गणि राजेन्द्र विजय: रोशनी जिनके साथ चलती है

gani rajendraललित गर्ग। देशभर में अनेक स्वस्थ समाज निर्माण के अभियान चले और चलते हैं। और हर अभियान के समकक्ष या नकल के रूप में नाम बदलकर भी अभियान चलाए गये। पर सुखी परिवार अभियान, जो स्वस्थ पारिवारिक मूल्यों एवं नैतिक मूल्यों के उत्थान का अभियान है, इसके समकक्ष कोई अभियान दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। ऐसे अभियान का प्रभाव तभी हुआ है जब अभियान के पीछे गणि राजेन्द्र विजय जैसा तपस्वी और दूरदर्शी व्यक्तित्व है एवं जीवनदायिनी तथा कथनी-करनी में समानता रखने वाले हजारों कार्यकर्ता हैं। ठीक इसी प्रकार देश में यात्राएं भी बहुत हुई हैं व होती रहती हैं। पैदल यात्राएं हमारी संस्कृति व जन जीवन की एक बहुत पवित्र विधा रही है। इससे लोक जीवन को बहुत नजदीक से देखा जा सकता है। पर कालान्तर में इन्हें राजनैतिक रंग दिया जाता रहा है। अत: यात्राओं के प्रति भी लोगों के दृष्टिकोण में अन्तर आ गया।
जैन साधु-साध्वियां सदैव ही पैदल विचरण करते हैं। सुखी परिवार अभियान के प्रणेता गणि राजेन्द्र विजय पिछले 30 वर्ष में करीब-करीब पूरे देश की पैदल यात्रा कर चुके हैं। गणि राजेन्द्र विजय एक ऐसा व्यक्तित्व है जो आध्यात्मिक विकास और नैतिक उत्थान के प्रयत्न में तपकर और अधिक निखरा है। वे आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये लम्बे समय से प्रयासरत है और विशेषत: आदिवासी जनजीवन में शिक्षा की योजनाओं को लेकर जागरूक है, इसके लिये सर्वसुविधयुक्त करीब 12 करोड की लागत से जहां एकलव्य आवासीय माडल विद्यालय का निर्माण उनके प्रयत्नों से हुआ है, वहीं कन्या शिक्षा के लिये वे ब्राह्मी सुन्दरी कन्या छात्रावास का कुशलतापूर्वक संचालन कर रहे हैं। इसी आदिवासी अंचल में जहां जीवदया की दृष्टि से गौशाला का संचालित है तो चिकित्सा और सेवा के लिये चलयमान चिकित्सालय भी अपनी उल्लेखनीय सेवाएं दे रहा है। अपने इन्हीं व्यापक उपक्रमों की सफलता के लिये वे कठोर साधना करते हैं और अपने शरीर को तपाते हैं। एक-एक दिन में वे 50-50 किलोमीटर की पदयात्राएं कर लेते हैं और इन यात्राओं में आदिवासी के साथ-साथ आम लोगों में शिक्षा के साथ-साथ नशा मुक्ति एवं रूढि़ उन्मूलन की अलख जगाते हैं। इन यात्राओं का उद्देश्य है शिक्षा एवं पढऩे की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना है। हर आदमी अपने अन्दर झांके और अपना स्वयं का निरीक्षण करे। आज मानवता इसलिए खतरे में नहीं है कि अनैतिकता बढ़ रही है। अनैतिकता सदैव रही है- कभी कम और कभी ज्यादा। सबसे खतरे वाली बात यह है कि नैतिकता के प्रति आस्था नहीं रही।
यात्राएं गणिजी के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, इनदिनों वे सम्मेदशिखरजी की यात्रा पर यात्रायित हैं। वे इन यात्राओं में प्रतिदिन सुबह से शाम तक हजारों लोगों से सम्पर्क करते हैं, उन्हें ग्रामीण भाषा में समझाते हैं। उन्हें अपना गौरव प्राप्त करने का, अपने होने का भान कराते हैं। उनका कहना है कि आदिवासी समाज को उचित दर्जा मिले। वह स्वयं समर्थ एवं समृद्ध है, अत: शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिये स्वयं आगे आएं। एक तरह से एक संतपुरुष के प्रयत्नों से एक सम्पूर्ण पिछडा एवं उपेक्षित आदिवासी समाज स्वयं को आदर्श रूप में निर्मित करने के लिये तत्पर हो रहा है, यह एक अनुकरणीय एवं सराहनीय प्रयास है। लेकिन इन आदिवासी लोगों को राजनीतिक संरक्षक भी मिले, इसके लिये वे राजधानी दिल्ली में इस वर्ष चातुर्मास किया और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से सम्पर्क स्थापित कर आदिवासी जीवन के दर्द से उन्हें अवगत कराया।
भारतीय समाज में जिन आदर्शों की कल्पना की गई है, वे भारतीयों को आज भी उतनी ही श्रद्धा से स्वीकार हैं। मूल्य निष्ठा में जनता का विश्वास अभी तक समाप्त नहीं हुआ। व्यक्ति अगर अकेला भी हो पर नैतिकता का पक्षधर हो और उसका विरोध कोई ताकतवर कुटिलता और षड्यंत्र से कर रहा हो तो जनता अकेले आदमी को पसन्द करेगी। इन्हीं मूल्यों की प्रतिष्ठापना, गणि राजेन्द्र विजय की यात्रा का उद्देश्य है।
त्याग, साधना, सादगी, प्रबुद्धता एवं करुणा से ओतप्रोत आप आदिवासी जाति की अस्मिता की सुरक्षा के लिए तथा मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठापित करने के लिए सतत प्रयासरत हैं। मानो वे दांडी पकड़े गुजरात के उभरते हुए ‘गांधीÓ हैं। इसी आदिवासी माटी में 19 मई, 1974 को एक आदिवासी परिवार में जन्म गणि राजेन्द्र विजयजीम मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में जैन मुनि बन गये। बीस से अधिक पुस्तकें लिखने वाले इस संत के भीतर एक ज्वाला है, जो कभी अश्लीलता के खिलाफ आन्दोलन करती हुए दिखती है, तो कभी जबरन धर्म परिवर्तन कराने वालों के प्रति मुखर हो जाती है। इस संत ने स्वस्थ एवं अहिंसक समाज निर्माण के लिये जिस तरह के प्रयत्न किये हैं, उनमें दिखावा नहीं है, प्रदर्शन नहीं है, प्रचार-प्रसार की भूख नहीं है, किसी सम्मान पाने की लालसा नहीं है, किन्हीं राजनेताओं को अपने मंचों पर बुलाकर अपने शक्ति के प्रदर्शन की अभीप्सा नहीं है। अपनी धून में यह संत आदर्श को स्थापित करने और आदिवासी समाज की शक्ल बदलने के लिये प्रयासरत है और इन प्रयासों के सुपरिणाम देखना हो तो कंवाट, बलद, रंगपुर, बोडेली आदि-आदि आदिवासी क्षेत्रों में देखा जा सकता है।
इतना ही नहीं यह संत गृहस्थ जीवन को त्यागकर गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिये जुटा है, इनका मानना है कि व्यक्ति-व्यक्ति से जुड़कर ही स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र की कल्पना आकार ले सकती है। स्वस्थ व्यक्तियों के निर्माण की प्रयोगशाला है – परिवार। वे परिवार को सुदृढ़ बनाने के लिये ही सुखी परिवार अभियान लेकर सक्रिय है। उनका मानना है कि समाज में सुखी गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए सहिष्णुता की बहुत जरूरत है, जिसकी आज बहुत कमी होती जा रही है। सहन करना जानते ही नहीं हैं। पत्नी हो, मां-बेटे, मां-बेटी, भाई-भाई, भाई-बहन, सास-बहू, गुरु-शिष्य कहने का अर्थ है कि प्राय: सभी में सहन की शक्ति की कमी हो गई है।
एक व्यक्ति अपने भाई को सहन नहीं करता, माता-पिता को सहन नहीं करता और पड़ोसी को सहन कर लेता है, अपने मित्र को सहन कर लेता है। यह प्रकृति की विचित्रता है। सहन करना अच्छी बात है। लेकिन घर में भी एक सीमा तक एक-दूसरे को सहन करना चाहिए, तभी छोटी-छोटी बातों को लेकर मनमुटाव व नित्य झगड़े नहीं होंगे।
गणि राजेन्द्र विजयजी का मानना है कि इन्सान की पहचान उसके संस्कारों से बनती है। संस्कार उसके समूचे जीवन को व्याख्यायित करते हैं। संस्कार हमारी जीवनी शक्ति है, यह एक निरंतर जलने वाली ऐसी दीपशिखा है जो जीवन के अंधेरे मोड़ों पर भी प्रकाश की किरणें बिछा देती है। उच्च संस्कार ही मानव को महामानव बनाते हैं। सद्संस्कार उत्कृष्ट अमूल्य सम्पदा है जिसके आगे संसार की धन दौलत का कुछ भी मौल नहीं है। सद्संस्कार मनुष्य की अमूल्य धरोहर है, मनुष्य के पास यही एक ऐसा धन है जो व्यक्ति को इज्जत से जीना सिखाता है।
गणि राजेन्द्र विजयजी बच्चों को कच्चे घड़े के समान मानते हैं। उनका कहना है उन्हें आप जैसे आकार में ढालेंगे वे उसी आकार में ढल जाएंगे। मां के उच्च संस्कार बच्चों के संस्कार निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि सबसे पहले परिवार संस्कारवान बने माता-पिता संस्कारवान बने, तभी बच्चे संस्कारवान चरित्रवान बनकर घर की, परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ा सकेंगे। अगर बच्चे सत्पथ से भटक जाएंगे तो उनका जीवन अंधकार के उस गहन गर्त में चला जाएगा जहां से पुन: निकलना बहुत मुश्किल हो जाएगा। बच्चों को संस्कारी बनाने की दृष्टि से गणि राजेन्द्र विजय विशेष प्रयास कर रहे हैं।
एक समय था जब भारत में चरित्र को अधिक महत्व दिया जाता था। सौ वर्ष पहले प्रथम विश्वधर्म सभा में स्वामी विवेकानंद अमेरिका गये हुए थे। वहां उनके कपड़ों को देखकर कुछ अंग्रेज महिलाओं ने उन पर व्यंग्य किया। स्वामीजी ने शांतिपूर्वक उनकी बात सुनते हुए सहज उत्तर दिया-बहनों! आप उस देश में रहती हैं जहां आदमी की कीमत कपड़ों से आंकी जाती है, पर मैं एक ऐसे देश से आया हूं जहां आदमी की कीमत उसके कपड़ों से नहीं अपितु उसके चरित्र से होती है।
सचमुच आदमी की इज्जत कपड़े नहीं होते। बाहर की चमक-दमक भी आदमी की इज्जत नहीं है। आज की भोगवादी संस्कृति ने उपभोक्तावाद को जिस तरह से बढ़ावा दिया है उससे बाहरी चमक-दमक से ही आदमी को पहचाना जाता है। यह बड़ा भयानक है। उससे ही अपसांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलता है। वही आदमी श्रेष्ठ है जो संस्कृति को शालीन बनाये। वही औरत शालीन है जो परिवार को इज्जतदार बनाये। परिवार इज्जतदार बनता है तभी सांस्कृतिक मूल्यों का विकास होता है। उसी से कल्याणकारी मानव संस्कृति का निर्माण हो सकता है और इसी ध्येय से गणि राजेन्द्र विजयजी आदिवासी जनजीवन में नयी उमंग, नया उत्साह, नयी संभावनाओं एवं सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित कर रहे हंै।
भारत को आज सांस्कृतिक क्रांति का इंतजार है। यह कार्य सरकार तंत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता है। सही शिक्षा और सही संस्कारों के निर्माण के द्वारा ही परिवार, समाज और राष्ट्र को वास्तविक अर्थों में स्वतंत्रा बनाया जा सकता है। इसी दृष्टि से हम सबकों गणि राजेन्द्र विजय के मिशन से जुडना चाहिए एवं एक स्वस्थ समाज निर्माण का वाहक बनना चाहिए। आओ हम सब एक उन्नत एवं आदर्श आदिवासी समाज की नींव रखें जो सबके लिये प्रेरक बने।
सुखी परिवार अभियान द्वारा गुजरात के छोटा उदयपुर एवं बडोदरा जिले के आदिवासी अंचल कवांट में निर्मित हुए एकलव्य आवासीय मॉडल विद्यालय एक क्रांतिकारी मोड है। आदिवासी जनजीवन के लिए सेवा, शिक्षा, जनकल्याण की विशिष्ट योजनाएं सुखी परिवार अभियान के द्वारा लम्बे समय से संचालित की जा रही है। मेरी दृष्टि में गणि राजेन्द्र विजयजी के उपक्रम एवं प्रयास आदिवासी अंचल में एक रोशनी का अवतरण है, यह ऐसी रोशनी है जो हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसी समस्याओं का समाधान बन रही है। अक्सर हम राजनीति के माध्यम से इन समस्याओं का समाधन खोजते है, जबकि समाधान की अपेक्षा संकट गहराता हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि राजनीतिक स्वार्थों के कारण इन उपेक्षित एवं अभावग्रस्त लोगों का शोषण ही होते हुए देखा गया है। गणि राजेन्द्र विजयजी के नेतृत्व में आदिवासी समाज कृतसंकल्प है रोशनी के साथ चलते हुए इस आदिवासी अंचन के जीवन को उन्नत बनाने एवं संपूर्ण मानवता को अभिप्रेरित करने के लिये।
गणि राजेन्द्र विजयजी के आध्यात्मिक आभामंडल एवं कठोर तपचर्या का ही परिणाम है आदिवासी समाज का सशक्त होना। सर्वाधिक प्रसन्नता की बात है कि अहिंसक समाज निर्माण की आधारभूमि गणि राजेन्द्र विजयजी ने अपने आध्यात्मिक तेज से तैयार की है। अनेक बार उन्होंने खूनी संघर्ष को न केवल शांत किया, बल्कि अलग-अलग गुटों को एक मंच पर ले आये। जबकि गुट व्यापक हिंसा एवं जनहानि के लिये तरह- तरह के हथियार लिये एक दूसरे को मारने के लिये उतावले रहते थे। हिंसा की व्यापक संभावनाओं से घिरे इस अंचल को अहिंसक बनाना एक क्रांति एवं चमत्कार ही कहा जायेगा। प्रारंभ में सभी विशिष्ट लोगों एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने गणि राजेन्द्र विजयजी से निवेदन किया कि आप इन हिंसक आदिवासी क्षेत्रों को छोड़ दें, यहां के लोगों को बदलना बहुत मुश्किल है। लेकिन गणिजी इसके लिये तैयार नहीं हुए और कहा कि यही तो हमारी वास्तविक चुनौती है और हम इससे डर कर पलायन करेंगे तो कौन इन लोगों को मार्ग दिखायेगा? अहिंसा की बात कैसे साकार होगी? कैसे लोगों के दिलों में घर कर गयी नफरत एवं घृणा दूर होगी? अविवेक एवं नासमझी की स्थितियों में कब तक लहू बहता रहेगा? अपने संकल्प पर दृढ़ होकर गणिजी इस हिंसा एवं तनावभरी स्थितियों के बीच गये और हिंसक गुटों को अपने उपदेशों से प्रेरित किया। अनेक बार बड़ी-बड़ी हिंसाएं टली। अहिंसा केवल उपदेश नहीं व्यवहार में चरितार्थ होते हुए देखी गयी। सचमुच आदिवासी लोगों को प्यार, करूणा, स्नेह एवं संबल की जरूरत है जो गणिजी जैसे संत एवं सुखी परिवार अभियान जैसे मानव कल्याणकारी उपक्रम से ही संभव है, सचमुच एक रोशनी का अवतरण हो रहा है, जो अन्य हिंसाग्रस्त क्षेत्रों के लिये भी अनुकरणीय है। गणि राजेन्द्र विजयजी की विशेषता तो यही है कि उन्होंने आदिवासी उत्थान को अपने जीवन का संकल्प और तड़प बना लिया है। आदिवासी जन-जीवन में भी बहुत उजाले हैं,लेकिन इन उजालों को छीनने के प्रयास हुए है, हो रहे हैं और होते रहेंगे। आज बाहरी खतरों से ज्यादा भीतरी खतरे हैं। हिंसा और अलगाव की कई चुनौतियां हैं, जो समाधान चाहती है। पर गलत प्रश्न पर कभी भी सही उत्तर नहीं मिला करते। जब रोटी की जरूरत हो तो रोटी ही समाधान बनती है। रोटी के बिना आप किसी सिद्धान्त को ताकत का इंजेक्शन नहीं बना सकते।