शंभूनाथ शुक्ल।
इस समय भी देश में अनगिनत पुल और इमारतें ऐसी हैं जो अपनी मियाद पूरी कर चुके हैं और जर्जर अवस्था में खड़े हैं। वे किसी भी समय ध्वस्त हो सकते हैं और एक जरा-सा भी प्राकृतिक हादसा सैकड़ों लोगों की जान ले सकता है पर इसे लेकर शासन-प्रशासन किसी में भी फुर्ती नहीं दिखाई दे रही है। ताजा मामला मुंबई-गोवा हाईवे के महाड जिले के सावित्री नदी पर बने पुल के अचानक ध्वस्त हो जाने का प्रकाश में आया है। इसमें कितनी जानें गईं, यह अभी स्पष्ट नहीं हो सका है। दो अगस्त की रात साढ़े 11 बजे तेज बारिश और उफनती सावित्री नदी पर बना पुल अचानक ढह गया। काफी देर बाद पता चला कि यह नदी दो बसें और एक स्कार्पियो कार समेत कई वाहन लील गई है।
अठारहवीं सदी में जब तमाम यूरोपीय कंपनियां व्यापार के मकसद से भारत आने लगीं तो यहां व्यापार करना उनके लिए आसान नहीं था। यह देश बहुत बड़ा था और रास्ते इतने दुर्गम कि भारत जैसे विशाल देश पर व्यापार करने के लिए यूरोपीय कंपनियों को काफी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। उस जमाने में व्यापारियों के काफिले चला करते थे और अपनी सुरक्षा के लिए वे निजी सेनाएं रखते थे। उनके पहले सिर्फ अरबी और परसियन सौदागर अथवा देसी साहूकार ही अपने काफिले लेकर चलते थे। मगर यूरोपीय लोग अपने साथ यूरोप की तमाम तिलिस्मी चीजें लाए थे। ये चीजें वैज्ञानिक आविष्कार थे जो वहां पर औद्योगिक क्रांति के चलते उपजे थे। मगर भारतवासी तो दूर, पूरा एशिया ऐसे आविष्कारों से अनजान था। इनके लिए इन आविष्कारों के चलते व्यापार भी आसान हुआ और उसका फैलाव हुआ। अपने आविष्कारों के उपयोग से उन्होंने ट्रेनें बनाईं और सड़क परिवहन के लिए घोड़ागाड़ी या बैलगाड़ी की बजाय मोटरगाड़ी बनाई। अपने परिवहन को सुगम बनाने के लिए उन्होंने रेल-पटरियों और सड़कों का जाल फैलाया तथा पुल बनवाए। भारत को आजाद हुए सत्तर साल होने को आ रहे हैं पर पूरे देश में अधिकांश पुल वही हैं जो अंग्रेज बना गए थे। वे अपनी मियाद पूरी कर चुके हैं मगर उन पर ट्रैफिक की आवाजाही जस की तस है। उलटे लोड और बढ़ा है।
अगर इस बात पर विचार किया जाता कि जो ढांचे आज से सौ या उससे भी अधिक साल पहले ब्रिटिश सरकार ने अपनी सुविधा हेतु बनाए थे, उनकी मियाद अब पूरी हो चुकी है तथा उनके स्थान पर नए पुल या अन्य ढांचे बनाए जाएं तो शायद वह हादसा नहीं होता जो दो अगस्त की रात मुंबई से करीब 175 कि.मी. दूर सावित्री नदी पर बने पुल के ढह जाने से हुआ। इसमें दो बसें लापता हैं और कई अन्य वाहन भी। इस बात का भी कोई रिकार्ड नहीं है कि जब सावित्री नदी का यह पुल बहा तो उस पुल पर से कितने वाहन गुजर रहे थे। संख्या के बारे में अलग-अलग अनुमान हैं। कोई बता रहा है कि बसों में 55 यात्री सवार थे तो कोई 29। यह भी पता चला है कि एक स्कार्पियो बह गई। उसमें छह लोग थे। मगर सत्य कुछ नहीं पता चला है। सवाल यह उठता है कि इस पुल को बने जब करीब-करीब सौ साल पूरे हो रहे हैं तो इसे बंद क्यों नहीं किया गया। यह कह देना तो एक तरह की लापरवाही ही है कि पुल अभी ठीक था। किसी भी पुल की मियाद 75 साल से अधिक नहीं हो सकती, फिर इस महाड पुल को बने तो लगभग सौ साल हो रहे थे। यह पुल अगर बंद कर दिया जाता तो चाहे जितनी बारिश होती और चाहे जितनी सावित्री नदी उफनती, लोगों को मरने से बचाया जा सकता था। महाड के पास यह पुल भी 1925 में अंग्रेजों ने बनवाया था। राज्य सरकार को यह पता था कि इस पुल की मियाद पूरी हो चुकी है लेकिन अगर-मगर करते उस पुल से वाहनों की आवाजाही रोकी नहीं गई थी। अधिकारी जब जानते थे कि वह पुल जर्जर हो चुका है तो वे बसों, ट्रकों व अन्य वाहनों को वहां से गुजरने की अनुमति क्यों दे रहे थे? ये तमाम सवाल हैं जिन पर बहस होती रहेगी मगर इसका जवाब कब मिलेगा कि इस भीषण हादसे का जिम्मेदार आखिर है कौन?
ऐसा पुल कोई महाड में ही नहीं था बल्कि देश के तमाम हिस्सों में अंग्रेजों के बनाए पुल ही चल रहे हैं। बड़ी नदियों पर बने अधिकांश पुल अंग्रेजों द्वारा बनवाए हुए हैं। चाहे वह दिल्ली का पुराना जमुना पुल हो या कानपुर का गंगा पुल। यहां तक कि कलकत्ता का हावड़ा ब्रिज रवींद्र सेतु भी अंग्रेजों का बनवाया हुआ है और उस पर अनगिनत वाहन रोज गुजरते हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसी सभी इमारतें व पुल आदि जो अपनी मियाद पूरी कर चुके हैं, को गिरवा दे अथवा उन पर आवाजाही बंद करवा दे तब ही हादसों पर काबू पाया जा सकता है।