तेल के खेल में किंतु-परंतु

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अश्विनी महाजन। पिछले लगभग 3 सालों से लगातार घटती कच्चे तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के कारण पेट्रोलियम उत्पादों के भारत समेत तेल उपभोक्ता देशों को भारी फायदा हुआ। भारत में कुल तेल की खपत का 70 प्रतिशत से ज्यादा आयात करना पड़ता है। घटती तेल कीमतों के चलते भारत का तेल के आयात का बिल वर्ष 2012-13 में 164 अरब डालर से घटता हुआ 2015-16 में मात्र 83 अरब डालर तक पहुंच गया। स्पष्ट है कि यदि तेल की कीमतें घटती नहीं तो यह सब संभव नहीं होता और हमारा रुपया काफी कमजोर हो जाता। तेल की घटती कीमतों ने सरकारी खजाने को भी भारी फायदा पहुंचाया। सरकार ने तेल पर टैक्स बढ़ा दिया, जिसके कारण तेल की घटती कीमतों का पूरा लाभ उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचा, लेकिन सरकार का राजस्व बढ़ गया। 2015-16 तक आते-आते हमारा राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.9 प्रतिशत तक पहुंच गया।
अब विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढऩी शुरू हुई हैं। कच्चे तेल की कीमत जो किसी समय 30 डालर प्रति बैरल से भी नीचे पहुंच गई थी, कुछ दिन पहले 55 डालर प्रति बैरल के आसपास पहुंच गईं। इस वर्ष सितंबर माह में ओपेक देशों ने यह निर्णय किया कि अपने कुल उत्पादन को वे 17 लाख बैरल प्रतिदिन घटाएंगे। इस कारण इस बात पर असमंजस बना हुआ है कि क्या घटती तेल कीमतों का युग समाप्त हो गया है?
ओपेक देशों द्वारा तेल उत्पादन को घटाने के निर्णय और बाद में उनकी और गैर ओपेक देशों की आम सहमति के बाद वैश्विक स्तर पर ऐसा लगने लगा कि शायद तेल कीमतें दुबारा बढऩे लगेंगी, लेकिन बाजार की खबरें इस सोच को पुष्ट नहीं करतीं। ऐसा माना जा रहा है कि बाजार में दोनों प्रकार की शक्तियां काम कर रही हैं। एक ओर ओपक और गैर तेल उत्पादक ओपेक देश उत्पादन घटाकर कीमत बढ़ाने की इच्छा रखते हैं, लेकिन दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ दूसरी शक्तियां तेल की कीमतों को बढऩे नहीं देना चाहतीं। अमेरिका की एनर्जी इन्फॉरमेशन एडमिनिस्ट्रेशन (ईआईए) का मानना है कि अगले साल भी तेल की कीमतें 50 डालर प्रति बैरल से नीचे ही रहेंगी। ईआईए का मानना है कि ओपेक देश समझौते के अनुसार तेल उत्पादन को घटाएंगे जरूर, लेकिन पूर्ति के आधिक्य के चलते कीमतें बढ़ेंगी नहीं। उसका मानना है कि अमेरिकी तेल कंपनियों का उत्पादन बढ़ेगा और गैर ओपेक देशों में भी उत्पादन बढ़ेगा, जिसके चलते ओपेक देशों द्वारा तेल की आपूर्ति घटने का प्रभाव कीमतों पर नहीं पड़ेगा।
अमेरिका में तेल निकालने की गतिविधियों में तेजी आई है और कंपनियों द्वारा लाभ रिकार्ड किए जा रहे हैं। रियूटर समाचार एजेंसी के अनुसार ओपेक की तेल कीमतें बढ़ाने की कोशिश इस कारण से नाकाम हो जाएगी कि गैर ओपेक तेल उत्पादन बढ़ेगा। हालांकि रियूटर, ईआईए के इस अनुमान से सहमत नहीं है कि तेल कीमतें 50 डालर प्रति बैरल के आसपास रहेंगी, उसका मानना है कि तेल कीमतें 55 से 57 डालर प्रति बैरल रहेंगी। इन अनुमानों में असहमति के बावजूद इस बात पर सहमति जरूर है कि तेल कीमतें 60 डालर प्रति बैरल से कम ही रहने वाली हैं।
उधर विशेषज्ञ ‘ओपेकÓ द्वारा उत्पादन घटाने के बारे में भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हैं। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि गैर ओपेक देश अपना उत्पादन 6 लाख बैरल प्रतिदिन घटाएं। अभी तक केवल रूस ने ही अपना उत्पादन 3 लाख बैरल प्रतिदिन घटाने का वायदा किया है। इन आशंकाओं के मद्देनजर यही संभावना बनती है कि तेल कीमतें अपने वर्तमान स्तर 55 डालर प्रति बैरल के स्तर पर या उससे भी कम रह सकती हैं। यह सही है कि 1973 के बाद ओपेक देशों द्वारा तेल कीमतों में लगातार नियंत्रण और अपने लाभों को अधिकतम करने की कवायद को दुनिया ने देखा है। लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं।

ओपेक के कुछ सदस्य देशों (जैसे सऊदी अरब) और गैर ओपेक तेल उत्पादक देशों (जैसे रूस) के बीच व्यावसायिक या अन्य कारणों से तनाव भी जगजाहिर है। उधर अमेरिका द्वारा पिछले लम्बे समय से उत्पादन को 50 लाख बैरल से लगभग 90 लाख बैरल तक बढ़ाये जाने ने भी तेल कीमतों को घटाने में बड़ी भूमिका अदा की है। अमेरिका की यह कोशिश रहेगी कि तेल कीमतें न बढऩे पाएं। उसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। एक, सऊदी अरब और ओपेक के दूसरे देशों के पास बहुत ज्यादा सरपल्स निर्माण न हो। ऐसा माना जाता रहा है कि वे बड़ी मात्रा में आतंकवाद का वित्तीय पोषण करते हैं। दूसरा कारण यह है कि बढ़ती तेल कीमतें अमेरिका समेत दुनिया भर में आर्थिक मंदी को समाप्त करने के प्रयासों को धक्का पहुंचा सकती हैं।
अब ओपेक देशों की तेल की कीमतों को नियंत्रित करने की ताकत उतनी नहीं है, जितनी 1973 में थी। हालांकि, आज ओपेक देश भी पैसे की भारी तंगी से गुजर रहे हैं लेकिन भविष्य में उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद तेल की कीमतें बढऩे वाली नहीं हैं।