आनंदीबेन का वानप्रस्थ

anandiben patelदेश में इस वक्त पांच महिला मुख्यमंत्री हैं, जिनमें से एक गुजरात की आनंदीबेन पटेल ने सोमवार को फेसबुक पर अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी और उनकी पार्टी बीजेपी ने आनन-फानन इसे स्वीकार भी कर लिया। यह अभी साफ नहीं है कि उन्होंने इस्तीफे का फैसला अपनी इ’छा से किया है, या उन्हें इसके लिए मजबूर किया गया है। मगर इतना स्पष्ट है कि 75 साल की जिस उम्र सीमा के हवाले से यह फैसला लिया और स्वीकृत किया बताया जा रहा है, वह कुछ अन्य नेताओं पर उतनी सख्ती से लागू नहीं की जा रही।
सीधी बात यह है कि आनंदी बेन का मुख्यमंत्री बने रहना पार्टी आलाकमान को असुविधाजनक लगने लगा है और यही बात इस मामले में निर्णायक रही। गुजरात पिछले कुछ समय से जैसी अस्थिरता से गुजर रहा है, उसे देखते हुए यह फैसला अस्वाभाविक भी नहीं लगता। नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सही या गलत, पर गुजरात की छवि सर्वाधिक तेजी से विकास करते और हर मोर्चे पर तेजी से आगे बढ़ते राÓय की बनी हुई थी, जिसे आनंदीबेन बरकरार नहीं रख सकीं। मगर, थोड़ी बारीकी से देखें तो प्रदेश की छवि को बिगाडऩे वाली जो दोनों प्रमुख घटनाएं इस बीच हुईं, उनके लिए आनंदीबेन सरकार की कोई नीति या उसका कोई फैसला जिम्मेदार नहीं है।
लंबे समय से जिस पटेल समुदाय को संपन्न और समर्थ मान लिया गया था, उसी का एक बड़ा हिस्सा खुद को वंचित महसूस करता रहा और इधर उसे ऐसा लगने लगा है कि अगर सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिल जाए तो उसकी स्थिति सुधर सकती है। इस समूह को ऐसा सोचने और इस मांग पर आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करने में संघ से जुड़े संगठनों की कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका रही हो तो भी उसके लिए सीधे तौर पर आनंदीबेन या उनकी सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता। दलित समूह के साथ Óयादती भी गुजरात के लिए कोई नई बात नहीं है। ऐसे में दलित आक्रोश को भी आनंदीबेन सरकार की किसी गलती का नतीजा नहीं बताया जा सकता।
दूसरे शब्दों में कहें तो गुजरात में बीजेपी की मौजूदा परेशानियां ऐसी नहीं हैं, जिनके मुख्यमंत्री बदलने भर से हल हो जाने की उम्मीद की जा सके। वैसे भी चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री बदल देने की रणनीति समय की कसौटी पर खरी नहीं उतरी है। इस पूरे मामले का एक अहम पहलू यह भी है कि पिछले कुछ समय से राÓयों के ताकतवर नेताओं में टेलर मेड स्टेट मशीनरी खड़ी कर लेने का ट्रेंड दिखा है। चाहे आंध्र प्रदेश में वाईएस राजशेखर रेड्डी रहे हों या गुजरात में नरेंद्र मोदी, इन नेताओं ने कामकाज का एक ऐसा तरीका विकसित किया जो उनके लिए तो मुफीद रहा, पर उनके उत्तराधिकारी उसमें फिट नहीं बैठ सके। ऐसे में चेहरा बदलने का नुस्खा सरकार की छवि सुधारने में शायद ही कारगर साबित हो। हां, इससे बीजेपी के अपनी प्रयोगशाला में ही हाथ-पांव फूल जाने के संकेत जरूर मिल रहे हैं, जो उसके लिए अ’छी बात नहीं है।