क्रीमिया में पक रहा है फोड़ा

डॉ. सुधीर सक्सेना। युद्ध किसी ‘फोड़े’से कम नहीं होता। रक्त, पीब और दुर्गंध से भरा हुआ। वह अपने पीछे छोड़ जाता है बदनुमा निशान और दारूण अप्रिय स्मृतियां…
क्या क्रीमिया खतरनाक युद्ध की ओर बढ़ रहा है। क्रीमिया के पूर्व और पश्चिम में जो कुछ घट रहा है,उसमें युद्ध की आहटों को सुना जा सकता है। क्रीमिया में इसके आसार बहुत साफ हैं। क्रीमिया के भविष्य के संदर्भ में पिछली दो सदियों की घटनाएं बरबस ‘हॉट’ करती हैं, पहली 19वीं सदी के मध्य की दो साला जंग और फिर 20वीं सदी में स्तालिन-काल में लाखों तातार मुसलमानों का ‘पर्ज’ यानी शिविरों में सामूहिक यंत्रणा। क्रीमिया की आबादी ज्यादा नहीं है। यही कोई पच्चीस लाख। यह पूर्वी योरोप में काला सागर के उत्तरी तट पर बसा हुआ प्रायद्वीप है। क्रीमिया ‘तातार’ शब्द ‘किरिम’ से निकला है, जिसका अर्थ होता है दीवार। वस्तुत: तातारों का यहां लंबे समय तक प्रभुत्व रहा। तातारों का महत्व और रूतबा घटने का सिलसिला शुरू हुआ, सन् 1783 में यहां रूस की सम्राज्ञी कैथरीन (एकातेरिना) महान के अधिपत्य के बाद। रूस के ताबे में आने के बाद यहां स्लावों का आव्रजन और प्रभुत्व बढ़ा। क्रीमिया दुनियाभर में सुर्खियों में उभरा 19वीं सदी के मध्य में दो साला जंग से। जुलाई 1853 से सितंबर, 1855 के मध्य हुए युद्ध को अनेक इतिहासकार मूर्खतापूर्ण और अनिर्णीत करार देते हैं। लेडी विद द लैंप (फ्लोरेंस नाइटिंगेल) इसी युद्ध में घायलों की अथक सेवासुश्रुषा से चर्चा में आई थीं। इस युद्ध में एक ओर थे फ्रांस, ब्रिटेन, सार्डीनिया और तुर्की और दूसरी ओर था अकेला रूस। सामरिक, धार्मिक और राजनीतिक कारणों से लड़ी गयी इस लड़ाई में दोनों ही पक्षों को क्षति हुई। अलबत्ता योरोपीय राष्ट्र मुख्यत: इंग्लैंड -फ्रांस धुरी, शक्तिशाली रूस की विस्तारवादी नीतियों और हौसलों पर अंकुश लगाने में सफल रही। इस युद्ध की एक और विशेषता रही कि इसकी नियमित रिपोर्टिंग हुई। ‘द टाइम्स’ में विलियम रसेल और रोजर फेंटन ने क्रीमिया-वार की नियमित रिपोर्टिंग की। अंतत: 30 मार्च, 1856 को पेरिस में इंग्लैंड, फ्रांस, आस्ट्रिया, तुर्की, सर्बिया और रूस में संधि हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों, इंग्लैंड, फ्रांस और योरोपीय राष्ट्रों के शासकों ने चैन की सांस ली। मल्दाविया और सर्बिया को आजादी की गारंटी मिली और सबसे बढक़र तुर्की रूस के शिकंजे में आने से बच गया। उसे योरोपीय राष्ट्रकुल में प्रवेश मिला। फ्रांस का गौरव बढ़ा, लेकिन इंग्लैंड को जन-धन की भारी क्षति उठानी पड़ी। क्रीमिया युद्ध का जिक्र इसलिए कि यदि यह युद्ध न होता तो कालासागर और कुस्तुंतुनिया समेत तुर्की पर प्रभुत्व की रूसी महत्वाकांक्षा पूरी हो गयी होती। इस रक्तरंजित प्रसंग से क्रीमिया रूस की दुखती रग बनकर उभरा और करीब डेढ़ सौ साल बाद तज्जन्य ग्रंथि ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की आक्रामक कार्रवाई में प्रभावी मनोवैज्ञानिक भूमिका निभायी। अब आएं बीसवीं सदी के लोमहर्षक प्रसंग पर। द्वितीय विश्वयुद्ध में क्रीमिया को भयंकर तबाही झेलनी पड़ी। सेवस्तोपोल तो बर्बाद ही हो गया। जर्मनी से अयुद्ध संधि से जोसेफ स्तालिन निश्चिंत थे कि अडोल्फ हिटलर रूस की ओर रुख नहीं करेगा। लेकिन हिटलर ने अपना कौल तोड़ते हुए क्रीमिया पर धावा बोल दिया। नात्सी सेना को कब्जे में दिक्कत न हुई. सन् 1941-44 में नात्सियों ने कहर बरपाया। क्रीमिया ने इतने बुरे दिन कभी न देखे थे। अंतत: रेड आर्मी ने सन् 1944 में नात्सियों को खदेड़ कर क्रीमिया फतेह किया। न जाने क्यों स्तालिन के दिमाग में शक की कील धंस गयी कि क्रीमिया की आबादी का एक हिस्सा गद्दार है और उसने जंग में जर्मनी का साथ दिया है। शक का यह धब्बा फैलता गया और उसने ऐसा गुल खिलाया, जिसका किसी को गुमान न था। अप्रैल, सन् 44 की बात है। सोवियत संघ के खुफिया महकमे का मुखिया और अत्यंत विश्वासपात्र बेरिया स्तालिन से मिला। उसके हाथों में एक गोपनीय फाइल थी, जिसमें उन तातार मुस्लिमों की फेहरिस्त थी, जिनके बारे में माना गया था कि उन्होंने ‘गिर्मानिया’ (जर्मनी) की मदद की थी और जिन्हें दंडि़त करना जरूरी था। स्तालिन ने फाइल पर नजर डाली और कुछ लिखा। यह स्तालिन का आदेश था। क्रूर स्तालिन
का कठोर आदेश। सियार के कसैले धुएं में उसका ठहाका देर रात तक गूंजता रहा। गौरतलब है कि स्तालिन और बेरिया दोनों एक ही जार्जियाई मूल के थे। बहरहाल, जुम्मा-जुम्मा आठ रोज बीतने की देर
थी कि मई में, जब तातार बिरादरी के लोग थके-मांदे नींद के आगोश में थे, अचानक उनके दरवाजे भड़भड़ाये जाने लगे। लोग हक्के-बक्के बाहर निकले तो अवाक रह गये और कलप उठे। स्तालिन का फर्मान था कि 15 मिनट में सामान समेटो और घर छोड़ दो। कोई फरियाद नहीं। कोई मोहलत नहीं। इन बेघर अभागे तातारों को मालगाडिय़ों में पशुओं की नाईं ठूंस दिया गया। कई-कई हफ्तों का कठिन कष्टप्रद सफर। यात्रा कईयों के लिए प्राणांतक सिद्ध हुई। पूरे क्रीमिया से, बताते हैं कि करीब 2.30 लाख तातार मुस्लिम बाहर ले जाये गये। इन्हें उज्बेक प्रांत, उराल अंचल और साइबेरिया ले जाया गया। यातना शिविर या पर्ज स्तालिन युग की पहचान बन चुके थे। मकसद था कि क्रीमिया में स्लावों और तातारों का अनुपात बदला जाए। इस लक्ष्य को क्रूरता से हासिल किया गया। इस बीच क्रीमिया पर एक और आपदा टूटी। यह था सन् 1932-33 का दुर्भिक्ष (होल्दोमोर)। गलत कृषि नीतियों से पड़े अकाल ने लाखों लोगों की बलि ली। समय बदला। स्तालिन के बाद आये निकिता ख्रुश्चेफ। स्तालिन के ‘पापों’ का उन्होंने पहला प्रायश्चित यह किया कि क्रीमिया यूक्रेन को गिफ्ट कर दिया। पर्ज का दौर खत्म हुआ। अधिकांश तातार मर खप गये। थोड़े-बहुत अन्यत्र गये या वहीं बस गये। सन् 1967 में तीन सौ तातार आनुष्ठानिक तौर पर क्रीमिया लौटे। गोर्बाचोव के ‘ग्लासनोस्त’ (खुलापन) के दौर में भी कुछ तातारों ने क्रीमिया की ओर रूख किया, लेकिन नये सिरे से खुशहाल जिंदगी बिताना तातारों के नसीब में न था। घड़ी के कांटे घूमते रहे। व्लादिमीर पुतिन के ‘क्रेमिल’ (क्रेमलिन) में आने के बाद तातारों के बुरे दिन फिर लौट आये। सन् 1991 में सोवियत संघ विघटित हुआ। यूक्रेन पुतिन की महत्वाकांक्षा की जद में रहा। रूस के लिए उसके भू- राजनीतिक तकाजे मायने रखते थे। सन् 2010 में यांकोविच के यूक्रेन का राष्ट्रपति बन जाने से पुतिन को इस क्षेत्र में तगड़ा और कारगर मोहरा मिल गया। क्रीमिया का स्लाव बहुल होना उनके ‘गेमप्लान’ के लिए मुफीद था। यूक्रेन का झुकाव जहां योरोपीय यूनियन की ओर था, स्लाव रूसियों का लगाव मस्क्वा से था। नवंबर, 2013 से फरवरी, 2014 के दरम्यान समूचे यूक्रेन में प्रतिरोध-प्रदर्शन हुए। याकोविच ने पहले तो रूस से कर्जा लिया और फिर मस्क्वा पलायन कर गये। रूस के हथियारबंद दस्तों ने धावा बोला और क्रीमिया पर आसानी से कब्जा कर लिया। मार्च, 2014 में जनमत संग्रह हुआ और मार्च, 2014 में सेवस्तोपोल समेत क्रीमिया को रूसशासित प्रांत घोषित कर दिया गया। अमेरिका समेत पश्चिमी राष्ट्रों
और जी-8 ने हाय-तौबा मचाई। जो बाइडन तब अमेरिका के उपराष्ट्रपति थे। जी-8 ने रूस को निष्कासित कर दिया। जनमत संग्रह को अवैध करार दिया गया। लेकिन ये सारी कवायदें रूस की मुश्कें नहीं कस सकीं। इस बीच बताते हैं कि पिछले वर्षों में 1.40 लाख तातार पलायन कर चुके हैं और बड़ी संख्या में तातार प्रताडि़त, कत्ल या गिरफ्तार हुए हैं। इतिहास में क्रीमिया ने फिर-फिर करवटें ली हैं। पुतिन काल में फिर नयी करवट। बायडन अब अमेरिका के राष्ट्रपति हैं। वह कहते हैं कि क्रीमिया यूक्रेन का हिस्सा था और रहेगा। उधर रूस ने 10 अमेरिकी राजनयिकों को निष्कासित किया और आठ को ‘काली सूची’ में डाल दिया। पुतिन क्रीमिया के सामरिक महत्व से बखूबी वाकिफ हैं। काला सागर में रूसी बेड़े का अर्थ योरोप भी जानता है और अमेरिका भी। सन् 2008 में जार्जिया-प्रकरण ने इसकी पुष्टि की है। इससे सीरिया को मदद में भी सुभीता है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत भंडार का लाभ अलग है। जो बायडन भले ही क्रीमिया को यूक्रेन का हिस्सा बताएं और क्रेमलिन को चुनौती दें, केजीबी के मुखिया रह चुके स्लाव-वर्चस्व के हिमायती राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन क्रीमिया पर पकड़ ढीली करना तो दूर रहा फौलादी मु_ी में कुछ और भी कसना चाहें तो आश्चर्य नहीं।