मतदाताओं के नजरिए में बिहार चुनाव

pushpendraपुष्पेंद्र कुमार। बीते सप्ताह बिहार की संक्षिप्त यात्रा के दौरान लोगों के बीच बेहद रोचक चुनावी चर्चाओं में शामिल होने का मौका मिला। मूलत: बिहार का होने के बावजूद मैं कह सकता हूं कि आप बिहार को जितना समझ पाते हैं, बिहार उससे भी अधिक समझदारी की उम्मीद करने लगता है। बिहार की राजनीतिक परिपक्वता को यदि लैंडमार्क इयर्स में देखा-परखा जाए तो साल 1977, साल 1990 और साल 2005 व्यापक सामाजिक राजनीतिक बदलावों के साल के रूप में चर्चित रहे हैं। बदलाव के इन लैंडमार्क ईयर्स में अंतराल जिस क्रम में कम हो रहा है, उससे लगता है कि साल 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव दूरगामी बदलाव का गवाह बनने की दहलीज पर है। बिहार के मतदाता आपसी चर्चाओं में बेहद रोचक प्रश्न, अद्भुत समीकरण और हैरान करने वाली सियासी संभावनाओं पर आपस में चर्चा करते हुए अपनी पसंद और रूझान को औचित्यपूर्ण तरीके से जाहिर नहीं होने देते हैं जिससे अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन उनकी चर्चाओं से निकलने वाले सूत्र और संकेत बिहार के राजनीतिक भविष्य और समीकरणों का इशारा कर रहे हैं, और वे निश्चित रूप में वे नहीं हैं जो मंचों की बदजुबानी में दिखाई सुनाई दे रही है।
बिहार का जातीय परिदृश्य लगातार नए प्रयोगों का गवाह बनता रहा है जिसमें सामाजिक गठजोड़ के जरिए राजनीतिक विमर्श निर्मित किया गया है। आरक्षण पर पुनर्विचार की आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान को आम तौर पर सभी भाजपा समर्थकों ने पार्टी के लिए चिंता का कारण बताया। हैरान करने वाली बात यह है कि भागवत के आरक्षण संबंधी बयान पर कथित पिछड़े व दलितों में कोई विशेष चिंता नहीं दिखी। संभवत: इसका कारण वह परिपक्व राजनीतिक प्रशिक्षण है जिसमें वे बखूबी समझते हैं कि आरक्षण को किसी भी प्रकार समाप्त नहीं किया जा सकता है, और यह भी कि आरक्षण आधारित सामाजिक न्याय की अवधारणा को महज सरकारी नौकरियों में आरक्षण के रूप व संदर्भ में परिभाषित कर देने मात्र से यह आंदोलन सीमित और तर्कहीन हो चुका है। लिहाजा वे आरक्षण की सीमाओं से इतर विकास और रोजगार के नए अवसरों पर चर्चा करते नजर आते हैं। आरक्षण पर अब तक सफाई दे रही भाजपा द्वारा दलितों और पिछड़ों के हिस्से से कटौती कर कथित सांप्रदायिक आरक्षण देने की महागठबंधन के षडयंत्र की चर्चा छेडऩे से साफ है कि वह आरक्षण पर सवालों की दिशा बदलने और धु्रवीकरण का प्रयास कर रही है।
बिहार में जातीय गोलबंदियां साफ साफ नजर आती है। जैसा मैने महसूस किया कि जातीय गोलबंदियां या तो लालू-नीतीश के पक्ष में है या फिर एनडीए के पक्ष में कम बल्कि लालू-नीतीश गठबंधन के विपक्ष में अधिक है। मतलब यह कि, जैसा कि मैने पहले भी लिखा है, लालू मुक्त बिहार का सामाजिक राजनीतिक दौर जी चुके लोगों में अभी लालू की सियासी वापसी को लेकर कोई स्पष्ट कारण और तर्क नहीं है। भाजपा को मत देने वाले लोगों में भी नीतीश के मुख्यमंत्रित्व को लेकर विशेष शिकायतें नहीं हैं। ऐसी ही स्थिति नीतीश समर्थकों की है जो लालू से उनके मेलजोल को लेकर असहज हैं। भीषण चुनावी तल्खी के बावजूद नीतीश और भाजपा समर्थक अब भी जदयू-भाजपा गठबंधन को एक नैसर्गिक, टिकाऊ और यहां तक कि भविष्य का समीकरण मानते दिखे। बिहार का मतदाता यह चर्चा भी करने लगा है कि यदि महागठबंधन की सरकार बनी तो नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बन जाएंगे लेकिन राज्य मंत्रिमंडल के अहम मंत्रालयों पर राजद की दावेदारी रहेगी जिससे नीतीश कुमार का सुशासन प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। इस बात को लेकर मैं बेहद आश्वस्त हूं कि बिहार का चुनाव भले ही जातीय समीकरणों पर लड़ा जाए, लेकिन बिहार का चुनाव मूलत: बिहार की पहचान और भावी संकटों की समझ का भी चुनाव है।
बिहार के मतदाताओं के बीच अब बिहार की पहचान का सवाल शामिल होने लगा है जो जातीय नहीं बल्कि जनांकिकीय बदलाव का परिणाम है। मतदाता पूछते हैं कि आखिर लालू प्रसाद यादव अपने तीन दशकों के सियासी सफर के बाद, अब भी रोजगार, विकास, उद्योग जैसे मुद्दों पर कोई वायदा या बात क्यों नहीं करते हैं। क्या बिहार का मतदाता लालू की भंगिभा और भाषा शैली में राजनीतिक और सामाजिक आकांक्षाओं को पूरा होने का आश्वासन पा सकता है, इस सवाल को लेकर नाराजगी यादव समाज में भी है, हालांकि लालू आज भी यादवों के एकमात्र नेता हैं। फिर भी मेरा पहला आकलन है कि चुनाव परिणाम 18-35 साल के युवा यादव मतदाताओं के इस रूख पर निर्भर करेगा कि उनमें से कितने एनडीए को चुनेंगे। महागठबंधन के पक्ष में जातीय अंकगणित होने के बाद भी चर्चाओं में ऐसा लगा कि एनडीए अभी दौड़ से बाहर नहीं हुई है और मतदाता आश्वस्त हैं कि सरकार स्पष्ट बहुमत की ही होगी। टिकाऊ सरकार को लेकर उनकी प्राथमिकताओं में एनडीए को थोड़ी बढ़त मिलती दिखी जिसका कारण संभवत: यह है कि एनडीए की संभावित सरकार में भाजपा की भूमिका, जदयू व राजग के बराबरी वाले सीटों की दशा की तुलना में, अधिक निर्णायक होगी।
बिहार में चुनाव परिणाम को लेकर मेरा दूसरा आकलन यह है कि कांगे्रस के हिस्से में आई चालीस सीटों पर चुनाव परिणाम खासा अहम होगा। यदि इन सीटों पर कांगे्रस पर्याप्त रूप से सफल नहीं होती है तो यह महागठबंधन की सरकार की संभावनाओं के लिए मुश्किल का कारण हो सकता है। हाल ही में एक साक्षात्कार में नीतीश कुमार ने गैरकांगे्रसवाद के दौर का अंत हो चुकने की बात कही है। यदि गैरकांगे्रसवाद के छह दशकों की सियासत का अंत हो चुका है तो स्वाभाविक प्रश्न यह है कि गैरभाजपावाद की आयु कितनी छोटी होगी? दादरी प्रकरण के बाद सद्भाव के सवाल पर सम्मान वापसी करने वाले साहित्यकारों को लेकर कोई बिहार में कोई विशेष चर्चा नहीं दिखी लेकिन यह मुस्लिंम मतदाताओं के चुनावी निर्णय को और स्पष्ट करने में, महागठबंधन के पक्ष में, मददगार है। जातीय समीकरणों और नीतीश की कथित लोकप्रियता के आधार पर महागठबंधन के जीत और भावी सरकार को मान लिया जाए तो दो बातें स्पष्ट हैं, पहला कि भाजपा की यह पराजय उसके संवाद की दिशाहीनता को जाएगा जिसमें डीएनए से लेकर दादरी, भागवत से लेकर वीके सिंह तक जिम्मेदार हैं। दूसरा कि नीतीश बतौर मुख्यमंत्री लगभग उसी भूमिका में होंगे जिसतरह गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने यूपीए प्रधानमंत्री मनमोहन सरकार की बैठकों में तर्क, तथ्य और प्रश्न उठाकर गुजरात को मॉडल स्टेट और खुद को बेहतर प्रशासक साबित कराया था। बिहार में महागठबंधन सरकार बनने पर 2015 से ही राजनीतिक विरोध की तीक्षणता चरम पर जा पहुंचेगी लेकिन यदि एनडीए की सरकार बनती है तो उत्तरप्रदेश चुनाव भाजपा बनाम सपा होगा और साल 2017-19 के दरम्यान भारी राजनीतिक गहमागहमी रहेगी। 2014 के चुनाव में भाजपा ने वोटबैंक के मान्य और परंपरागत समीकरणों के विपरीत, उन्हें खारिज करते हुए सफलता पाई थी। 2015 में बिहार का चुनाव सेकुलरवाद के जरिए गैरभाजपावाद की मुहिम की परीक्षा और वोटबैंक के परंपरागत समीकरण की वापसी के परीक्षण का निर्णायक चुनाव भी है। बिहार का मतदाता मानता है कि भाजपा ने मौजूदा विधायकों के निकट संबंधियों को सीटें देकर अवधारणागत बढ़त का मौका गंवाया है जबकि इन प्रत्याशियों विधानपरिषद या राज्यसभा में भेजे जाने का मौका भी हो सकता था। जाहिर है, मतदाता अधिक बेहतर राजनीति करता है।

लेखक-राजनीतिक विश्लेषक