अंधेरों में तलाशी उजाले की जिंदगी

tarsem singhप्रो. फूलचंद मानव।
डॉ. एस. तरसेम पंजाबी के वरिष्ठ लेखक, रचनाकार, विद्वान हैं। मालवा-पंजाब के साहित्यकारों में इनका विशेष स्थान है। पंजाबी कवि, कहानीकार, आलोचक और चिंतक के तौर पर इनकी पैठ है तो आत्मकथा लेखक के रूप में भी इन्हें सम्मानित किया गया है। संपादक के तौर पर नजरिया (पंजाबी तिमाही) को इन्होंने साहित्यिक पत्रकारिता में लोकप्रिय बनाया हैै।
एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा सुभाष नीरव द्वारा पंजाबी से हिन्दी में (पेपर बैक) छापकर एनबीटी के उच्चाधिकारियों ने सराहनीय और उपयोगी कार्य किया है। मूल आत्मकथा का यह संपादित संशोधित संस्करण है जिसमें बयालिस अध्याय शृंखलाबद्ध हैं। पारिवारिक, व्यावहारिक इंसान की आंख की ज्योति चली जाये या क्षीण हो जाये, इसका अनुभव तो डॉ. एस. तरसेम को ही है जिन्होंने मैट्रिक के बाद की अपनी सारी पढ़ाई अपने बलबूते पर ही मुकम्मल की है, वाया बठिंडा। जीवनसाथी सुदर्शना की प्यारी याद को समर्पित करते हुए रचनाकार ने नैतिक पति-धर्म का निबाह किया है कि हर मोड़ पर जीवन, अपने भूतकाल, गुजरे हुए जमाने से अलग नहीं किया जा सकता। धृतराष्ट्र की भूमिका में सफल सिद्ध हो पाना भले इतना सरल, सहज न हो, एस. तरसेम ने अपनी किसी भी कमजोरी या बुराई पर पर्दा नहीं डाला। किशोरावस्था या प्रारंभिक यौवनकाल से ही नेत्रहीन व्यक्ति सुनता, सहता, अनुभव करता और अपनी प्रतिभा के बल पर चमकता-दमकता, मुख्यधारा का अंग ही नहीं बनता, समाज, साहित्य को मार्गदर्शन भी देता है। लेखक की आत्मस्वीकृति ही है कि धृतराष्ट्र उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड है। साहित्यिक आत्मकथा को डॉ. एस. तरसेम अलग से रूप दे चुके हैं।
लगभग 340 पृष्ठों में आये 42 अध्याय एस. तरसेम के संघर्षमय जीवन की मुंह-बोलती तस्वीर हैं। कक्षा छह की घटनाओं (तब से अब) से शुरू करके आत्मकथाकार ने विवाह और विवाह के बाद तक मैट्रिक, पहली नौकरी, मालवा ज्ञानी कालेज, फिर से तपा के आर्य स्कूल में, पहाड़ों का जीना, मैंने कालेज का मुंह देखा, कांगड़ा की नौकरी, वापस मौड़ मंडी में, रामपुराफूल का आर्य हाईस्कूल, और आखिरी प्राइवेट स्कूल बठिंडा का जो विवरण प्रस्तुत किया है, उस पर रचनाकार की कलम कहीं कांपती नहीं। एस. तरसेम के व्यक्तित्व और उसकी कार्यक्षमता को पुख्ता ही करती है।
इस स्कूल में मुझे मैनेजर के सामने आने पर उसे सलाम करना पड़ता। यही मुझे मुश्किल काम लगता। उसका स्कूल में आना कतई न भाता। हेडमास्टर द्वारा अंदर की बात बताने पर तो मैनेजर मुझे जहर-सा लगता। किसी मान्यताप्राप्त स्कूल के मैनेजर के घर का खर्च भी स्कूल से चलता था। यह बात मेरे मन को कैसे भा सकती थी। पर मैं इस भ्रष्टाचार का कर भी क्या सकता था। बस, अंदर ही अंदर घुटन महसूस करता रहता। आर्य स्कूल में मैंने महीना भी पूरा नहीं किया था कि तीन ऐसी घटनाएं घटित हो गयीं जिनसे मेरी अंतरात्मा बुरी तरह खरोची गयीं। (पृ. 89) हिन्दी अनुवाद में यह पंजाबी का तड़का सुभाष नीरव की ही देन है।
सरकारी मिडल स्कूल धौला से लेकर वसीयत या अंतिका तक भी यहां-वहां ऐसा ही प्रभाव बना रहता है। मुहब्ब्त का एस, जेल यात्रा, कालेज की ओर, स्थायी होने के बाद, जहर का घूंट, महाविद्यालय के काले दिन, वृद्ध आश्रम का स्वप्न, महातीर्थ या आत्मकथन तक के अध्यायों में व्यक्ति और प्राध्यापक एस. तरसेम कशमकश में गुत्थम-गुत्था होते दिखाई पड़ते हैं।
मानव मूल्यों को तरजीह देने वाले किसी भी बुद्धिजीवी को दूसरों की कमियों-कमजोरियों को माफ करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में उसका स्व खुद अपने से ही जूझकर रह जाता है। आशावादी एस. तरसेम धृतराष्ट्र सी इसी आत्मकथा में एक संकल्प भी ले रहे हैं—अब, जबकि बहुत से नेत्रहीनों ने सिद्ध कर दिया है कि वे नेत्रहीनता की मुश्किल को छोड़कर शेष चारों ज्ञानेंद्रियों से समाज के हर प्रकार के काम में पूरी सक्रियता दिखा सकते हैं तो क्यों किसी नेत्रहीन वृद्ध के लिए बनाये जाने वाले आश्रम का सपना पूरा नहीं हो सकता। मैं आशान्वित हूं। सेहत ने साथ दिया तो वृद्धों के लिए एक आदर्श वृद्धाश्रम बनाने का सपना मैं पूरा करूंगा। (पृ. 324, धृतराष्ट्र)।
डॉ. एस. तरसेम के विविध आयामी व्यक्तित्व को देखकर हैरानी होती है और धृतराष्ट्र जैसी इस आत्मकथा से सफलता का संदेश मिलता है कि हिम्मत करे इनसान तो क्या काम है मुश्किल। ऐसी किसी भी आत्मकथा का अनुवाद अंग्रेजी, उर्दू या अन्य भारतीय भाषाओं में हो तो प्रेरक ही सिद्ध होगा।