काशी में 30 टन अंगारों से होकर गुजरा 1437 साल पुराना दूल्हे का जुलूस

Muharram1वाराणसी । भोले बाबा की नगरी में देर रात 1437 साल पुरानी परंपरा निभाई गई। एशिया के इस तरह के इकलौते दूल्हे के जुलूस को देखने के लिए दूर-दूर से काफी लोग काशी पहुंचे। श्या हुसैनए या हुसैनश् कहते हुए इस जुलूस ने 12 किलोमीटर का सफर तय किया। कहा जाता है कि इस जुलूस में उस जंग में शहीद हुए घोड़े की नाल भी शामिल की जाती है। इस नाल को जो पकड़ता है उसे दूल्हा कहा जाता है। उस पर हुसैन की सवारी आती है। इसी वजह से वो दूल्हा 30 टन लकडिय़ों के अंगारों पर से होकर गुजर जाता है और उसे जरा सी भी परेशानी नहीं होती। उसके पीछे-पीछे हजारों लोग भी दहकते हुए अंगारों पर नंगे पांव चल देते हैं।
दूल्हा नाल कमिटी के प्रमुख सदस्य खालिद ने बताया कि इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक 1437 साल पुरानी ये परंपरा आज भी काशी में जिंदा है। इस्लाम के अनुसार जब इमाम हुसैन को जंग में शहादत मिली थी तब उनका घोड़ा भी शहीद हो गया था। उस घोड़े की नाल काशी के शिवाला स्थित इमामबाड़ा में रख गई। इसे सिर्फ इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, पहले महीने की नौवीं तारीख का को बाहर निकाल जाता है। इसके बाद चांद की दसवीं तारीख की सुबह मुहर्रम मनाया गया। खालिद ने बताया कि ये ऐतिहासिक जुलूस निकलने से पहले दूल्हा शिवाला गंगा घाट पर स्नान करता है। इसके बाद नए कपड़े पहनकर आग के 7 चक्कर काटता है। इस इबादत में इतनी ताकत होती है कि दूल्हा 30 टन अंगारों पर से बड़े आराम से नंगे पांव गुजर जाता है। जुलूस में शामिल हुए रहमत अली ने बताया कि दूल्हा पर हुसैन की सवारी आती है और वो शिवालाए भदैनी एअस्सी ए गौरी गंज ए दुर्गाकुंड एरामापुरा ए नई सड़क और लल्लापुरा से गुजरता हुआ आखिर में फातमान पहुंचता है। इन इलाकों में जुलूस के आने से पहले ही लोग सड़कों पर अंगारे बिछाकर रखते हैं। पहले दूल्हा अंगारों पर दौड़ता है और फिर उसके पीछे-पीछे सब चल देते हैं।