अन्याय जैसा नजर न आये न्याय

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अनूप भटनागर।
दक्षिण दिल्ली के ग्रीन पार्क इलाके में स्थित उपहार सिनेमाघर में 1997 में बार्डर फिल्म के दौरान हुए अग्निकांड के मामले में सिनेमाघर के मालिक अंसल बंधुओं को उच्चतम न्यायालय से राहत मिली। उधर मुंबई बम विस्फोट कांड के सिलसिले में जेल में बंद सिने अभिनेता संजय दत्त को किसी न किसी आधार पर घर जाने के लिये रियायतें मिल रही हैं। ये रियायतें समूची व्यवस्था पर सवाल उठा रही हैं।
ऐसी धारणा बनने लगी है कि इस देश में न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के दो पैमाने हैं। पहले पैमाने पर समाज का वह तबका आता है जो पूरी तरह से संपन्न है और राहत पाने के लिये बड़े से बड़े वकील की सेवा लेने में सक्षम है। दूसरे पैमाने पर है समाज का गरीब तबका, जिसके पास न तो धन दौलत है और न ही न्यायपालिका से राहत पाने के लिये महंगे अधिवक्ता। सुशील और गोपाल अंसल के मामले में उच्चतम न्यायालय में सुनाये गये निर्णय की तीखी आलोचना हुई। फिर अदालत ने पांच दिन बाद अपने लिखित फैसले में कहा कि इस अग्निकांड के लिये लापरवाही के जुर्म में अंसल बंधुओं की दो साल की कैद की सजा बरकरार रखी गयी है लेकिन उनकी बढ़ती उम्र और दूसरे तथ्यों के मद्देनजर कहा गया है कि यदि वे कैद की शेष अवधि से बचना चाहते हैं तो उन्हें तीन महीने के भीतर 60 करोड़ रुपए बतौर जुर्माना दिल्ली सरकार को देना होगा। न्यायालय ने दिल्ली अग्निशमन सेवा के अधिकारी एच एस पंवार की उम्र को ध्यान में रखते हुए कहा है कि दस लाख रुपए का जुर्माना भरने पर वह भी कैद की शेष सजा से बच सकते हैं।
मुंबई के 1993 के बम विस्फोट की घटनाओं में गैरकानूनी तरीके से हथियार रखने के जुर्म में पांच साल की सजा भुगत रहे सिने अभिनेता संजय दत्त एक बार फिर 30 दिन के लिये जेल से बाहर आ गये हैं। संजय दत्त की सजा मई 2013 में शुरू हुई थी और इस दौर में उन्हें करीब साढ़े तीन साल ही जेल में बिताने थे, लेकिन इस दौरान किसी न किसी आधार पर उन्हें जेल से छुट्टी मिलती रही है और अब तक वह 146 दिन जेल से बाहर अपने परिवार के साथ गुजार चुके हैं। यह पहला मौका नहीं है जब दौलतमंद और सत्ता-सुख भोगने वाले किसी व्यक्ति को कानून की बारीकियों का लाभ देते हुए या फिर तकनीकी विसंगति के आधार पर राहत मिली है। इससे पहले भी कई मामलों में देखा गया है कि आम जनता की नजर में मामूली अपराध को न्यायपालिका ने अक्षम्य मानते हुए कड़ा रुख अपनाया और समाज के सामान्य वर्ग के व्यक्ति को दोषी ठहराया। हमें भोपाल गैस त्रासदी के मामले में न्यायिक व्यवस्थाओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। यह सर्वविदित है कि औद्योगिक इतिहास की इस सबसे भीषण त्रासदी में दोषियों को कितनी सजा मिली।
लेकिन समाज में एक ऐसा भी तबका है, जिसे उसकी संपन्नता और प्रभाव की वजह से शायद न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से राहत मिलती रही है। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और उनके परिजनों के खिलाफ लंबित आय से अधिक संपत्ति के मामले पर अगर नजर डालें तो बहुत कुछ समझ में आने लगता है। मनमोहन सरकार के शासन काल में सीबीआई ने दावा किया था कि मुलायम सिंह यादव और उनके मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश यादव आदि के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को बंद करने के लिए न्यायालय में रिपोर्ट दाखिल की जा रही है। लेकिन उत्तर प्रदेश के इस परिवार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ याचिका दायर करने वाले वकील विश्वनाथ चतुर्वेदी के अनुसार सीबीआई ने अभी तक न्यायालय में मामला बंद करने की रिपोर्ट दाखिल ही नहीं की है।
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का मामला भी इससे इतर रखकर देखना मुश्िकल लगता है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वाई एस येदिरूयप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को भी इसी नजर से देखा जा रहा है। कोयला घोटाले या फिर 2जी स्पेक्ट्रम से संबंधित मामलों को ही लें। विशेष अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक मामले में बतौर आरोपी तलब किया तो उच्चतम न्यायालय ने उस आदेश पर रोक लगाने के साथ ही सीबीआई को नोटिस जारी करके डा. सिंह की याचिका विचारार्थ स्वीकार कर ली।
इस तरह के ऐसे अनेक दृष्टांत हैं, जिनकी वजह से आम जनता के मन में यह धारणा बनती जा रही है कि न्याय पाने के लिये ऊंची अदालतों तक पहुंचना उनके बस की बात नहीं है क्योंकि महंगे वकीलों की सेवायें लेना उनके सामर्थ्य से बाहर है। न्यायपालिका भी इस तथ्य को महसूस कर रही है और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के माध्यम से उच्चतम न्यायालय से लेकर निचली अदालतों तक जरूरतमंद लोगों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गयी है, लेकिन इसके बावजूद यह महसूस किया जा रहा है कि अगर आप साधन संपन्न हैं तो आपको न्याय जल्द और कभी-कभी अपेक्षा से भी अधिक मिल सकता है।