शाकाहार का बढऩा शुभ संकेत है

vegetableललित गर्ग।
इन दिनों दुनियाभर में शाकाहार का चलन बढ़ रहा है। जिन समाजों में मांसाहार का प्रचलन अधिक रहा है, वहां भी बहुत से लोग मांसाहार छोड़कर शाकाहारी खानपान अपना रहे हैं। कई देशों में शाकाहार एक व्यापक आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है और वहां के खानपान में शाकाहार को प्राथमिकता मिल रही हैं। जबकि हमारे देश की संस्कृति अहिंसा की संस्कृति रही है और शाकाहार को अहिंसक जीवनशैली माना जाता रहा है। हमारे यहां तो शाकाहार बिना किसी आन्दोलन के लोकप्रिय होना चाहिए और ऐसा हो भी रहा है। शाकाहार क्रांति की सफलता की संभावना और भी अधिक हो सकती है, पर दुर्भाग्यवश हाल के समय में इसने विकृत रूप ले लिया है। कतिपय राजनीतिक एवं साम्प्रदायिक कारणों से शाकाहार का प्रचलन जिस गति से होना चाहिए, वैसा न हो पाना विडम्बनापूर्ण ही कहा जायेगा।
हाल ही में शाकाहार संबंधी राष्ट्रव्यापी सर्वे की एक रिपोर्ट रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने जारी की है। यह सर्वे दो वर्ष पहले किया गया था, इसकी रिपोर्ट जारी करने में देरी होना भी एक विवाद का विषय है। लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है। जारी रिपोर्ट बताती है कि देश में शाकाहारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, यह शुभ है और संतुलित समाज व्यवस्था एवं सृष्टि के उन्नयन के लिये जरूरी भी है। जबकि आज भी भारत के करीब 70 फीसदी लोग मांसाहारी हैं।
भारत के शाकाहार क्रांति की सफलता में जहां राजनीति आडे आ रही है वही कुछ सांप्रदायिक और संकीर्ण कट्टरवादी तत्व घुस आए हैं जो शाकाहार का विरोध धार्मिक कट्टरता के आधार पर कर रहे हैं। न केवल वैचारिक बल्कि जहां-तहां उन्होंने इसके लिए हिंसक हमले भी होते रहे हैं। दरअसल, शाकाहार का दुष्प्रचार इनका मकसद नहीं है। इसकी आड़ में वे अपने राजनीतिक स्वार्थों को साधना चाहते हैं। जबकि शाकाहार न केवल स्वास्थ्य बल्कि आर्थिक एवं धार्मिक दृष्टि से उपयोगी है। फिर भी कुछ लोगों के लिये यह एक तमाशे का विषय है। बेहद विवादित पुस्तक ‘वाई आई एम नॉट ए हिंदूÓ को लेकर चर्चित कांचा इलैया ने शाकाहार को राष्ट्रवाद विरोधी बताया। उन्होंने इस बात को दुर्भाग्यपूर्ण माना है कि अब हमने बीफ खाना छोड़ दिया। इस वजह से हमारे दिमाग का विकास नहीं हो रहा है। अब यहां पर्याप्त प्रोटीन नहीं है।
इस तरह के बयान एवं पूर्वाग्रह गुमराह करते हैं। मांसाहारी मनुष्य यह समझते हैं कि मांस खाने से शरीर में अन्न, फल-फूल, दूध, दही की अपेक्षा अधिक शक्ति आती है, यह एक भ्रम है। वैज्ञानिक दृष्टि से जांच करने पर पता चला है कि शाकाहारी व्यक्ति मांसाहारियों से अधिक स्वस्थ और बलिष्ठ होते हैं। वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार मंास में सूखे चने, मटर, चावल, गेहूं, जौ, घी, मलाई, बादाम, किशमिश आदि से कम शरीर पोषक शक्ति के अंश होते हैं। अत: साधारण व्यक्ति भी चना, मटर, चावल खाकर मांसभक्षी की अपेक्षा अधिक बलवान बन सकता है।
घास-पत्ती खाने वाले गाय, बैल, हाथी आदि की अपेक्षा मांसाहारी सिंह में बल अधिक नहीं होता। उसमें क्रूरता और चपलता अधिक होती है। इसी कारण स्फूर्ति से झपटकर वह दूसरे पशुओं को मार डालता है। भारी बोझ उठाना, बोझ खींचना आदि बल परीक्षण के कार्यों में सिंह बैल, घोड़ा, भैंस आदि की बराबरी नहीं कर सकता। कभी हाथी की पकड़ में जब सिंह आ जाता है तब हाथी उसे अपने एक पैर से कुचलकर या सूंड में पकड़कर जमीन पर पटक देता है और क्षणभर में मार डालता है। द्वंद्वयुद्ध में जंगली सूअर भी सिंह को पीछे हटा देता है।
इसलिए मांस खाने से अधिक बलवान होने की मान्यता गलत है। कुछ व्यक्तियों का कहना है कि, ”अहिंसा का आचरण करने से मनुष्य का हृदय कोमल हो जाता है। अत: वह देश, जाति, धर्म आदि की रक्षा करने के लिए वीर योद्धा नहीं बन सकता। जैनियों के अहिंसा प्रचार के कारण भारत देश अपनी स्वतंत्रता खोकर लगभग आठ सौ वर्षों तक परतंत्र बना रहा।ÓÓ उन लोगों की यह मान्यता गलत है अहिंसा मनुष्य को दीन, हीन, निर्बल प्राणी के लिए दयालु तो अवश्य बनाती है, किन्तु कायर नहीं बनाती। इसलिए यह कहना था कि शाकाहार या अहिंसा भाव के कारण मनुष्य दुर्बल या साहसहीन हो जाता है, ठीक नहीं है। भारत को विदेशी दासता से मुक्ति में अहिंसा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत की संस्कृति अहिंसा की संस्कृति रही है। दुनिया का कोई भी धर्म हिंसा नहीं सिखाता। जो लोग धर्म के नाम पर हिंसा फैलाते हैं वे या तो धर्म को समझते नहीं या धर्म की व्याख्या अपने अनुकूल कर देेते हैं।
शाकाहार के दुष्प्रचार पर नियंत्रण सम्पूर्ण मानवता के लिये जरूरी है। क्योंकि यही खानपान की प्रणाली सबसे उपयुक्त, पौष्टिक एवं गुणयुक्त है। जिस तरह केे तथ्य सामने आ रहे हैं, उससे शाकाहार क्रांति को बल मिल रहा है। यह बात भी सामने आई कि शाकाहार से हृदय रोग और कैंसर का खतरा कम किया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल में कुछ खास किस्म के मांस खाने से कैंसर बढऩे की आशंका वाली रिपोर्ट जारी की है। इस तरह कई सोच के मिल जाने के कारण शाकाहार क्रांति विश्व स्तर पर मजबूत हुई है और दिनोंदिन लोकप्रिय होती जा रही है। सृष्टि को बचाये रखने, जीव-जंतुओं के प्रति करुणा व अहिंसा की सोच के कारण विश्व मानवता शाकाहार को तेजी से अपना रही है।
यह विडम्बनापूर्ण ही कहा जायेगा कि खानपान की उपयुक्त प्रणाली पर चिन्तन की बजाय हमारे यहां इसे संकीर्ण दृष्टि से देखा गया है। शाकाहार हो या मांसाहार हमारे देश में ऐसे मसले हैं, जिन्हें अमूमन खानपान के गुण-दोष के बजाय एक धार्मिक एवं साम्प्रदायिक प्रश्न के रूप में लिया जाता है। इसलिए शाकाहार या मांसाहार का प्रचलन तेज होने या उनमें गिरावट आने की खबरें जीत और हार के नजरिये से ही देखी जाती रही है।
हमारे देश में जानबूझकर शाकाहार को विवादित बनाया जाता रहा हैं, जबकि किसी अन्य देश में शाकाहार-मांसाहार को लेकर वैसा द्वंद्व या विरोधाभास कहीं भी नहीं दिखता। वहां यह महज खानपान की एक प्रणाली है, जिसके गुण-दोष को लेकर बहसें चलती रहती हैं। स्वाद और सेहद संबंधी अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर लोग अपनी आदतें बनाते या बदलते हैं, नैतिकता या धार्मिकता से इसका कोई मतलब नहीं होता। अपने यहां नैतिकता और धार्मिकता की अतिशयोक्ति ने ऐसी स्थिति पैदा कर रखी है कि आहार से जुड़ा एक मसला न केवल कानून-व्यवस्था की समस्या बन जाता है बल्कि चुनावी मुद्दा बन कर सरकारें बनाने-बिगाडऩे की सामथ्र्य भी हासिल कर लेता है।
विश्व स्तर पर शाकाहारी आंदोलन की मजबूती का एक कारण यह है कि पशु-पक्षियों के प्रति करुणा रखने वाले लोगों में वृद्धि हुई है। अरबों पशु-पक्षियों के प्रति इतनी क्रूरता बरती गई है कि उनकी न जाने कितनी प्रजातियां लुप्त हो गई हैं या खतरे में हैं। इस जानकारी से पशु-पक्षियों के अधिकारों के आंदोलन का विस्तार हुआ। इंसान की तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या और घटते जीवन-जंतुओं के असंतुलन को दूर करने के लिये शाकाहार क्रांति को बल मिल रहा है। मांसाहार पर नियंत्रण इस आंकलन के अनुसार भी जरूरी है कि एक किलो मांस हासिल करने के लिए पांच किलो अनाज पशुओं को पहले खिलाना पड़ता है। इस आधार पर कुछ अर्थशास्त्री इस नतीजे पर पहुंचे कि यदि मीट की खपत बहुत तेजी से बढ़ेगी तो अगले कुछ वर्षों में धरती इसके लिए जरूरी अनाज का उत्पादन नहीं कर पाएगी। खाद्यान्नों की बेतहाशा महंगाई के चलते हर जगह रसोई का खर्चा बहुत बढ़ जाएगा।
इधर देश की सरकारें मांस का उत्पादन बढ़ाने के लिये नयी टैक्नोलॉजी स्थापित करती रही है। मीट टैक्नोलॉजी यानि अधिक पशु बलि यानि निरीह और बेजुबान पशुओं को पैनी मशीनों द्वारा काटने की साफ-सुधरी और सुगम व्यवस्था। सोचकर किसी भी अहिंसा में विश्वास रखने वाले व्यक्ति का हृदय कांप उठेगा। उनका भी, जो यह व्यवस्था करेंगे, यदि वे क्षणभर को उन कटने वाले पशुओं की कतार में स्वयं को खड़ा हुआ महसूस करें। इसीलिये मांसाहार की बजाय शाकाहारी खाने पर जोर पूरी दुनिया के हित में है और यही कल्याणकारी भी है।