ट्रंप की नीतियों से बढ़ती बेचैनी

trump1पुष्परंजन। कल तक यूरोप के जो नेता अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए पुष्पवर्षा करते नहीं थकते थे, अब वही गुलपाश आरोपों की अग्निवर्षा करने लगे हैं। डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के लिए ख़तरा बताये जा रहे हैं। गुजि़श्ता शुक्रवार को माल्टा में 28 सदस्यीय यूरोपीय संघ के नेता मिले और इस पर विमर्श हुआ कि ट्रंप प्रशासन की विप्लवकारी नीतियों के विरुद्ध यूरोपीय देशों की रणनीति क्या होनी चाहिए। असंतोष इस कदर कि जर्मन पत्रिका देयर श्पीगेल ने कवर पन्ने पर ट्रंप के ख़ून से सने हाथ में ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टीÓ के कटे सिर वाले कार्टून को छाप दिया। इसे लेकर ट्रंप के चाहने वाले दक्षिणपंथियों ने जब आपत्ति की तो जर्मन सरकार पत्रिका के समर्थन में खड़ी हो गई। माल्टा बैठक में जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल की यह टिप्पणी कि ‘यूरोप का भविष्य उसके अपने हाथों में हैÓ, कूटनीति का दा विंची कोड है। क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि यूरोप में अमेरिकी निर्भरता से मुक्ति पाने के विकल्प ढूंढे जाने लगे हैं।
नाटो सबसे पुराना और सबसे बड़ा मंच है, जिसने यूरोप को अमेरिका से जोड़ रखा है। नार्थ अटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाइजेशन (नाटो) की बुनियाद 4 अप्रैल 1949 को रखी गई थी, जिसके सदस्य देशों की संख्या 28 है। ब्रसेल्स स्थित नाटो मुख्यालय को बने हुए 67 साल हो गये, जिसके साझा सैन्य कमान के तहत दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में युद्ध लड़े गये। इनमें गल्फ वार, इराक युद्ध, बोस्निया-हर्जेगोबिना, कोसोवो, लीबिया, सीरिया, यूक्रेन में सैनिक हस्तक्षेप, अफग़ान युद्ध जैसे दर्जनों उदाहरण दुनिया के समक्ष हैं, जिसे अमेरिकी-यूरोपीय आधिपत्य को बनाये रखने के वास्ते लड़ा गया। युद्धग्रस्त इन इलाक़ों ने दुनिया में सबसे अधिक शरणार्थियों का बोझ भी बढ़ाया है।
दुनिया में नाटो के वर्चस्व को बनाये रखने के वास्ते सैनिकों पर जो ख़र्च आ रहा था, उसे लेकर अमेरिका अब हांफने लगा है। 2015 में नाटो के सैन्य ख़र्च का आकलन किया गया तो पता चला कि सालाना नौ सौ अरब डॉलर व्यय किये जा रहे हैं, जिसमें अकेले अमेरिका 650 अरब डॉलर का भार वहन कर रहा था। यह नाटो के कुल ख़र्चे का बहत्तर प्रतिशत है। उससे बहुत कम ब्रिटेन 59,699 डॉलर व्यय कर रहा था, जो कुल ख़र्चे का छह प्रतिशत था, फ्रांस 43,864 डॉलर (चार दशमलव नौ प्रतिशत) और जर्मनी 39,743 डॉलर (चार दशमलव चार प्रतिशत) सालाना ख़र्च नाटो के लिए कर रहे थे। बाज़ दफा अमेरिकी टैक्स पेयर्स यह सवाल उठा रहे थे कि नाटो के बहाने अकेले अमेरिका पर इतना बोझ क्यों है। मगर, व्हाइट हाउस इस पर चुप्पी यों भी साध लेता था क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया में जितने बड़े ऑपरेशन हुए, उसमें अमेरिका ने अपने हित साधने के लिए नाटो का इस्तेमाल किया। ख़ासकर, रूस को निपटाने के वास्ते नाटो सबसे बड़ा फायरवॉल बना हुआ था।
ट्रंप आरंभ से इस सैन्य-कूटनीतिक फायरवॉल के विरुद्ध थे। 14 अप्रैल 2016 को न्यूयार्क के ब्रुकलिन में डेमोक्रेटिक डिबेट के दौरान ट्रंप ने यह सवाल उठाया था कि अमेरिका क्यों नाटो के कुल ख़र्च का बहत्तर फ़ीसदी ढोये। मगर, एक दूसरा सवाल अभी नेपथ्य में है कि ट्रंप के माध्यम से पुतिन क्या नाटो को तोडऩे का बड़ा खेल करना चाहते हैं? नाटो टूटता है तो यह पुतिन के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। यूरोप के जिन नेताओं ने ट्रंप के शपथ वाले दिन के भाषण को ग़ौर से सुना है, उसके निहितार्थ को समझते हैं कि ट्रंप प्रशासन न तो दुनिया में युद्ध अभियान के लिए पैसे ख़र्च करना चाहता है, न ही शरणार्थियों के बोझ को ढोने के मूड में है। इसकी शुरुआत हो चुकी है।
यूरोपीय देश ठगा-सा महसूस कर रहे हैं कि अमेरिकी पहल पर नाटो व मित्र सेना ने युद्ध में अहम भूमिका अदा की, अमेरिका का नया निज़ाम अब शरणार्थियों का बोझ उठाने से भाग रहा है। माल्टा की बैठक में ऑस्िट्रया के चांसलर क्रिस्टियान कैर्न ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि जिस तरह से सैनिक हस्तक्षेप किये गये हैं, आप्रवासियों का प्रवाह साझा करना अमेरिका की जि़म्मेदारी है। अमेरिका यदि जि़म्मेदारियों से भागना चाहता है तो यह बात हमें अमेरिकी दोस्तों को साफ करनी होगी।
यूरोप के कई नेताओं को लगता है कि ट्रंप अब तक उन्हें समझ नहीं पाये हैं। यूरोपीय आयोग के प्रमुख ज्यों क्लोद युंकर ने कहा कि ट्रंप प्रशासन यूरोप को नहीं समझता, उसे समझाने की आवश्यकता है। शपथ ग्रहण के बाद ट्रंप से यूरोप की सिफऱ् एक नेता ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे की मुलाक़ात हुई थी। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलांद और जर्मन चांसलर मार्केल की ट्रंप से फोन पर बात हो चुकी है। तो क्या ये दिग्गज नेता ट्रंप को समझा पाने में विफल रहे हैं कि यूरोप क्या है? इन नेताओं में झुंझलाहट है। तभी ओलांद ने कहा, ‘किसे पता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति अटलांटिक पारीय सहबंध और वित्तीय बोझ के बंटवारे के बारे में क्या सोचते हैं।Ó
लीबिया, उत्तर अफ्रीका का ऐसा देश है जहां से भूमध्य सागर पार कर शरणार्थी इटली में घुसते हैं और यूरोप भर में छा जाते हैं। 2016 में यह संख्या 1 लाख 80 हज़ार थी, जिसमें से 4500 लोग समुद्र में डूब कर मर गये। इसे ध्यान में रखकर इटली ने लीबिया से संधि की है ताकि आप्रवासियों को वहीं रोका जा सके। यूरोपीय देशों ने दस सूत्री कार्यक्रम पास किया है, जिसके ज़रिये लीबिया को आर्थिक मदद बढ़ानी है। मुराद यह कि लीबिया जैसा देश शरणार्थी कैंप में तबदील हो जाए। संभव है यूरोपीय संघ बाहर के देशों में शरणार्थी कैंपों को खोलने की बात चलाये। लेकिन क्यों? जो यूरोपीय देश इन इलाक़ों में अस्थिरता और युद्ध के लिए जि़म्मेदार हैं, उन्हें अब शरणार्थी कूड़े-कचरे के ढेर क्यों लगने लगे हैं?
लीबिया तो एक ठिकाना है। तुर्की, ग्रीस, माल्टा, इरीट्रिया, बाल्कन, पूर्वी यूरोपीय देशों के अन्य ठिकाने हैं, जिनके बरास्ते शरणार्थियों का आना जारी है। यूरोस्टाट के डाटा बताते हैं कि 2015 में 12 लाख 55 हज़ार 640 आवेदन शरण प्राप्त करने के वास्ते आये। जिसमें तीन लाख 33 हज़ार 350 आवेदन स्वीकृत किये गये। इनमें अकेले जर्मनी ने एक लाख 48 हज़ार 200 लोगों को शरण देना स्वीकार किया था। दो साल पहले मार्केल शरणार्थियों की मसीहा बनी हुई थीं। अब उलटा यह अपील की जा रही है कि जो शरणार्थी वापिस अपने देश जाना चाहते हैं, वह मुफ्त टिकट, पांच हज़ार यूरो तक मुआवज़ा लें और जाएं। मतलब, शरणार्थियों के सवाल पर मार्केल बुरी फंसी हैं। फ्रांस, जर्मनी, और नीदरलैंड में आम चुनाव हैं। दूसरी ओर शरणार्थी गले की हड्डी बन गये हैं!