मुश्किल मोड़ पर मोदी सरकार

s.nihal singh
एस. निहाल सिंह।
मोदी सरकार ऐसे मोड़ पर आन खड़ी हुई है जहां पर उसके कार्यकाल के दूसरे साल का आगाज समस्याओं के सिलसिले के साथ हुआ है। इनमें कुछ समस्याएं ऐसी हैं जो इसकी अपनी देन हैं, कुछ-कुछ वैसी ही जब फुटबाल के मैच में खिलाड़ी अपनी ही टीम पर गोल कर बैठे। इससे पता चलता है कि यह सरकार अभी भी सीखने के क्रम में है। बाकी की समस्याएं वे हैं, जो भाजपा की अपनी प्रवृत्ति और इसके पथ-प्रदर्शक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महत्वाकांक्षा की वजह से उठ खड़ी हुई हैं।
संसद में इन दिनों बने गतिरोध का चौंकाने वाला पक्ष यह है कि कैसे भाजपा अपनी जिद के खंभे पर झूल रही है। पहले सुषमा स्वराज, फिर अरुण जेटली प्रसंग और इसके बाद विरोधी पक्ष द्वारा संसद का कामकाज ठप किए जाने में दिखाया जाने वाला पराक्रम भी उतना ही उल्लेखनीय है, जितना कि मौजूदा वित्त मंत्री का वह बयान है जिसमें उन्होंने समूची संसदीय प्रणाली ठप होने के औचित्य को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक हिस्सा ठहराया है।
सुषमा स्वराज द्वारा कानून के भगोड़े ललित मोदी की खातिर ब्रिटिश प्रशासन से की गई कथित सिफारिश के चलते मोदी सरकार ने कांग्रेस को बैठे बिठाए इस मुद्दे पर उसे घेरने का उपहार खुद ही दे डाला है। इसी तरह राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी उन्हीं ललित मोदी को मदद देने के मामले में फंसती नजर आ रही हैं, जिसने उनके पुत्र के साथ आर्थिक लेन-देन भी किया है। तीसरा मामला वह है जिसमें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सालों तक चले व्यापम घोटाले में दोषी नजर आ रहे हैं।
पहले दो मामलों में इन दोनों नेत्रियों के लिए उचित यही था कि वे स्वयं ही नैतिक आधार पर इस्तीफा देने की पेशकश करतीं क्योंकि यहां पर उनके राजकीय और निजी हितों का टकराव साफ देखने को मिल रहा है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि यूपीए राज के मुकाबले मोदी सरकार में मंत्रियों के इस्तीफे देने का चलन नहीं है। उनका यह कथन गर्वोक्ति से भरा हुआ है और ऐसा कहकर उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना पर कुठाराघात किया है।
यहां पर सवाल विपक्षी पार्टियों के तेज होते विरोध के स्वर को सरकार द्वारा कुंद करने का नहीं है बल्कि नरेंद्र मोदी की उस ईमानदार छवि को नुकसान पहुंचाने का है, जिसके बलबूते पर भाजपा ने यूपीए-2 सरकार को धराशायी कर दिया था। किसी को भी नरेंद्र मोदी के इस धर्मसंकट से सहानुभूति हो सकती है कि कैसे वे वरिष्ठ नेताओं को मंत्रिमंडल से बाहर जाने के लिए कहें, लेकिन ऐसा करने में अनिच्छा या फिर असमर्थता दिखाए जाने से उनकी छवि को ठेस पहुंची है।
मोदी सरकार की बड़ी समस्याओं में एक यह है कि इसने देशी और विदेशी विरोधियों से निपटने के लिए अपनी छवि एक बाहुबली वाली गढ़ ली है। उदाहरण के लिए अरुण जेटली की नादानी है कि एक तरफ तो वे कोयला घोटाले के लिए कांग्रेस पार्टी को जिम्मेवार ठहराते हैं तो दूसरी तरफ उसी से उम्मीद करते हैं कि यह पार्टी एक समान कर व्यवस्था (जीएसटी) लागू करने के विषय पर सरकार के साथ सहयोग करे। इसके अलावा लोकसभा अध्यक्ष द्वारा 25 कांग्रेसी सांसदों की बर्खास्तगी से स्थिति और भी जटिल बन गई है।
राजनीतिक नजरिये से देखा जाए तो संसद को ठप करने में लगी होड़ से देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया दलदल में धंसती जा रही है। सभी पार्टियों के प्रबुद्ध लोगों को एक साथ मिल बैठकर उन बिंदुओं पर एक राय बनानी चाहिए, जिन्हें सदन की कार्रवाई में बाधा डालने से रोकने के लिए वर्जित कार्यÓ की श्रेणी में रखा जाए। सदन के अंदर पोस्टर दिखाना और कक्ष के बीचोबीच उपलब्ध खाली जगह पर आकर हंगामा करना सांसदों की गरिमा के खिलाफ है। भले ही किताबों में इन्हें रोकने के लिए कानून उल्लेखित हैं परंतु जब इनका उल्लंघन बिना किसी डर किया जाता है तो ये नियम जरूरत से ज्यादा नाकारा सिद्ध होते हैं।
गुजरात जैसा राज्य, जहां पर नरेंद्र मोदी अपनी इच्छाओं को मनमाफिक जामा पहना दिया करते थे, इसके मुकाबले राष्ट्रीय परिदृश्य पर परिस्थितियां जटिल हुआ करती हैं और विरोधी पक्ष को चुप कराने की खातिर उन्हें बर्खास्त करने जैसे धाकड़ उपायों की अनुगूंज यहां अलग किस्म की हुआ करती है। यूपीए की दो सरकारों के बाद तुरत-फुरत निर्णय लेने वाला प्रधानमंत्री वाकई भाजपा के लिए एक अतिरिक्त विशेषता है लेकिन विपक्षी पार्टियों को डराने और झुकाने के लिहाज से राष्ट्रीय परिदृश्य बहुत बड़ा और विविधता भरा है।
प्रधानमंत्री की समस्या यह है कि कैसे वे उस गड्ढे से बाहर आएं जिसे उन्होंने स्वयं ही खोदा है। इसका उपाय विपक्ष और खासकर कांग्रेस (जो अब संसद में सिमटकर मात्र 44 सदस्यों वाली रह गई है) को बदनाम करने में नहीं है। 2014 के आम चुनाव ने नरेंद्र मोदी को भारी बहुमत मुहैया करवाया है और शुरू-शुरू में उन्होंने अपने दृढ़ संकल्प वाली कार्यप्रणाली और भव्य दृश्यावली के माध्यम से खुद को पेश करके लाभ उठाया भी।
जैसा कि पुणे के फिल्म और टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक का चुनाव करते वक्त जो नाटकीय घटनाएं देखने को मिलीं, उससे लगता है कि भाजपा के अपने सदस्यों में प्रतिभा की कमी है, तभी तो उसे उन वफादारों पर निर्भर रहना पड़ रहा है जो हिंदुत्व की रट लगाने में तो माहिर हैं लेकिन मौलिक सोच में फिसड्डी हैं। शायद आरएसएस की दुनिया छोटी-सी है और इसका धरातल पौराणिकता से इस कदर गड्डमड्ड है कि मिथकों और सच्चाई में फर्क करना मुश्किल हो जाता है।
देश को उम्मीद यह करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री दिशा में बदलाव लाकर अपनी सरकार के रवैये और कारगुजारी को विविधता से परिपूर्ण देशवासियों के प्रति ज्यादा दोस्ताना और अर्थपूर्ण बनाएंगे। 14 अगस्त की रात को ठीक 12 बजे जब 15 अगस्त की दस्तक के साथ आजाद भारत का निर्माण हुआ था, उस अवसर पर नेहरू जी ने अपने भाषण का आगाज ट्रिस्ट विद डेस्टनी (नियति से पूर्व-नियोजित भेंट) नामक कालजयी पंक्ति से किया था। आगामी स्वतंत्रता दिवस, जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री कार्यकाल का दूसरा अवसर है, अगर चाहें तो इस मौके का इस्तेमाल वे एक नई ट्रिस्ट विद डेस्टनी शुरू करने का संकेत देने के लिए कर सकते हैं।