व्यवस्था करे आत्महत्या को मजबूर

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विश्वनाथ सचदेव।
तेलंगाना के मेडक जिले का एक गांव है रयावरम। सात साल का वम्शी इसी गांव के स्कूल में पढ़ता है। उस दिन वम्शी के पिता अचानक स्कूल आये थे। बेटे को कक्षा से बुलाकर स्कूल के पास की एक चाय की दुकान पर ले गये। उसे बन खिलाया। चाय पिलायी। पांच रुपये दिये और मन लगाकर पढऩे की सलाह दी। सात साल का वम्शी पिता के व्यवहार को समझ नहीं पा रहा था। पर उसे अच्छा लगा था कि पिता ने बन खिलाया। फिर पिता ने बेटे के सिर पर दुलार से हाथ रखकर कहा था कि कभी किसान मत बनना। वम्शी इस बात को भी समझ नहीं पाया। फिर वम्शी के किसान पिता उसे स्कूल में छोड़कर चले गये। फिर कभी नहीं लौटे। उन्होंने आत्महत्या कर ली थी।
यह खबर तो एक अखबार में छपी थी, पर कुल मिलाकर इसका वही हश्र हुआ जो बरसों से देश में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के समाचारों के साथ होता है। किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े इक_े करने वाली संस्थाओं ने एक और आत्महत्या को जोड़ लिया। यह क्रम जारी है। और इन आत्महत्याओं के संदर्भ में पसरती चुप्पी भी जारी है। पिछले 19 सालों में सवा तीन लाख से अधिक किसान देश में आत्महत्या कर चुके हैं। बताया यह जा रहा है कि अच्छे दिन आ रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक साल में किसानों की आत्महत्याओं की दर में 20 प्रतिशत वृद्धि हुई है! रोज किसानों की हालत सुधारने के दावे और वादे किये जा रहे हैं। पर यह सवाल कोई शासक नहीं पूछ रहा कि वम्शी के पिता ने उसे कभी किसान न बनने की सलाह क्यों दी थी, और किसी को इस बारे में सोचने की परवाह नहीं है कि क्या किया जाये कि किसानों को किसानी अभिशाप न लगे। सच तो यह है कि जिस गति से वम्शी के पिता की सलाह का पालन देश में हो रहा है, वह अपने आप में किसी अभिशाप से कम नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि सन् 2001 से लेकर सन् 2011 तक के दस सालों में देश में लगभग 90 लाख लोगों ने खेती करना छोड़ दिया है। शरद पवार जब देश के कृषिमंत्री थे तो उन्होंने किसानों को सलाह दी थी कि खेती की जमीन के लगातार कम होते जाने को देखते हुए ज़रूरी है कि वे अपने बच्चों को खेती के अलावा अन्य व्यवसायों में जाने के लिए प्रेरित करें। उनका तर्क यह था कि ज्यों-ज्यों बच्चों में जमीनें बंटती जायेंगी, खेती से होने वाली उनकी आय का हिस्सा छोटा होता जायेगा और अंतत: स्थिति अलाभकर बन जायेगी। कृषिमंत्री का काम बेहतर कृषि की स्थितियां बनाना होता है, निराशा का माहौल बनाना नहीं। और किसानों द्वारा लगातार की जाने वाली आत्महत्याओं के संदर्भ में तो इस तरह की सलाह माहौल बिगाडऩे वाली ही होगी। बेहतर होता यदि कृषिमंत्री पवार खेती से जुड़े उद्योगों को बढ़ावा देने वाली नीतियों की घोषणा करते। पर इस दिशा में तब की सरकार और अब की सरकार द्वारा कोई गंभीर चिंतन किया जा रहा हो, ऐसा न तब लगा था, न अब लग रहा है। किसान की स्थितियों में कोई सुधार दिखाई नहीं दे रहा।
राजधानी में जंतर-मंतर पर दिल्ली सरकार के एक कार्यक्रम के दौरान जब एक किसान ने पेड़ पर लटक कर आत्महत्या कर ली थी तो टेलीविजन के खबरिया चैनलों के लिए वह एक धमाकेदार खबर थी। कहते हैं राजस्थान का वह किसान आत्महत्या करने के इरादे से वहां नहीं आया था, वह तो अपने नाटकीय कृत्य से स्थिति की गंभीरता का एहसास भर कराना चाहता था। सच्चाई यह है कि हमारे शासकों को और हमारे मीडिया को स्थिति की गंभीरता की चिंता अब भी नहीं है। सरकार को बिहार का चुनावी दंगल देश के किसानों की त्रासदी से ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहा है और मीडिया को लग रहा है कि किसानों की आत्महत्याओं की बात करने से कहीं अधिक टीआरपी किसी राधे मां का तमाशा दिखाने में मिलेगी।
कर्नाटक में पिछली 1 जुलाई से लेकर 10 अगस्त तक के 41 दिनों में 245 किसानों ने आत्महत्या की थी। वम्शी का पिता इन्हीं अभागों में से एक था। राज्य के मुख्यमंत्री ने इस स्थिति के संदर्भ में सिर्फ यही कहा है कि वे इस बार अपने जन्मदिन के उपलक्ष्य में कोई धूमधाम नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि दशहरा भी धूमधाम से न मनाया जाये। पर ऐसा कुछ नहीं दिख रहा जिसे देखकर यह लगे कि सरकार इस त्रासदी के कारणों का पता लगाकर उसके निवारण के प्रति गंभीर है। ऐसा ही उदाहरण महाराष्ट्र का भी है। वहां भी किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। सरकारी आकड़ों के अनुसार इस वर्ष के पहले छह महीनों में राज्य में 1300 किसानों ने आत्महत्या की है। वर्ष 2014 में कुल 1981 किसानों ने आत्महत्या की थी। अर्थात किसानों की आत्महत्या का क्रम और गति बढ़ गयी है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार तो सन् 2014 में राज्य में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 2568 थी। विदर्भ जन आंदोलन समिति के आंकड़े बताते हैं कि भूमिहीन किसानों को भी जोड़ दिया जाये तो 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या चार हजार से अधिक हो जाती है! ये आंकड़े सिर्फ मरने वालों की संख्या भर नहीं हैं, ये इस बात का भी उदाहरण हैं कि जिस खेती पर देश की सत्तर प्रतिशत जनता निर्भर करती है, उसके बारे में शासकों में ईमानदारी और गंभीरता का नितांत अभाव है। जब हमारे शासक इन आत्महत्याओं के कारणों को गिनाते समय प्रेम में विफलता, किसानों की बढ़ती आकांक्षाओं, आदि को भी गिनाना ज़रूरी समझते हैं, तो उनकी समझ पर दया ही आती है। सच तो यह है कि कृषि को लेकर किसी ठोस नीति के बारे में ईमानदार सोच की कमी है। कभी किसानों को नकद-फसलों को अपनाने की सलाह दी जाती है, कभी गन्ने उगाने की बात की जाती है, कभी ड्रिप इरिगेशन को फायदे गिनाये जाते हैं। जरूरत एक ऐसी कृषि-नीति की है जो किसानों की जमीनी हकीकत और देश की जरूरतों से जुड़ी हो। ज़रूरत ऐसी व्यवस्था की है कि किसान को अपनी आवश्यकता के अनुसार और अपनी मेहनत के अनुरूप मेहनताना मिल सके। वह दिन कब आयेगा जब देश का प्रधानमंत्री देश के किसानों से पूछेगा-बताओ तुम्हें कितनी और कैसी सहायता चाहिए? इस तरह की सोच हमारी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा होनी चाहिए, किसी चुनावी आवश्यकता का परिणाम नहीं। आज देश के किसानों को हर तरह की मदद की आवश्यकता है। और देश की किसानी को ठोस नीति की, उसके ईमानदार क्रियान्वयन की। लेकिन दुर्भाग्य से जो दिख रहा है, उससे ऐसा कुछ नहीं लग रहा कि इस संदर्भ में शासक वर्ग में अपेक्षित ईमानदारी है।