साइकिल और घड़ी की परफारमेंस पर टिकी निगाहें

mulayam-pawarदीपेश सिन्हा, पटना। बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव के घमासान में सपा एवं राकांपा भी अन्य पार्तियों के साथ तीसरा मोर्चा बनाकर उतरी हैं। इस चुनाव में सपा, राकांपा, एसजेडी (डी), एनपीपी ने मिलकर तीसरा मोर्चा बनाकर अपना प्रत्याशी उतारे हैं। उनका यह मोर्चा बिहार चुनाव में तीसरा कोण बना हुआ है। वैसे पिछले चुनावों में सपा एवं राकांपा का प्रदर्शन यहां बहुत लचर था। अब फिर यह देखना है कि सपा की साइकिल या राकांपा की घड़ी यहां कितना चल पाएगी या पिछले चुनावों की भांति दोनों निचले पायदान पर रहेंगी। समाजवादी पार्टी देश के सबसे बड़े राज्य यूपी की सबसे ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी है। अभी वह वहां सत्ता पर है। मुलायम सिंह यादव स्वयं संभालते रहे। मुलायम सिंह देश के परिपक्व एवं समझदार नेताओं में से एक हैं। वह उप्र की अपनी संसदीय ताकत की बदौलत केन्द्र में कई बार मंत्री का पद संभाल चुके हैं। वह केन्द्रीय रक्षा मंत्री का दायित्व भी संभाल चुके हैं। एक मर्तबा प्रधानमंत्री पद के लिए भी उनका नाम भी सामने आया था। कांग्रेस से वैचारिक मतभेद के चलते शरद पवार ने पार्टी छोड़ राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का गठन किया जिसे कई राज्यों में बेहतर प्रतिसाद मिला किन्तु महाराष्ट्र उसका गढ़ सिद्ध हुआ। वहां उसे क्षेत्रीय पार्टी के रूप में कामयाबी मिली। कालांतर में महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ उसकी सरकार बनी। पार्टी में शरद पवार सदैव सुप्रीमो एवं सर्वेसर्वा की स्थिति में रहे किन्तु राकांपा कांग्रेस की साझी सरकार के वह मुख्यमंत्री नहीं बने। पार्टी में शरद पवार सदैव सुप्रीमो एवं सर्वेसर्वा की स्थिति में रहे किन्तु राकांपा कांग्रेस की साझी सरकार के वह मुख्यमंत्री नहीं बने। इसकी अपेक्षा उन्होंने केन्द्र में कांग्रेस की सरकार में केन्द्रीय मंत्री बनना जरूर स्वीकार किया। कांग्रेस से पृथक होकर राकांपा बनी थी। इसलिए कई राज्यों में उसके एक-दो विधायक भी चुने हुए किन्तु उन राज्यों में राकांपा और ऊपर उठ नहीं पाई। दोनों केन्द्रीय नेताओं पर तरह-तरह के आरोप लगे हैं। मुलायम सिंह यादव पर आय से अधिक संपत्ति का मामला लंबित है। मुलायम की पकड़ उप्र में एवं शरद पवार की पकड़ महाराष्ट्र तक सीमित है। वहां भी उनका प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। दूसरे राज्यों में इन दोनों का प्रभाव मामूली है। वैसे भी दूसरे राज्यों के क्षत्रपों की छोटी पार्टियों की बिहार की राजनीति में कभी ज्यादा नहीं चली है। सन् 2000, से लेकर 2010 तक हुए चार चुनावों का इतिहास देखें तो अपने अपने राज्यों में वहां शासन की बागडोर संभालने वाली दोनों प्रमुख पार्टियां सपा एवं राकांपा बिहार में दो-चार सीटों को छोड़कर बाकी पर जमानत भी नहीं बचा पाई। बिहार के पिछले चुनावोंं में सपा राकांपा का प्रदर्शन लचर था। 2010 में बिहार में जब चुनाव हुआ, राकांपा सपा दोनों की स्थिति और भी बदतर रही। राकांपा ने तब 171 एवं सपा ने 146 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे किन्तु दोनों को एक भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली। अलबत्ता राकांपा के 168 एवं सपा के 140 प्रत्याशियों की जमानत जरूरत जब्त हो गई। इस चुनाव में राकांपा को 1.82 प्रतिशत एवं सपा को 0.55 प्रतिशत वोट मिले। सन् 2000 से 2010 के बीच बिहार में हुए किसी भी चुनाव में सपा एवं राकांपा दोनों में से किसी को भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली हालांकि दोनों तब स्वतंत्र रूप से मैदान में उतरे थे। पहली मर्तबा दोनों दल अन्य दलों के साथ गठबंधन अर्थात् तीसरा मोर्चा बनाकर उतर हैं जबकि बिहार की सियासी स्थिति पूर्व की अपेक्षा अत्यंत कठिन है और ऐसी स्थिति में जीत किसी के लिए भी आसान नहीं है। अब सवाल यह है कि बिहार के विधानसभा हेतु हो रहे चुनाव महाभारत में दलों के दलदल के बीच सपा की साइकिल या राकांपा की घड़ी कितनी चल पाएगी। राकांपा एवं सपा कौन कितने पानी में है, यह 8 नवंबर के दिन मतगणना से ही पता चल पाएगा।