काउंटर रेवोलुशन के दौर में

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चंद्र सेन। आप कहां थे? जब 1984 हुआ? कश्मीरी पंडितों को मारा जा रहा था। मुजफ्फरनगर, हाशिमपुर इत्यादि दंगे तो मोदी ने नहीं किए थे? आपातकाल में आपको कोई इनटॉलेरेंस क्यों नहीं दिखा। मोदी का विरोध करने के लिए आप लोग दादरी-बाबरी और गुजरात बीच में लेकर आ गए हैं। देश को बदनाम किया जा रहा है। पाकिस्तान चले जाओ। आप कांग्रेसी चमचे हैं। आप से यह सब कांग्रेस करवा रही है।
अक्सर ऐसी ही बातें बी.जे.पी. सरकार के समर्थक बोलते-सुनाई देते हैं। क्या किसी मुद्दे पर अपनी बात रखना किसी विशेष सरकार का समर्थक बनना है? क्या यह गतिविधियां सिर्फ आज ही उत्पन्न हो रही हैं या, इतिहास के साथ इसका कोई सम्बंध भी है? इस बात में कोई शक नहीं है कि ये दोनों राजनीतिक पार्टियां (बी.जे.पी/कांग्रेस) कोई अलग सोच नहीं रखती हैं। इनका इतिहास और विचारधारा एक ही है। तब हम इस पूरे प्रकरण को कैसे देखते हैं? देश और विदेश में प्रधानमंत्री मोदी के विरोध के निहितार्थ क्या हो सकते हैं। क्या हम इस इंटोलरेंस की बहस को सिर्फ यह कहकर नकार देंगे कि ये खाए अघाये लोगों की एक साजिश है और जान-बूझ कर अन्य मुद्दों को छुपाया जा रहा है?
देश में जो असहिष्णुता पर बहस चल रही है वास्तव में वह बहस है ही नही। बीजेपी और आर.एस.एस. के नेतृत्व में जो हिन्दू राज्य की कल्पना आज उफान पर है वह कोई नयी बात नहीं है। भारतीय राजनीति में यह शुरुवात स्वाधीनता संग्राम के समय कांग्रेसी नेताओं के द्वारा की गई थी जिसका नेतृत्व खुद महात्मा गांधी ने किया था। राम राज्य की कल्पना और हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए गांधी ने खुद पहली बार अमरण-अनशन किया था जिसकी परिणति पूना पैक्ट के रूप में हुई।
जब किसी समाज की नींव ही वर्चस्व, असहिष्णुता, भाई-चारे का गला-घोटने, अपनी ही महिलाओं को दोयम दर्जे का मानने और समाज के एक बड़े हिस्से का हर स्तर पर शोषण और बहिष्कार पर टिकी हो तो हम कैसे मान ले कि वही समाज-राज्य भविष्य में कोई फासीवादी रुख नहीं अख्तियार करेगा। हिंदू समाज जातियों के खाचों मे बटा एक ढ़ांचा है, जो बराबरी और सहिष्णुता को सिरे से खारिज करता है। इसका मूल कार्य सामुदायिक-द्वेष को बढावा देना है।
देश में बुद्धिजीवियों-लेखको को धमकाया-मारा जा रहा है जिससे एक नयी बहस का जन्म हुआ है। देश के कुलीन तबको ने देश के हालात पर जो चहल-कदमी की है वो सराहनीय है। वैज्ञानिको, सेलिब्रिटिज, रचनाकारों और रंगकर्मियों ने इन परिस्थितियों का विरोध अपने-अपने तरीके से किया है। आंदोलनकर्मी/रचनाकार पंसारे, दभोलर और कलबुर्गी की हत्या ने इस विरोध को और तेज कर दिया है।
समाज को सही दिशा देने वाले लोगों में विद्वानों और संस्कृति-कर्मियों (कल्चरल एक्टिविस्ट) का महत्व्पूर्ण स्थान होता है। यदि ऐसा है तो क्यों लेखकों और पढऩे-लिखने वालों को डराया और मारा जा रहा है? क्या ये कोई नई घटना है या इसके बीज इतिहास मे कहीं हैं? डा. अम्बेद्कर का मानना है कि इस हिंसा की जड़ें बौद्ध धर्मावल्बियों के जनसंहार में है। पुश्यमित्रशुंग द्वारा पूरे बौद्ध-समाज और उनके इतिहास को खत्म करना एक तरीके का कांउटर रिवोल्युशन था। जिसने ब्राह्मणवाद को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये वही दौर था जिसने हिंदू धर्म और हिंदू राज्य की स्थापना की। आगे चलकर यही गांधी के रामराज्य का आदर्श बना। यह विचारधारा भारतीय समाज को समता और बंधुत्व नहीं सिखाती बल्कि इसे एक राष्ट्र बनने की राह में रोड़ा भी लगाती है।
पिछले वर्ष नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बी.जे.पी. की सरकार आयी है, तभी से संघ के नेताओं और मंत्रियों ने हिंदू राज्य की अवधारणा की वकालत तेजी से शुरू कर दी है। इस विचारधारा और हिंसा का पुरजोर तरीके से विरोध हुआ है। भारतीय इतिहास में ऐसा कम ही हुआ है जब, लोग सड़कों से लेकर संसद तक अपना विरोध प्रदर्शित कर रहे हों। देश के माहौल पर जो बहसें हो रही हैं, उस पर कई सवाल उठने जायज हैं।
पहला सवाल असहिष्णुता शब्द पर है जिसके इर्द-गिर्द बहस हो रही है। भारतीय समाज और वर्तमान सरकार की नीतियों के परिपेक्ष्य में इस शब्द का कोई मायने नही रह जाता है। हजार वर्षों से लेकर अब तक गुलामी की जिंदगी जी रहे दलितों, महिलाओं, कश्मीर पर भारतीय राज्य का दमन, उत्तर-पूर्वी राज्यों पर हो रहे नस्लीय और राजकीय दमन को क्या हम इनटोलरेंस कहेंगें? विकास के नाम पर आदिवासी समाज को नक्सली घोषित किया गया। उनके संसाधनों को लूटा गया। खाप पंचायत और ब्राह्मणवाद के गठजोड से महिलाओं के ऊपर कहर बरपाया गया। अल्पसंख्यकों को घर में घुसकर मारा गया। इस समुदाय को आतंकवादी घोषित कर पूरी कौम को बुश के चश्मे से देखा गया। क्या यह सब इनटोलरेंस जैसे शब्दों से ढका जा सकता है?
पूरे विश्व में यह मुहिम एक राजनीति और विचारधारा के तहत छेड़ी जा रही है। संविधान और अम्बेद्कर के प्रयासों से लाभाविंत हो चुके दलितों और महिलाओं पर दुबारा मनुस्मृति लादने की साजिश ही मोदी और आर.एस.एस का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। यह एक तरह से वही काउंटर रेवोलुशन है जो पुश्यमित्र शुंग ने बौद्धों के साथ किया था। इनटोलरेंस से आगे जा कर सवाल पूछने कि जरूरत है। यह समय हिंदू राज्य की मंसा को ध्वस्त करने का है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल्यों पर आधारित समाज गढऩे कि जरूरत है।

लेखक- (शोध छात्र)
अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान
जे. एन. यू.
ये लेखक के अपने विचार हैं