलाफ इस बड़ी लड़ाई में रामबाबू अपने पंचायत के कथित स्व-जातीय मुखिया और कांग्रेसी नेता कुख्यात (सामंत) रामशरण सिंह (जो गरीब दलितों के ऊपर अनेकों जुल्म कर रहे थे) के खिलाफ भी दो दशकों तक भीषण लंबी लड़ाईयां लड़ी। लेकिन, माकपाई आपराधिक गिरोह ने रामबाबू को जातीय फ्रेमवर्क में रखकर जातीयता के आधार पर लोगों को गुमराह करने का प्रयास किया। इन सबके बावजूद भी, इलाके में रामबाबू की लोकप्रियता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं की, उनके सिर्फ एक आह्वान पर अपने फसलों को बाढ़ से बचाने और बांध बांधने के लिए सैंकड़ों किसान अपने-अपने हाथों में कुदाल, डेली लेकर निकल पड़ते थे और बिना किसी सरकारी मदद के ही बांध बनकर तैयार हो जाता था। 1980 तक आते आते माकपा का “हथियारबंद-दस्ता” असमाजिक- आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होकर “भटकाव का शिकार” हो गया और स्थानीय जनता के खिलाफ “हिंसा, आतंक व जुल्म का एक नया दौर” शुरू कर दिया। कामरेड और क्रिमिनल का भेद मिटा दिया गया। गरीब किसानों व बटाईदारों (जिसके जीविका का एकमात्र साधन भीषण बाढ़/सुखाड़/मानसून पर निर्भर खेती-बड़ी और पशुपालन ही था, के खिलाफ 10 मन का बीघा अनाज (मालगुजारी/लगान के रूप में) जमा करने का फरमान जारी कर उनसे जबरन वसूली करने, उनकी बहु-बेटियों की इज्जत लूटने, इलाके में सरेआम दादागिरी, रंगदारी, हत्या, लूट जैसी जघन्य वारदातों को अंजाम देकर एक मिनी चम्बल जैसा “आतंक का साम्राज्य” कायम कर दिया। बेलदौर की इस महान क्रांतिकारी धरती को बेगुनाहों के खून से रक्त-रंजित कर अपवित्र करने वाले, मुंगेर से लेकर मधेपुरा-पूर्णिया तक की पुलिस द्वारा घोषित ‘शूट-वारंटधारी’ बेहद खतरनाक शातिर बदमाशों के लिए सुरक्षित “पनाहगाह” बना दिया, जिनके साथ माकपा के सैंकड़ों हथियारबंद घुड़सवार बदमाशों / अपराधियों के गिरोहों ने एक तरह से “समानांतर सरकार” बना लिया। हथियारों से लैस सैंकड़ों घुड़सवार बदमाशों को दिन/रात (24 घंटे और तीसो (30)दिन कहीं भी देखा जा सकता था। उन बदमाशों द्वारा आमलोगों के खिलाफ उनके आतंक, जुल्म-उत्पीडऩ की एक-एक घटना को (जो मेरे जेहन में अब भी याद है) अगर संकलित करना शुरू करें तो मोटी किताब लिखी जा सकती है। माकपा का तत्कालीन जिलामंत्री आनंदी सिंह इन बदमाशों को खुला और अंध राजनीतिक संरक्षण देकर लगातार उन्हें प्रोत्साहित करता चला आ रहा था…ताकि, आनंदी सिंह अपने निजी राजनीतिक करियर को इन बदमाशों की मदद से चमका सके, और चौथम-बेलदौर विधानसभा क्षेत्र में उनके लिए बूथ लूटने का काम कर सके। गद्दार आनंदी सिंह (जो खुद भी एक मझौले जमींदार परिवार से ही ताल्लुकात रखता था) ने अपने गाँव अमनी में पड़ोस के दूसरे जमींदार के खिलाफ माकपा की लड़ाई के बूते खुद अपने परिवार के लिए निजी तौर पे उसकी जमीनें हथिया ली थी। जाहिर है, कामरेड रामबाबू (जो अपनी उम्र के 70 वें साल में प्रवेश कर गांधी जी की तरह लाठी लेकर चल रहे थे) जिन्हें जनता से बेहद प्यार और लगाव था और जो अपनी पूरी जिंदगी हर तरह/किस्म के जुल्म-उत्पीडऩ का विरोध करते हुए उस जुल्म-उत्पीडऩ के खिलाफ संघर्ष करते आए थे, को चुपचाप बैठकर बर्दाश्त करते रहना मुश्किल था। लिहाजा, रामबाबू ने माकपा के हर फोरम पर जाकर मुखरता के साथ अपनी आवाज उठाना शुरू किया और समाज को बंधक बना चुके उन आतंकियों/गुंडों का डटकर विरोध करना शुरू कर दिया। बिल्कुल यही वो वजह थी जिसके चलते रामबाबू के खिलाफ व्यक्तिगतरूप से अपमानजनक शब्दों में गाली-गलौच करने और उनकी फसलों को खेतों में ही बर्बाद करने की गुंडई के जरिए माकपाई गुंडों ने रामबाबू और उनके समर्थकों को वापस चौथम भेजने और उनकी जमीनें हथियाने का भ्रम / दु:स्वप्न पालने का दुस्साहस किया। 14 अप्रैल 1982 को रामबाबू के गाँव शिवनगर पर उन सैंकड़ों हथियारबंद गुंडों ने सरेआम दिनदहाड़े धावा बोलकर पूरे गाँव में हत्या, सामूहिक बलात्कार, सामूहिक लूट की जघन्य घटना को अंजाम दिया। एक समय बड़े-बड़े जमींदारों के खिलाफ़ चली लड़ाई के दरम्यान गाँव की जिन दर्जनों महिलाओं ने रात के दो बजे उठकर पूरे जोश-उत्साह के साथ अपने हाथों से बना गरम गरम खाना परोस कर उन्हें (जिसे वे संघर्षों का अपना साथी समझती थी) प्यार से खिलाया करती थी… उन्ही महिलाओं के हाथों और उनकी कलाई को तोड़ा गया। उनके साथ इस जंगली,असभ्य, शातिर भेडिय़ों- गुंडों ने सामूहिक बलात्कार किए। इस घटना के बाद, माकपा ने आनन-फानन में अपनी खगडिय़ा जिला कमेटी को भंग कर दिया। कामरेड रामबाबू और उन अपराधियों के गिरोह के सरदारों को माकपा ने पार्टी सदस्यता से निष्काषित किया। हालांकि वे अपराधी तब भी माकपा से जुड़े किसान सभा और युवा संगठन के अपने-अपने पदों पर कई साल तक बने रहे। उस शर्मनाक घटना के बाद चार साल तक कामरेड रामबाबू ने उन हथियारबंद गिरोहों का डटकर मुकाबला किया और अंतत: जनता के सहयोग से सभी बदमाशों को आत्म-समर्पण करने और बेलदौर इलाके छोडऩे पर मजबूर किया। बाद के दिनों में माकपा से निष्काषित किए जा चुके आपराधिक गिरोह/झुंड को सीपीआई के कामरेड सत्यनारायण सिंह ने पहले अपने गले लगाया। फिर बाद में कांग्रेस के जगरनाथ मिश्र सरकार में संसदीय कार्यमंत्री रहे घनश्याम सिंह ने पूर्व माकपाई गुंडों को पैसे का लालच देकर अपने लिए चुनावी बूथ लूटने के लिए इस्तेमाल किया। तिसके बाद, लालू-राबड़ी सरकार में मंत्री रह चुके पशुचारा घोटालेबाज राजद नेता विद्यासागर निषाद ने भी अपने लिए उन गुंडों से चुनावी बूथ लुटवाया। अंत में ये गुंडे खुद को अति-क्रांतिकारी माओवादी भी घोषित किया। इसी बीच 1990 में आपसी वर्चस्व की लड़ाई में गुंडागैंग के कबीलाई छोटे सरदार कुशेरी चौधरी ने अपने बड़े कबीलाई सरदार सुधाकर सिंह (जिसे माकपा के बिहार राज्य सचिव गणेश शंकर विद्यार्थी बेलदौर का भगत सिंह समझता था) को मार गिराया तो यही गणेश शंकर विद्यार्थी उसे शहीदे आजम भगत सिंह की उपाधि से नवाजा। इस छोटे सरदार कुशेरी चौधरी (जो खुद को सबसे बड़ा माओवादी क्रांतिकारी घोषित कर रखा था) ने पिछली बार 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी तीन पत्नियों में से एक पत्नी को कांग्रेस का टिकट दिला कर चुनाव भी लड़वाया। 1992 में माकपा के मशहूर व जुझारू किसान नेता बीरेंद्र सिंह (जो जमींदारों के खिलाफ लड़ाई के दौरान कामरेड रामबाबू के पारिवारिक सुख-दुख में हमेशा साझेदार रहे सबसे गहरे किन्तु; विश्वसनीय मित्र बन चुके थे) की पूरे परिवार समेत बीरेंद्र बाबू की हत्या कर दी माकपा ने। इस एक हृदय-विदारक घटना ने रामबाबू को अंदर से हिलाकर रख दिया। जब अपने मित्र बीरेंद्र सिंह और उनके परिजनों (जिनमें उनके दो बेटों समेत उनकी पत्नी और महज तीन साल की मासूम बच्ची) की लाशें जमीन पर बिखरी हुई पड़ी देखकर वापस अपने घर आए तो यह फौलादी इंसान फफक-फफक कर फूट-फूटकर रो रहे थे जैसे मानों उनका बनाया हुआ उनका अपना संसार सबकुछ उजड़ गया हो… । कभी-कभी जब माकपा के बारे में ठंढे दिमाग से सोचता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे मानों “माकपा उस मादा केंकड़े की तरह है… जिसके गर्भधारण करते ही उसके मौत की तारीख भी तय हो जाती है, क्योंकि एक तो गर्भाशय से उसके दर्जनों बच्चों के बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। और उसके गर्भाशय के अंदर नन्हें बच्चों के पोषण के लिए पर्याप्त आहार उपलब्ध नहीं होता। लिहाजा, मादा केंकड़े के पेट को उसके नन्हें बच्चे अंदर ही अंदर खाकर उसे खोखला कर देते और अपनी माता का पेट चीर कर बाहर आ जाते।” खगडिय़ा से लेकर दिल्ली तक की जीवन यात्रा के दौरान हमारे जीवन में घटित घटनाओं के अनुभव के आधार पे माकपा के बारे में हमारी राय बहुत पुख्ता हुई है। कम्युनिष्ट इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब पार्टी के शीर्ष नेता खुद रामबाबू के घर आकर माकपा नेताओं से अतीत में हुई गलतियों और उनके साथ व्यक्तिगत और समाजिक रूप से भी की गई ज्यादतियों के लिए माफी मांगा,और उनसे दोबारा प्रतिष्ठापूर्वक पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने का अनुरोध किया। कामरेड रामबाबू अपने जीवन के लगभग 95 साल की उम्र पार करने के बाद आखिरी सांस लेने तक एक ईमानदार कम्युनिष्ट योद्धा, सच्चे समाजसेवी, गरीबों के हमदर्द और माकपा के सदस्य बने रहे। हालांकि, रामबाबू निरक्षर थे। लेकिन, उनकी निरक्षरता कभी भी बाधक नहीं बनी जब वह हजारों साल से भारतीय समाज को व्याप्त सामाजिक रूढिय़ों, कुप्रथाओं, कुरीतियों से लडऩे निकल पड़े थे। कबीर का निर्गुण भजन उन्हें हमेशा कंठस्थ याद रहता था और लोगों को बड़े प्यार से सुनाया करते थे। रामबाबू के पास किसी भी उम्र के बच्चे, नौजवान, बूढ़े यूं ही चुपचाप बैठे नहीं रह सकते थे। जोश से ओत-प्रोत जीवन से जुड़ी अनगिनत कहानियाँ/किस्से, भजन, कहावतें, मनोरंजन के लिए उनके हंसी-मजाक सुनने के लिए लोग खुद-ब-खुद उनके पास आकर घंटों बैठा करते थे। अक्सर सुबह के चार बजे सबसे पहले बिस्तर से उठकर “लेनिन का वरदान हमारा प्यार लाल निशान” का गीत गाकर हमसबों को नींद से जगाया करते थे। दुख /निराशा/उदासी के क्षण में भी उदासियों को चीर कर उसमें जीवन की जीवंतता के रंग भरने की कला में माहिर और आत्म-विश्वास से लवरेज कामरेड रामबाबू 3 मई 2013 को रात्री के 8:55 मिनट पर इस संसार को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह गए।
[लेखक-जेएनयू एसएफआई और माकपा के पूर्व सदस्य]