ताने-बाने के शहर में तालीम की जागीर

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सौरभ पांडे,
वाराणसी। गंगा-जमुनी तहजीब और बुनकरी के ताने-बाने के लिए मशहूर अपने शहर बनारस में तालीम की एक अपनी जागीर है। ऐसी जागीर, जिसकी बदौलत हजारों छात्र-छात्राओं के जीवन में शिक्षा की रोशनी फैल रही है। शहर के 320 से अधिक मदरसों में 23 को छोड़कर बाकी के खर्चों का प्रबंध चंदे और जकात के तौर पर मिलने वाली रकम से होता है।
इनमें आवासीय मदरसे इस पारंपरिक शहर की खास रवायत जागीर के दम पर चलते हैं। इसके तहत मदरसों में रहने वाले बच्चों के खान-पीने की जिम्मेदारी उन मोहल्लेवालों की होती है, जहां पर वो मदरसा चलता है। सरकारी मदद न मिलने से बेहाल मदरसों के लिए यह रवायत एक बड़ा सहारा बनी है। पीएम का संसदीय क्षेत्र होने के बावजूद यहां मदरसों के विकास और बेहतरी के लिए सरकारी मदद नाममात्र की है। महज 23 मदरसे अनुदानित हैं। बाकी मदरसे आपसी सहयोगए चंदे और जकात की रकम से संचालित होते हैं। आवासीय मदरसों में रहने वाले बच्चों के खाने-पीने का प्रबंध जागीर के जरिये होता है। इसके तहत मदरसों में रहने वाले बच्चों के खाने.पीने का इंतजाम मुहल्ले वाले करते हैं। हर छात्र के लिए अलग.अलग घर से भोजन आता है। बजरडीहा में दो अनुदानित मदरसे हैं, मदरसा गौसिया और मदरसा अहियाउस्सुन्ना। इन्हें सरकार की ओर से अनुदान दिया जाता है। बावजूद इसके ये मदरसे तंगहाली में ही चलते हैं। शकील अंसारी बताते हैं कि चंदे और जकात से तो मदरसे की दूसरी व्यवस्थाएं पूरी कर दी जाती हैं लेकिन हर महीने बच्चों के खाने.पीने का खर्च नहीं जुट पाता। मदरसों में रहने वाले बच्चे आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। ऐसे में उनके खाने-पीने का प्रबंध मुहल्ले के लोगों के जिम्मे कर दिया जाता है। लोग भी इसके लिए खुशी खुशी तैयार हो जाते हैं क्योंकि यह मामला सवाब हासिल करने से जुड़ा है। मदरसा गौसिया में तकरीबन दूसरे शहरों और जिलों के 200 छात्र रहकर पढ़ाई करते हैंए वहीं मदरसा अहियाउस्सुन्ना में ये तादाद करीब डेढ़ सौ है। अनुदान मिलने के बाद भी इन मदरसों का अपने पूरे खर्च के लिए चंदे और जकात पर निर्भर रहना पड़ता है। मदरसा प्रबंधन के मुताबिक फिलहाल मदरसे में कुछ छात्रों के भोजन का इंतजाम किया गया है लेकिन तादाद ज्यादा होने की वजह से अब भी अधिकतर छात्र जागीर के भरोसे हैं।