राजनीतिक दलों पर मेहरबानी

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राजनीतिक दलों के लिए टैक्स में छूट की व्यवस्था को जारी रखकर केंद्र सरकार ने दोहरे रवैये का परिचय दिया है। एक तरफ वह जनता के लिए रोज सख्त से सख्त नियम बना रही है, लेकिन देश की सियासी ताकतों से टकराने की हिम्मत नहीं दिखा रही। जब सत्ता में बैठी शक्तियां ही पारदर्शिता नहीं अपनाएंगी, तो फिर बाकी लोगों के खिलाफ कार्रवाई का भी कोई मतलब नहीं रह जाएगा। गौरतलब है कि शुक्रवार को सरकार ने साफ किया कि राजनीतिक दलों के खाते में 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों में जमा राशि पर आयकर नहीं लगेगा। लेकिन यह राशि 20,000 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए और दस्तावेजों में दर्ज होनी चाहिए।
आयकर कानून 1961 की धारा 13ए के तहत राजनीतिक दलों को उनकी आय पर कर से छूट प्राप्त है। उनकी यह आय आवास संपत्ति, अन्य स्रोतों, पूंजीगत लाभ और किसी व्यक्ति की ओर से स्वैच्छिक योगदान से हो सकती है। दरअसल यह व्यवस्था काफी समय से चली आ रही है और इसकी आड़ में कालेधन को सफेद किया जाता है। कमोबेश सारे ही राजनीतिक दल जितनी चुनावी कमाई करते हैं, उसका सबसे बड़ा हिस्सा वे 20 हजार रुपये से कम के दानखाते में दिखाते हैं। जब चुनाव आयोग उनसे विस्तृत हिसाब मांगता है तो वे आधी-अधूरी खानापूर्ति भर कर देते हैं। ब्लैक मनी को खपाने का खेल दूसरे तरीके से भी चल रहा है। कुछ दिनों पहले ही चुनाव आयोग ने ध्यान दिलाया कि देश में पंजीकृत करीब 1900 राजनीतिक पार्टियों में से 400 ऐसी हैं जिन्होंने कभी भी चुनाव नहीं लड़ा।
आयोग ने कहा कि संभवत: ऐसी पार्टियों का मकसद केवल कालाधन को सफेद करना है, वे पॉलिटिकल पार्टी के नाम पर इनकम टैक्स में मिली छूट का लाभ उठा रहे हैं। जबकि हमारे पड़ोसी भूटान व नेपाल का चुनावी कानून कहता है कि चुनाव कोष में आए हर दान के साथ दानदाता का नाम-पता बताना अनिवार्य है, भले ही उसने रकम कितनी भी दी हो। यही कानूनी व्यवस्था जर्मनी, ब्राजील, इटली, बुल्गेरिया, अमेरिका, जापान, फ्रांस आदि में भी है। वहां चुनाव के बाद चुनाव खर्च का पूरा ब्योरा चुनाव आयोग को देना अनिवार्य है। हम अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं, लेकिन अब तक चुनाव को स्वच्छ नहीं बना पाए हैं।
असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और नैशनल इलेक्शन वाच के अनुसार हमारे राजनीतिक दलों के फंड का 75 फीसदी स्रोत अज्ञात रहता है। मोदी सरकार के तेवर से लग रहा था कि राजनीतिक दलों के चुनाव को लेकर नियम-कानून बदले जाएंगे, लेकिन आखिरकार जनता को निराशा ही मिली है। सचाई यह है कि सारे राजनीतिक दल किसी भी तरह के बुनियादी परिवर्तन के खिलाफ हैं। यही कारण है कि एकाध को छोड़कर सभी विपक्षी दल सरकार के ताजा ऐलान पर चुप हैं। सरकार पारदर्शिता बरतना चाहती है तो हर लेवल पर बरते। किसी पर शिकंजा कसने और किसी को नजरअंदाज करने की नीति नहीं चलेगी।