विरासत की राजनीति से आहत लोकतंत्र

vishwanath_sachdevविश्वनाथ सचदेव। पता नहीं क्या सोचकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में बेटे, बेटी और दामाद का नाम लिया होगा, पर यह सबको पता है कि भारत की राजनीति में बेटों, बेटियों, दामादों, भाइयों, भतीजों की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है। यह सही है कि भाजपा वाले जब राजनीति में परिवारवाद की बात करते हैं तो निशाने पर नेहरू-गांधी परिवार ही होता है, और जब कांग्रेस वाले परिवार की राजनीति पर निशाना साधते हैं तो उनका आशय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुखियाई वाले संघ परिवार से होता है, पर कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक और असम से लेकर राजस्थान तक फैली भारत-भूमि की राजनीति में परिवार के सिर्फ ये दो ही मतलब नहीं होते। हर राज्य में, हर पार्टी में, हर नेता कुल मिलाकर राजनीतिक परिवारों की राजनीति में ही जुटा हुआ है। मज़े की बात यह है कि ऐसा करते हुए वह जनतंत्र की ही दुहाई देता है। नेताओं के जनतंत्र की इसी परिभाषा के अनुसार आज राज्यों में फल-फूल रहे छोटे दलों से लेकर केंद्र की राजनीति के कर्णधार भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दल बिना किसी संकोच के राजनीतिक परिवारों के संवर्धन में लगे हैं।
ताजा उदाहरण बिहार के चुनाव हैं, जहां हर राजनीतिक दल परिवारवादी राजनीति के चंगुल में फंसा नजर आ रहा है। टिकटों के बंटवारे को लेकर जनतंत्र के इन राजपरिवारों में जो घमासान मचा हुआ है, वह हमारे जनतंत्र को लगने वाले घुन को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। हर कथित बड़ा नेता अपने परिवार के सदस्यों को टिकट बांटने में लगा हुआ है और इसमें किसी को कुछ गलत नहीं लग रहा। जिन बेटों, बेटियों, दामादों को किन्हीं कारणों से टिकट नहीं मिल पा रहे, वे खुलेआम विद्रोह कर रहे हैं। रोचक तथ्य यह भी है कि इन विद्रोहियों का दूसरे दल बाहें फैलाकर अपने पाले में स्वागत कर रहे हैं। जीत चाहे किसी भी पक्ष की हो, यह तय है कि सदन में किसी न किसी राजनेता का भाई-भतीजा, बेटा-बेटी या दामाद या साला ही बैठेगा। भाई-भतीजावाद का यह नजारा मज़ेदार तो है, पर जनतंत्र के लिए खतरनाक भी है।
यह कहना तो सही नहीं होगा कि स्थापित राजनेताओं के रिश्तेदार राजनीति में आने लायक नहीं होते, पर यह कहना भी गलत नहीं है कि किसी राजनेता के परिवार से जुड़ा होना राजनीति में आने की योग्यता का आधार नहीं हो सकता, नहीं होना चाहिए। दशकों पहले जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को राजनीतिक विरासत सौंपने का मन बनाया था, तो उनके राजनीतिक विरोधियों ने बड़ा हो-हल्ला मचाया था। तब इंदिरा गांधी ने यह तर्क दिया था कि यदि डाक्टर का बेटा डाक्टर हो सकता है, वकील का बेटा वकील हो सकता है तो राजनेता का बेटा राजनीति में क्यों नहीं आ सकता? सवाल वाजिब था। सारे राजनेताओं को यह आड़ सुहा गयी। अब किसी को संकोच नहीं रहा अपने बेटे-बेटियों या रिश्तेदारों को राजनीतिक संरक्षण देने में। विरासत की राजनीति का मार्ग प्रशस्त करने में इंदिरा गांधी का तर्क गलत नहीं था। लेकिन यह सवाल तो उठना ही चाहिए की किसी राजनेता के परिवार में पैदा होने से ही कोई व्यक्ति राजनेता बनने के काबिल क्यों माना जाये?
पर तर्कों पर कहां चलती है हमारी राजनीति? इसी का परिणाम है कि आज नेता-पुत्र या नेता-दामाद या नेता-संबंधी राजनीतिक पदों पर अपना पहला हक मानने लगे हैं और मान लिया गया है कि राजनीतिक काबिलियत का सबसे बड़ा आधार राजनीतिक घरानों से जुड़ा होना है। कहां नहीं हैं राजनीतिक घराने? कांग्रेस को तो उनके विरोधी मां-बेटे की पार्टी कहते ही हैं, स्वयं भाजपा में कई बड़े नेताओं के बेटे, भतीजे, दामाद राजनीतिक लाभ के दावेदार बने हुए हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां भले ही अपवाद लग रही हों, पर शेष सारे दलों पर तो परिवारवाद हावी ही है। राज्यों के स्तर पर जो पार्टियां बनी हैं, वे तो जैसे राजनेताओं की खानदानी मिल्कियत हैं। तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक इसे देखा जा सकता है। करुणानिधि की द्रमुक हो या बादल का अकाली दल या उमर अब्दुल्ला को विरासत में मिली नेशनल कानफ्रेंस, या मुलायम और लालूप्रसाद यादव के दल, इनमें से किसी को भी पारिवारिक राजनीति के उदाहरणों के अलावा और क्या कहा जा सकता है?
जनतंत्र में राजनीतिक दलों का मतलब कुछ सिद्धांतों, कुछ नीतियों, कुछ मूल्यों के आधार पर राजनीति करने की एक पद्धति के रूप में ही समझा जा सकता है, लेकिन हमारी राजनीति से तो जैसे सिद्धांत, नीतियां, मूल्य कहीं गायब ही हो गये हैं। राजनीति का एक ही मतलब रह गया है- सत्ता, और सत्ता पाने के लिए कोई रास्ता, कोई तरीका ग़लत नहीं माना जा रहा। हमारी आज की और आने वाले कल की राजनीति की दृष्टि से बिहार में होने वाले चुनाव बहुत
महत्वपूर्ण हैं। दूरगामी परिणाम वाले चुनाव हैं यह, और परिणाम सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं रहेंगे। लेकिन जिस तरह की चुनावी राजनीति वहां दिख रही है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाई-भतीजावाद की पकड़ हमारी समूची राजनीति पर और मज़बूत हो सकती है। परिवारवादी आधार के अलावा भी, जिस तरह वहां टिकटों का बंटवारा हो रहा है, वह किसी स्वस्थ राजनीति की आशाएं नहीं जगाता। धन-बल और बाहु-बल जब परिवार-बल के साथ जुड़ जाएं तो राजनीतिक विवेक के लिए कोई जगह ही कहां बचती है? टिकटों के बंटवारे में भ्रष्टाचार के आरोप भाजपा जैसी अपने आप को दूसरों से पृथक बताने वाली पार्टी पर भी लग रहे हैं और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इस पर एक रहस्यमयी चुप्पी साधे हुए है।
प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के अपने भाषण में एकात्मक मानववाद के उद्घोषक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उद्धृत करते हुए अंत्योदय की दुहाई दी थी। महात्मा गांधी ने भी कतार में खड़े आखिरी आदमी के हित को जनतंत्र के औचित्य एवं सार्थकता का निकष कहा था। आज जो राजनीति हम देख रहे हैं, उसमें यह अंत्योदय अथवा आखिरी आदमी का हित सिर्फ जुमला बनकर रह गया है। चुनावी उम्मीदवारों के बारे में भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 1961 में अपनी डायरी में एक महत्वपूर्ण बात लिखी थी: कोई बुरा प्रत्याशी केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छे दल की ओर से खड़ा है। दल के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय गलती की होगी। अत: ऐसी गलती को सुधारना मतदाता का कर्तव्य है।
सवाल उठता है, क्या मतदाता अपने इस कर्तव्य के प्रति सावधान है? क्या मतदाता तथाकथित बड़े राजनेताओं से यह पूछेगा कि पारिवारिक रिश्ते राजनीतिक योग्यता-क्षमता के मानक क्यों बना दिये गये? दुर्भाग्य से यह हमारी राजनीति की एक हकीकत है कि सिद्धांत या मूल्य या आदर्श या सुशासन जैसे मानक हमारी राजनीति का आधार नहीं हैं। जाति, धर्म, धन-बल, बाहु-बल, परिवार-बल के आधार पर चलने वाली राजनीति को सिर्फ मतदाता ही चुनौती दे सकता है। मतदाता इसके लिए तैयार है? नहीं है, तो उसे होना पड़ेगा क्योंकि दांव पर उसी का भविष्य लगा है। राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने हमारी समूची राजनीति को जिस दलदल में फंसा दिया है, उसे उससे उबारने का काम मतदाता को ही करना है। नेताओं की गलती को उसे ही सुधारना है। विवेकशील राजनीति का तकाजा है कि मतदाता, देश का नागरिक अपने विवेक का इस्तेमाल करे। राजनेताओं और राजनीतिक दलों के स्वार्थ मतदाता का हित नहीं साधेंगे।