जाट लैंड में आसान नहीं होगी गठबंधन की राह

चुनाव डेस्क। एक साल से ज्यादा वक्त तक चले किसान आंदोलन के बाद यह माना जा रहा था कि इस बार भाजपा को पश्चिम यूपी में मुश्किलें आएंगी। कहा गया था कि 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाट और मुस्लिमों के बीच जो खाई पैदा हुई थी, वह किसान आंदोलन ने खत्म कर दी है। ऐसे में यहां की राजनीति में एक बार फिर भाजपा कमजोर होगी और परंपरागत सामाजिक गठजोड़ बनने से रालोद को फायदा होगा। लेकिन चुनाव के ऐलान और प्रत्याशियों की घोषणा के बाद ऐसा होता नहीं दिख रहा है। जाट बहुल जिन सीटों पर रालोद को मजबूत माना जा रहा था, वहीं पर यह गठजोड़ कमजोर होता दिख रहा है। छपरौली, कैराना, सिवालखास से लेकर मांट तक में ऐसी ही स्थिति है। दरअसल जाट समुदाय के एक वर्ग का मानना है कि सपा के साथ गठजोड़ में जयंत चौधरी अच्छा मोलभाव नहीं कर पाए और अपने गढ़ वाली सीटों को ही अखिलेश के हवाले कर दिया। एक तरफ मुजफ्फरनगर जिले की सीटों पर मुस्लिम कैंडिडेट न देने से मुस्लिम वर्ग नाराज है तो वहीं सिवालखास, कैराना और बागपत जैसी सीटों पर मुस्लिम कैंडिडेट देने को लेकर जाट बिरादरी नाराज है। रालोद के पुराने कार्यकर्ता भी जयंत के फैसलों पर सवाल उठा रहे हैं। यही नहीं आगरा की मांट सीट पर तो एक तरफ सपा की ओर से संजय लाठर उतरने जा रहे हैं तो वहीं रालोद के पुराने नेता योगेश नौहवार ने पीछे हटने की बात तो मान ली है, लेकिन भीतरघात का डर सता रहा है।