अभिनय की पाठशाला में सियासी दखल

ftii
अतुल सिन्हा।
कला और संस्कृति के नाम पर लंबे समय से ये बहस चलती रही है कि इनका रिश्ता कहीं न कहीं सियासत से होता है। खासकर जब सत्ता बदलती है तो इतिहास और संस्कृति की परिभाषा और चिंतन भी बदलता हुआ दिखता है। देश के तमाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थान इस बदलाव का दंश झेलते हैं और सियासी रंगमंच पर चलने वाली वैचारिक खींचतान का सीधा असर नजर आने लगता है। सवाल यह है कि रचनात्मकता पर सियासी रंग चढ़ाना कितना उचित है। देश के तमाम हिस्सों में कला अपने विभिन्न रूपों में मौजूद है। आदिवासी क्षेत्रों के कलाकार बेहद गरीबी और बदहाली में जीते हुए भी अपनी परंपरा और कला को संजोने में पीछे नहीं रहते। संगीत की दुनिया के तमाम नगीने अपनी फनकारी से अपनी अहमियत बरकरार रखते हैं। रंगों और कूची के कलाकार अपनी अभिव्यक्ति को बेहतर तरीके से सामने लाने में बगैर किसी सियासी गणित के कला-कर्म में जुटे रहते हैं। रंगकर्मी भी अपने अपने तरीके से रंग-कर्म में लगे रहते हैं। तो आखिर सत्ता के साथ संस्कृति के इस घालमेल के पीछे है क्या।
इन दिनों पुणे के फिल्म और टेलीविजन संस्थान के चेयरमैन पद पर गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति का मामला गरमाया हुआ है। पुणे के इस प्रतिष्ठित संस्थान के छात्र लंबे समय से आंदोलन कर रहे हैं। ये कहा जा रहा है कि बीजेपी के हिन्दू दर्शन का असर अब संस्थान पर थोपने की कोशिश होगी और कलाकारों की अभिव्यक्ति की आजादी इससे प्रभावित होगी। इस पद के लिए गजेन्द्र की योग्यता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। सरकारें बदलती हैं तो तमाम संस्थानों और प्रतिष्ठानों के कर्ताधर्ता भी बदल जाते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी भी आपका हक है, ऐसे में विरोध की संस्कृति भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अहम हिस्सा है लेकिन इस बार मामला फिल्म और टेलीविजन के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित माने जाने वाले संस्थान का है, इसलिए इस ग्लैमर इंडस्ट्री में विचारों और कला की आजादी को लेकर हड़कंप-सा मचा हुआ है।
याद कीजिए, अर्जुन सिंह ने जब भोपाल का भारत भवन बनवाया और तत्कालीन सांस्कृतिक सचिव अशोक वाजपेयी ने जब भोपाल गैस कांड के बाद वहां आयोजित कविता उत्सव के दौरान एक विवादास्पद बयान दे दिया तो इसे लेकर किस कदर तूफान उठ खड़ा हुआ था। साहित्य और संस्कृति की खेमेबाजी तब खुलकर सामने आ गई थी। लेकिन वही तमाम विरोधी संस्कृति कर्मी इस बात को अब खुलकर मानते हैं कि साहित्य-संस्कृति के लिए अशोक वाजपेयी और अर्जुन सिंह ने जो किया, वो फिर किसी सरकार ने नहीं किया। उस वक्त देश में राष्ट्रीय स्तर पर संस्कृति नीति का एक मसौदा भी बन गया था और वर्षों तक इसे लेकर बहस-मुबाहिसे भी होते रहे। पुपुल जयकर से लेकर पंडित रविशंकर तक और साहित्य-संस्कृति के तमाम दिग्गजों के नाम इसमें शामिल किए गए, लेकिन संस्कृति नीति महज मसौदे में सिमट कर सरकारी दफ्तरों में धूल फांकती रही।उसी दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में तमाम सांस्कृतिक केंद्र खुले, लोक कलाकारों को मंच देने की कई कोशिशें हुईं, अपना उत्सव से लेकर तमाम ऐसे आयोजनों का सिलसिला चल पड़ा और वामपंथी विरोध के बावजूद कला और संस्कृति कहीं न कहीं अपना वजूद बचाने में कामयाब रहीं। अब ये एक अलग सवाल है कि कारपोरेट संस्कृति ने इन उत्सवों के ज़रिये अपनी कमाई के नए रास्ते तलाशे और कलाकारों को अपने हित में इस्तेमाल किया। लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि इससे कलाकारों को कई मंच मिले और उनकी कला का अंतरराष्ट्रीयकरण भी हुआ।
दरअसल साहित्य और संस्कृति को खेमे में बांटने वाले और इसे सियासत से जोड़ देने वाले ये भूल जाते हैं कि कलाकार, साहित्यकार या संस्कृति कर्मी अपना काम करते हैं। उन्हें अपनी कला में हिन्दू दर्शन या इस्लाम का चित्रण करना, अपनी रचना में किसी खास को बढ़ावा देना या अपने नाटकों में व्यवस्था पर चोट करना या परंपरागत सामाजिक ताने-बाने पर व्यंग्य करना, उनकी अपनी अभिव्यक्ति से जुड़ा मामला है। मूल बात ये कि हमें कला और कलाकार का, साहित्य और साहित्यकार का, फिल्म और फिल्मकार का सम्मान करना चाहिए बशर्ते कि वे हमारे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सामाजिक ताने-बाने को बरकरार रखते हैं। विवादों के लिए या फिर खबरों में बने रहने के लिए कला और संस्कृति का इस्तेमाल करने वाले कभी ईमानदार और संवेदनशील साहित्यकार, कलाकार या संस्कृति कर्मी हो ही नहीं सकते। सरकारें अपने तरीके से चलती रहेंगी। अकादमियों, संस्थानों और सत्ता प्रतिष्ठानों पर उनके च्मन की बातज् होती रहेगी, विरोध होते रहेंगे लेकिन लोकतांत्रिक विरोध की प्रक्रिया के साथ-साथ कलाकार भी अपना काम करते रहेंगे। बेहतर है कि ये तय करने का हक हम दर्शकों और पाठकों के पास ही रहने दें और साहित्य, कला और संस्कृति को किसी खेमे में न बांटें।