बिहार में लगी मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर

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कृष्णमोहन झा।
बिहार विधानसभा चुनावों के लिए अब ज्यादा समय शेष नहीं रह गया है इसलिए चुनावी दावपेंच में उन सारे राजनीतिक दलों की दिलचस्पी बढऩा स्वाभाविक है जो राज्य की सत्ता पर काबिज होने का सपना संंजोए बैठे हैं। इस बार मुख्य मुकाबला जदयू-राजद गठबंधन और भारतीय जनता पार्टी के बीच ही होने जा रहा है। मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जदयू के चुनाव अभियान की बागडोर थामेंगे तो राजद के चुनाव अभियान की बागडोर लालू प्रसाद यादव के हाथों में रहेगी परंतु दोनों ही दल वर्तमान मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को ही भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करेंगे। जदयू की इस शर्त पर लालू प्रसाद यादव को निसंदेह मन मसोसकर राजी होना पड़ा है। राज्य की सत्ता पर काबिज होने के लिए तैयार बैठी भारतीय जनता पार्टी का डर दोनों ही पार्टियों पर इस कदर हावी हो गया है कि दोनों के बीच लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक दुश्मीन अब भाईचारे का रूप ले चुकी है। यह बात अलग है कि लालू प्रसाद यादव के लिए नीतिश कुमार का नेतृत्व जहर का घूंट पीने जैसा है तो नीतिश कुमार यह मानते है कि चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग। नीतिश कुमार भले ही यह कहें कि यह दोहा उन्होंने भाजपा के लिए इस्तेमाल किया है परंतु नीतिश का मंत्वय तो यही निकाला जा रहा है कि मानों वे लालू को साथ लेकर भी अपनी सुशासन बाबू की छवि सुरक्षित रखने के प्रति पूरी तरह निश्चिंत हैं। लेकिन नीतिश कुमार को इस सच्चाई का भी पूरा अहसास है कि लालू प्रसाद यादव की मान मनौव्वल के बिना वे चुनावी वैतरणी में अपनी नैया पार लगाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तीसरी बार काबिज होने में सफल नहीं हो सकते इसलिए वे इस बात पर राजी हो गए है कि बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से 100-100 सीटों पर जदयू और राजद अपने अपने उम्मीदवार खड़े करे और 40 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ दी जाएं। 2 सीटों पर उम्मीदवारी के लिए शरद पवार की पार्टी राकांपा को मौका दिया जा सकता है परंतु इसमें अभी संदेह ही है कि शरद पवार क्या इतने से संतुष्ट हो जाएंगे वैसे राकांपा ने राज्य विधान परिषद की 24 सीटों के चुनाव में राजद और जदयू के गठबंधन का साथ दिया था। इसमें आश्चर्य की बात यह है कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी समाजवादी पार्टी के लिए एक भी सीट नहीं छोड़ी गई है। जबकि मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के परिवारों के बीच अब रिश्तेदारी भी कायम हो चुकी है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाजनता परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने संसद में गतिरोध के मुददे पर कांग्रेस का साथ छोडकऱ जिस तरह सरकार के रूख का समर्थन किया है उसमें भी राजद और जदयू को चौकन्ना कर दिया है। नीतिश और लालू को इस समय कांग्रेस को साथ लेने में ज्यादा फायदा नजर आ रहा है क्योंकि तीनों के निशाने पर तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी है जिनकी करिश्माई लोकप्रियता की परीक्षा बिहार विधानसभा चुनावों में होने जा रही है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश के पंद्रहवें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अब तक के सवा साल के कार्यकाल में जितने भी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव संपन्न हुए है उनसे भी अधिक अहमियत बिहार विधानसभा चुनावों की है। प्रधानमंत्री मोदी के स्मृति पटल से अभी वे कड़ी यादे ओझल नहीं हुई होगी जिनके लिए नीतिश कुमार ने कभी खेद व्यक्त करने की आवश्यकता महसूस नहीं की। नीतिश कुमार के कारण ही कई बार मौके आए जब भाजपा को अपमान का कड़वा घूंट पीकर रह जाना पड़ा। नीतिश कुमार ने भाजपा के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन की परवाह न करते हुए भाजपा नेताओं के सम्मान में आयोजित भोज को अचानक रद्द कर दिया था। इसी तरह उन्होंने गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री काल में अपने साथ होर्डिंग्स में मोदी के साथ नजर आने से भी इंकार कर दिया था। जब भाजपा ने दो वर्ष पूर्व नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में गत लोकसभा चुनावों में प्रोजेक्ट करने का फैसला लिया था तब तो नीतिश कुमार ने भाजपा के साथ जदयू के 17 गठबंधन को निर्भयता के साथ तोड़ देने से भी परहेज नहीं किया था। नीतिश कुमार को लोकसभा चुनावों में अपनी लोकप्रियता के अहंकार की कीमत भी चुकानी पड़ी और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाकर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता की बागडोर अपने हाथों में रखने के लिए लालू यादव के साथ अपनी राजनीतिक दुश्मनी भुलाने के लिए राजी होना पड़ा और जब उन्होंने देखा कि जीवनराम मांझी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर अपनी खुद की महत्वाकांक्षाओं को पालने लगे है तो जीतनराम मांझी से कुर्सी वापिस लेने के लिए उन्होंने लालू के साथ मिलकर स्थायी गठबंधन कर अपनी सुशासन बाबू की छवि को दांव पर लगाने का जोखिम भी मोल ले लिया। अब यह स्वाभाविक है कि भाजपा जीतनराम मांझी को अपनीे पाले में लाने की कोशिशों में जुटी हुई है। वह लालू यादव और पप्पू यादव के बीच संबंधों में आई खटासों का लाभ उठाने से भी नहीं चूकेगी।
भाजपा ने यह तय कर लिया है कि नीतिश कुमार की टक्कर में अपनी ओर से किसी भी नेता को आगामी विधानसभा चुनावों में भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं करेगी लेकिन राज्य की जनता के बीच भाजपा के इस फैसले से यह संदेश जाने का खतरा पैदा हो गया है कि भाजपा के पास या तो नीतिश के कद का कोई नेता नहीं है या मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए आतुर नेताओं की संख्या इतनी अधिक है कि किसी एक को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने से दूसरे नेताओं के असंतुष्ट हाने का खतरा है। बहरहाल भाजपा यह तर्क दे रही है कि चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तय न करने की नीति का वह बिहार में अनुसरण करेगी। ऐसी स्थिति में सर्वोत्तम विकल्प यही हो सकता था कि बिहार विधानसभा के चुनावों में पार्टी के प्रचार अभियान का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी करें। प्रधानमंत्री ने अगर यह जिम्मेदारी सहर्ष अपने कंधों पर ओढ़ ली है तो इसका आशय यह भी है कि अपनी करिश्माई लोकप्रियता के बल पर बिहार में भाजपा को सत्ता की दहलीज तक पहुंचा देने का उन्हें पूरा भरोसा है। मोदी ने अपनी सुनियोजित रणनीति के तहत अपने दोनों कट्टर प्रतिद्वंदियों लालू प्रसाद यादव और मुख्यमंत्री नीतिश कुमार पर तीखे हमले भी प्रारंभ कर दिए है। उन्होंने लालू प्रसाद यादव का भुजंग प्रसाद और नीतिश कुमार का चंदन कुमार के रूप में नामकरण भी कर दिया है। उन्होंने लालू यादव पर जेल से ‘दीक्षितÓ होने जैसी व्यंगोक्ति का भी सहारा लेने से परहेज नहीं किया। इसके पहले जब प्रधानमंत्री मोदी बिहार की पहली यात्रा पर आए थे तब मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने उन्हें चौदह माह बाद बिहार आने पर उलाहना दिया था और अपने उसी प्रवास में मोदी ने यह कहते हुए नीतिश कुमार पर निशाना साधा था कि उनके राजनीतिक डीएनए में ही कुछ गड़बड़ है। यू तो प्रधानमंत्री की टिप्पणी राजनैतिक थी परंतु नीतिश कुमार ने उस टिप्पणी को पूरे बिहार का अपमान बताते हुए 50 सैंपल मोदी को भिजवाने की घोषणा की है। जाहिर सी बात है कि बिहार विधानसभा के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के पूर्व ही सभी दलों के प्रमुख नेताओं ने जुमले बाजियों के जिस युद्ध में खुद को झोक दिया है वह आगे चलकर ऐसा रूप भी ले सकता है कि बिहार की जनता भी दांतों तले अंगुली दबाने के लिए विवश हो जाए। मेरी अपनी निजी राय यह है कि प्रधानमंत्री अगर जुमलेबाजियों के इस अप्रिय युद्ध से दूरी बनाए रखकर अगर केवल बिहार के विकास और कानून व्यवस्था की स्थिति से जुड़े सवालों पर अपना ध्यान केंद्रित कर ले तो शायद बिहार की जनता को कही अधिक प्रभावित कर सकेेंगे। निश्चित रूप से बिहार की जनता को प्रधानमंत्री के मुख से ऐसी कुछ गंभीर बाते सुनने में ही सुकून मिलेगा। राज्य की तस्वीर बदल जाने की आश्वस्ति प्रदान करने में मददगार साबित हों। लालू यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने जिन जुमले बाजियों से अपनी पहचान बनाई है उन्हें बिहार की पहिचान बनने से रोकने की जिम्मेदारी अब भाजपा की है जिसके चुनाव अभियान की बागडोर अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं थाम ली है। प्रधानमंत्री स्वयं भी इस हकीकत से वाकिफ होंगे कि उनकी व्यंगोक्तियों का जवाब देने में राजद और जदयू के नेता किसी भी तरह पीछे नहीं रहेंगे। दरअसल बिहार के चुनावों को महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, जम्मू कश्मीर विधानसभाओं से जोडकऱ नहीं देखा जा सकता। मोदी सरकार की चमक में पिछले सवा साल में जो कमी परिलक्षित की जाने लगी है क्या वह वस्तु स्थिति को प्रतिबिंबित करती है। इस बात की परीक्षा भी बिहार के चुनाव परिणाम राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित कर सकते है। इसलिए इन चुनावों में भाजपा को पूरी गंभीरता दिखानी होगी। देश में अब यह आम धारण बन चुकी है कि भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव संबंधी विधेयक को केन्द्र सरकार ने फिलहाल इसीलिए अभी प्राथमिकता सूची से हटा दिया है कि बिहार विधानसभा चुनावों पर उसका कोई प्रतिकूल असर न पड़ सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पार्टी के चुनाव अभियान की बागडोर अगर स्वयं ही थाम रखी है तो उन्हें जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि भाजपा के पास ही बिहार को पिछड़ेपन के कलंक से मुक्ति दिलाने की सामथ्र्य है। मुझे उम्मीद है कि बिहार की जनता अपने मताधिकार के माध्यम से वहां के राजनीतिक दलों को यह संदेश देने में दिलचस्पी दिखाएगी कि जुमले बाजियों से उसका दिल जीत लेने वाले दलों के दिन अब लद चुके है।