आरक्षण की नई चिंताओं में भविष्य के प्रश्न

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पुष्पेंद्र कुमार।
पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के बैनर तले गुजरात में पटेल समाज को जातीय आरक्षण की मांग को लिए हुए सम्मेलन के बाद गुजरात के कई शहरों में हालात बिगड़े, लोगों की जानें गईं, सार्वजनिक व निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचा। प्रकरण में पुलिस की कार्यशैली को लेकर गुजरात उच्च न्यायालय ने नोटिस जारी किए। लेकिन यदि पटेल आरक्षण चाहते हैं, तो इसके लिए अपने आंदोलन को सरदार पटेल और भगत सिंह जैसी शख्सियतों की आड़ में अराजक बना देने और संख्या बल के आधार पर व्यवस्था को बंधक बनाना स्वीकार्य नहीं हो सकता है। उधर, बिना समय गंवाए गुजरात के पटेलों के आरक्षण की मांग को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समर्थन की घोषणा के पीछे मजबूरी यह है कि बिहार में चुनाव होने हैं, जहां जातीय प्रसंगों का बोलबाला है। लेकिन, पटेलों को उनके समर्थन से बिहार में कोई प्रभाव इसलिए नहीं पड़ेगा कि पटेलों के समकक्ष राज्य की कुर्मी जाति पहले ही नीतीश कुमार के वोटबैंक माने जाते हैं। हां, आरक्षण की मांग को समर्थन देने से नीतीश की सुशासन और विकास की छवि प्रभावित हो सकती है। यह फिर से स्पष्ट हुआ है कि पहचानवादी विभाजन बनाम सुशासन व विकास की धाराओं में से, सियासत के लिए, सुविधाजनक विकल्प के तौर पर आरक्षण के भावनात्मक उफानों में बहना क्यों आसान बहाना है? यही वजह है कि लगभग सभी जातियों को किसी न किसी तरह के आरक्षण का नारा दिया जा चुका है।
पटेल आरक्षण की मांग रोचक है। माना जा रहा है कि जातीय राजनीति की तुलना में विकास की राजनीति जन-अपेक्षाओं की चर्चा के केंद्र में हैं। विकास के मॉडल के रूप में माने गए राज्य गुजरात में आरक्षण की ऐसी मांग आर्थिक व सामाजिक तौर पर संपन्न माने जाने वाले पटेल समाज ने की है, जो तीन दशक पूर्व आरक्षण विरोधी खेमे में थे, लेकिन अब खुद को पिछड़ा बता रहे हैं। सवाल आरक्षण के औचित्य पर संदेह का नहीं है, सवाल उसके लक्ष्य, उपलब्धि और भविष्य का है। अंबेदकर ने संविधान सभा में कहा था कि, हजारों जातियों में बंटी हमारी आबादी किस प्रकार एक राष्ट्र हो सकती है? जातियां स्वयं में राष्ट्रविरोधी हैं, वे सामाजिक जीवन में अलगाव पैदा करती हैं, आपस में ईष्र्या और वैमनस्य पैदा करती हैं। यदि हम वास्तव में एक देश के रूप में निर्मित होना चाहते हैं तो हमें इन जातियों की समस्या से पार पाना होगा। प्रश्न है कि आरक्षण की परियोजना से क्या हम एक राष्ट्र बने सके? आरक्षण ने जातियों की समस्याओं का समाधान किया या फिर प्रतिस्पर्धी पिछड़ापन को मजबूत किया? आरक्षण सूची में दर्ज होती जातियों की संख्या में लगातार इजाफा तो हो रहा है, लेकिन सवाल है कि आरक्षण के भीतर ही पिछड़ी हुई जातियों को सरकारी नौकरियों में एकसमान प्रतिनिधित्व मिल पा रहा है?
भारत के प्रख्यात अर्थशास्त्री और पूर्व आरबीआई गर्वनर आईजी पटेल, जो गुजरात के पटेल हैं, अपने संस्मरण को याद करते हुए स्वीकारते हैं कि पटेल गुजरात में पिछड़े या दलित नहीं हैं बल्कि उनका सामाजिक रूतबा अगड़ों से कुछ ही कमतर है, लेकिन जब पुराने दिनों में वे किसी अगड़ी जाति के घर पहुंचे थे तो वहां उन्हें दी गई चाय की प्याली अलग थी। हालांकि इस संस्मरण और वर्तमान के बीच आधी सदी का अंतर है, लेकिन जातीय समस्याओं के हल में कथित पिछड़ों के सापेक्ष कथित अगड़ों की क्या भूमिका है? क्या अगड़ों में जातीय पूर्वाग्रह इस रूप में कम हो पाए कि अंतरजातीय विवाह से लेकर पेशेवर संस्कार तक, अगड़े और पिछड़े वर्ग के बीच भागीदारी, अपवादों के स्तर से आगे बढ़कर सामाजिक आंदोलन बन सकी हो? जबाव है, नहीं। जिस आरक्षण को लेकर खुद अंबेदकर और भारत की संसदीय बहसों ने माना था कि कुछ दशकों के बाद जातियां स्वयं में इतनी क्षमता व चेतनावान हो जाएंगी कि आरक्षण जैसे उपायों की जरूरत ही नहीं होगी, वह आरक्षण आज इस रूप में स्थापित हो चुकी है कि इस अधिकार को पाने और हासिल आरक्षण में दूसरी जातियों की घुसपैठ रोकने के लिए प्रतिस्पर्धी आरक्षणों की पटकथा लिखी जा रही है।
दरअसल आरक्षण में दो वर्ग हैं। पहले में वे जातियां हैं जिन्हें मंडल कमीशन ने आरक्षण के लिए पात्र समझा। इस अधिकार ने उनमें सामाजिक आत्मसम्मान का भाव जगाया, वे निर्णायक जातीय समूह बनते हुए राजनीतिक तौर पर प्रभावशाली बन उभरे। दूसरे समूह में वे जातियां हैं, जाट, गुर्जर, और पटेल जैसी जातियां, जो सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक तौर पर अपने इलाकों में प्रभावशाली ताकत रही हैं, लेकिन अब वे किन्हीं विशेष वर्ग में, या विशेष आरक्षण की मांग करते हुए अपने राजनीति व रोजगार के अवसर में इजाफे के लिए संख्या और संपन्नता के जरिए दबाव बनाना चाहते हैं। ऐसे आरक्षण की मांग, प्रथम दृष्टया, पहले क्रम के आरक्षण लाभ से प्रभावशाली बनकर उभरे जातीय समूहों के समकक्ष खड़ा होने की चेष्टा लगती है, लेकिन संभव है कि वे आरक्षण पर प्रतिस्पर्धी चुनौती रखकर आरक्षण की पूरी बहस को औचित्य की कसौटी पर कसने और नई दिशा देने की कोशिश कर रहे हों। आरक्षण के पक्ष में तर्क यह भी है कि पिछड़ी जातियों में आरक्षण का लाभ जाति के भीतर कुछ लोगों हासिल हुआ, जबकि जातियां पिछड़ी बनी हुई हैं। लेकिन चाहे अगड़ी हों या पिछड़ी, सभी जातियों में ऐतिहासिक रूप से संपन्न और विपन्न तबका है, तो फिर सभी जातियों के पिछड़े गए परिवारों को आरक्षण में क्यों न शामिल किया जाए और विपन्नता को सीमित अर्थ में आधार क्यों न माना जाए? समाजशास्त्रीय व न्यायिक अवधारणा में भारत की जातियां एक स्थाई पहचान हैं। लेकिन यदि आरक्षण के बाद भी उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने के आधार पर आरक्षण को बनाए रखने की पैरवी की जाती है तो फिर क्रीमीलेयर की अवधारणा भी विरोधाभासी हो जाती है। मराठा, जाट, मुस्लिम आरक्षण पर अदालतों की रोक और आरक्षण देने से पहले जातियों के आर्थिक-सामाजिक हैसियत के वैज्ञानिक निर्धारण की अदालत द्वारा की जा रही मांग के सापेक्ष लगता है कि निकट भविष्य में यह प्रमाणित करना होगा कि समग्र कार्यक्षमता और योग्यता पर आरक्षण क्या प्रभाव डालता है? जातीय पहचान के उलझे राजनीतिक समीकरण और विकास में पिछड़ गए उत्तर भारत के राज्यों के तर्क में आरक्षण के विरोधी कहते हैं कि यह नीति योग्यता से समझौता कर रही है। लेकिन आरक्षण के समर्थकों का तर्क यह है कि आरक्षण के बावजूद दक्षिणी व दूसरे राज्य प्रगति कर रहे हैं। लेकिन यह अधूरी तुलना है क्योंकि आरक्षण की उपयुक्तता को परखने के लिए तुलना आरक्षणयुक्त और आरक्षणरहित राज्यों के बीच होनी चाहिए। हमारे पास ऐसे दो राज्य नहीं हैं लेकिन तुलना के दूसरे तरीके की जा सकती है। सरकारी क्षेत्र की सेल और निजी क्षेत्र में कार्यरत टाटा स्टील, जिनके सामाजिक सरोकारों को सराहा जाता है, की तुलना से आरक्षण का समाजशास्त्रीय विश्लेषण हो सकता है। सेल में आरक्षण से आए कर्मचारियों या अधिकारियों के सापेक्ष टाटा स्टील में बिना आरक्षण का लाभ लिए आरक्षण वर्ग वाली जातियों के प्रतिनिधि कर्मचारी या अधिकारी के सामाजिक-आर्थिक व्यवहार और पेशेवर सम्मान के अध्ययन से हमें आरक्षण के लक्ष्य और उपलब्धि पर संकेत मिल सकते हैं। पटेल समाज कृषि संबंधी आजीविका के संकट के कारण दबाव में आरक्षण मांग बैठे हैं तो इससे न तो आरक्षण का औचित्य पूरा होगा, न कृषि सुधर सकेगी। यह जागने ही नहीं, आरक्षण की ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने का भी वक्त है। आज आरक्षण को रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन या फिर प्रोटेक्टिव डिस्क्रिमिनेशन, चाहे जो भी नाम दे दें, लेकिन पटेल आरक्षण की मांग से जाहिर है कि अब प्रश्न ही नए नहीं होंगें, बल्कि नए तरह के समाधान के लिए साहस दिखाना होगा।

राजनीतिक विश्लेषक