जान की कीमत पर मुनाफे की तलाश

chama sharmaक्षमा शर्मा। कुछ दिन पहले देर रात मेरे एक परिचित का फोन आया। बहुत डरे और घबराए हुए लग रहे थे। उनकी ऐसी आवाज सुनकर मैं भी घबरा उठी। बोले—तुम्हारे इलाके में कोई ऐसा बकरी वाला रहता है। नहीं सोसायटी में तो ऐसा जानवर पाला ही नहीं जा सकता। अरे भाई सोसाइटी में नहीं, तुम्हारे आसपास तो कई गांव भी हैं। लोगों के घर में बकरियां होंगी ही। बोले कि उनकी पत्नी को डेंगू के लक्षण हैं। किसी ने कहा है कि पपीते के पत्तों का रस और बकरी का दूध पिलाने से ठीक हो सकता है। मैंने उन्हें समझाया कि बेहतर तो यह है कि आप उन्हें किसी अच्छे डाक्टर को दिखाएं। उसके बताए अनुसार इलाज करवाएं। बाद में पता चला कि उनकी पत्नी को डेंगू नहीं हुआ था।ऐसी जब भी कोई बीमारी होती है, चारों तरफ उसी बीमारी का शोर मच जाता है। मीडिया रात-दिन उसे ही बताने-दिखाने लगता है। नीम-हकीम अपने-अपने उपाय बताने लगते हैं। ऐसा महसूस होता है कि डेंगू के अलावा और किसी प्रकार का बुखार देश में रहा ही नहीं है। दिल्ली में कई अस्पतालों ने बहुत से जरूरी आपरेशन तक टाल दिए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने डेंगू से निपटने के लिए विशेष फंड भी बनाया है।
पिछले कुछ सालों से अकसर एक बीमारी को लेकर सारा ध्यान केंद्रित कर दिया जाता है। कभी डेंगू, कभी इबोला, कभी चिकनगुनिया, कभी बर्ड फ्लू तो कभी स्वाइन फ्लू। हर बीमारी के लक्षण कुछ इस तरह से बताए जाते हैं कि हर बीमार को लगता है कि उसे वही बीमारी हो गई है। प्रकारांतर से इसमें बहुत सी कम्पनियों के व्यापारिक हित भी छिपे होते हैं।
कुछ साल पहले देश में बर्ड फ्लू का बड़ा शोर मचा था। जबकि इससे प्रभावित लोगों की संख्या हमारे देश में मुश्किल से दो-तीन ही थी। लाखों मुर्गियां बेमौत मारी गई थीं। सरकार ने भी घबराकर किसी मुसीबत से निपटने के लिए आनन-फानन में दस लाख बर्ड फ्लू के इलाज में काम आने वाले कैप्सूल खरीद लिए थे। बाद में पता चला था कि अमेरिका के बुश प्रशासन से जुड़े रम्स फील्ड की बर्ड फ्लू की दवा बनाने वाली कम्पनियों में बड़ी हिस्सेदारी थी। यह तो एक बीमारी का उदाहरण है। हमारे देश में भी एक तरफ दया, मुसीबत में दूसरों की मदद करने के प्रवचन भारी मात्रा में दिए जाते हैं। लेकिन जैसे ही कोई मुसीबत आती है, प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, बाढ़ और भूकम्प आ जाता है, या किसी रोग की महामारी फैल जाती है, दुनियाभर में एक ऐसा वर्ग हमेशा सामने आ जाता है, जो दूसरों की मुसीबत का फायदा उठाकर चांदी काटता है। आपको हाल ही में नेपाल में आया भूकम्प याद होगा जहां पानी की एक बोतल तक सौ रुपए में बिक रही थी।बीमारियां शायद ऐसा ही स्वर्णिम अवसर होती हैं, जहां अस्पतालों से लेकर पैथलैब तक रोगियों को आंधी के आम समझती हैं। बीमार और उसके परिजन क्या करेंगे। वे आदमी की जान के बदले कोई भी कीमत देने को तैयार हो जाएंगे। यह भी इलाज के नाम पर एक तरह की ब्लैकमेलिंग है। मच्छर मार दवाओं के दामों में भी हो सकता है, भारी उछाल आ गया हो क्योंकि इन दिनों डेंगू और मलेरिया से निपटने के लिए उनकी भारी मांग है। सप्ताह के सातों दिन हम भगवान को याद करते रहते हैं। कान पकड़-पकड़कर अपराधों की क्षमा मांगते हैं। मगर दूसरे पर आन पड़ी मुसीबत जैसे ही दिखती है, मुनाफे की अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं। चाहे यह मुनाफा किसी की जान की कीमत पर ही क्यों न हो।