रद्द एनएसए वार्ता और भारत की कूटनीति

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पुष्पेंद्र कुमार।
भारत-पाकिस्तान के संबंधों में मलाला-सत्यार्थी जैसी नोबेल साझेदारी की कल्पना में जोखिम कहीं ज्यादा होने के पीछे कारण यह है कि अपने अच्छे लक्ष्यों के बावजूद मलाला पाकिस्तान में स्वीकार्य नहीं हैं, जबकि सत्यार्थी भारत में सम्मानित हैं, सुने जाते रहेंगें। यह अंतर भारत और पाकिस्तान के विचार, विडंबनाओं और प्राथमिकताओं का अंतर है। जाहिर है कूटनीति इससे अछूती नहीं है, जिसमें सामरिक और सियासी अंतर्विरोध उभर आता है, लिहाजा प्रस्तावित एनएसए स्तर की वार्ता के रद्द हो जाने को लेकर कोई आश्चर्य नहीं है। एनएसए स्तर की वार्ता के दरम्यान अलगाववादी हुर्रियत नेताओं से मिलने की परंपरा को निभाने की पाकिस्तान की जिद से लगता है कि वह भारत के साथ संबंधों में ठोस सुधार की जगह व्यवधान बनाए रखने की नीति में सांतत्यता यानी कंटीन्यूटी को ढ़ोने को विवश है। हालांकि कूटनीति में कंटीन्यूटी की अपेक्षा की जानी चाहिए लेकिन बदलते सामरिक और सुरक्षा संबंधी परिवेश में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और साझेदारी के लक्ष्यों के तहत कूटनीतिक लक्ष्य और हित स्थिर होना अव्यवहारिक अपेक्षा है। मोदी सरकार की कूटनीति में हुर्रियत के साथ बातचीत की पाकिस्तानी परंपरा और द्विपक्षीय वार्ता में तीसरे पक्ष को अस्वीकार्यता को शिमला समझौते और ऊफा घोषणापत्र के आधार पर स्वीकार्य सिद्धांत बता देना एक महत्वपूर्ण निर्णय है। प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण में आए प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को हुर्रियत नेताओं से मिलने की अनुमति नहीं दी गई थी, और बीते साल अगस्त में विदेश सचिव स्तर की वार्ता को भारत ने इसी आधार पर खारिज किया था। ऊफा घोषणापत्र पर दस्तखत के बाद से सीमा पर पाकिस्तान ने युद्धविराम का लगातार उल्लंघन किया है। इसके पीछे कारण यही है कि पाकिस्तान का सेना प्रतिष्ठान उक्त घोषणापत्र में कश्मीर के स्पष्ट उल्लेख न होने की भरपाई के लक्ष्य के लिए हुर्रियत के बहाने एनएसए की वार्ता के रद्द कराना चाहते थे।
पाकिस्तान ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बहाने लोकतंत्र की अहमियत को फिर से बौना ही साबित नहीं किया बल्कि आतंकवाद पर अपनी मनोदशा को उजागर करते दिखे। ऊफा बैठक में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने शांति और विकास के लिए साझी जिम्मेदारी के तहत, सभी प्रकार के आतंकवाद की निंदा करते हुए तय किया था कि एनएसए वार्ता आतंकवाद के प्रकरण, सबूतों और चुनौतियों पर केंद्रित होगी। जाहिर है हुर्रियत का इससे कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन पाकिस्तान की नीति कश्मीर में हुर्रियत को प्रासंगिक बनाए रखने की है, जबकि वे लोकतांत्रिक चुनावों में भागीदारी कर अपनी जन-स्वीकार्यता को साबित करने का हौसला तक नहीं दिखा पाए हैं। अलबत्ता पाकिस्तानी पक्ष
द्वारा हुर्रियत नेताओं से ऐसी कूटनीतिक व सामरिक वार्ताओं से पहले या बाद में बातचीत क्रमश: ऐजेंडा तय करने, माहौल बनाने, राय लेने या वार्ता की समाप्ति पर तथ्यों को ब्रीफ करने के लिए होती है। ऐसे में भारत की कूटनीतिक स्पष्टता के संदेशों के बीच फिर एनएसए स्तर की वार्ता के बाद हुर्रियत से पाकिस्तानी एनएसए की मुलाकात को ही क्यों मान लिया जाए क्योंकि एनएसए वार्ता कंपोजिट डायलॉग नहीं है, जिसमें सभी मसलों व पक्षकारों को शामिल किया जा सकता है। रद्द हो चुकी एनएसए वार्ता के बाद यह बेहद जरूरी है कि पाकिस्तान के साथ कूटनीति में कंटीन्यूटी की तुलना में क्रिएटिविटी तलाशी जाए। एनएसए अजीत डोभाल की सक्रियता यह बताती है कि भारतीय सुरक्षा और कूटनीति बचाव की तुलना में दबाव बढ़ाने की है।
भारत को चाहिए कि दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व स्तर पर किसी भी वार्ता के लिए विदेश सचिव, एनएसए और डीजीएमओ जैसे स्तरों पर होने वाली बातचीत और उसके सकारात्मक परिणाम को शर्त बनाए। एनएसए स्तर की बातचीत में आतंकवाद से लेकर पाकिस्तान में नाभिकीय हथियारों की आतंकियों से सुरक्षा जैसे मसलों तक विस्तृत बातचीत होनी चाहिए। ज्ञात हो कि कानेर्गी न्यूक्लिर पॉलिसी कॉफ्रेंस में पाकिस्तान के नेशनल कमांड ऑथिरिटी के सलाहकार, जनरल खालिद किदवई ने पाकिस्तान की नाभिकीय नीति को मिनिमम डेटरेंस से बदल कर फुल स्पेक्ट्रम डेटरेंस में तब्दील हो चुकने का ऐलान किया है। जहां तक हुर्रियत को लेकर पाकिस्तानी परंपरा का प्रश्न है, पाकिस्तान में भारत को उपलब्ध डिप्लोमेटिक डेप्थ और डिप्लोमैटिक इम्यूनिटी को आजमाने का समय आ चुका है। भारत को पाकिस्तान के बलूचिस्तान, सिंध और गुलाम कश्मीर में लोकतंत्र और मानवाधिकार के सवालों को कूटनीतिक आयाम देने के लिए संबंधित पक्षकारों के साथ औपचारिक सम्मेलन व वार्ता आयोजित करने पर विचार करना चाहिए। साथ ही कश्मीर समस्या के समाधान के लिए यूएन द्वारा सात दशक पुराने प्रस्ताव के अनुपालन में पाकिस्तान की विफलता याद दिलाई जानी चाहिए। उक्त प्रस्ताव में पाकिस्तान से अपेक्षा की गई थी कि वह गुलाम कश्मीर से अपनी सेनाएं वापस करेगा ताकि कश्मीर के विलय संबंधी विवाद पर रायशुमारी कराई जा सके। उधर, दो मौकों पर यूएन महासचिवों द्वारा कश्मीर पर दखल संबंधी पाकिस्तानी मांग को शिमला समझौते के आलोक में अप्रासंगिक बताकर खारिज किया जा चुका है।
कूटनीति और सामरिक रणनीति की सफलता उसके आदर्शवाद में अधिक यथार्थवाद में है, लेकिन क्या पाकिस्तान यह समझ पाएगा कि द्विराष्ट्रवादी सिद्धांत के तहत कश्मीर पर उसकी दावेदारी की तुलना में कहीं अधिक सक्षम और जीवंत दावेदारी भारत के लोकतांत्रिक और सेकुलर मूल्यों की है। कश्मीर पर बलपूर्ण अधिकार के लिए पाकिस्तान की व्यग्रतापूर्ण मान्यता के उलट भारत में कश्मीर से जुड़े आत्मसम्मान का लोकतांत्रिक मूल्य कहीं गहरा है। सवाल है कि रद्द एनएसए वार्ता के बाद अब क्या? अगले साल इस्लामाबाद में होने वाली सार्क बैठक में प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा ही नहीं सार्क बैठक भी
संकट में है। हुर्रियत के कारण रद्द हुए एनएसए वार्ता के बावजूद भारत सरकार को हुर्रियत के साथ वार्ता शुरू करने की पहल करनी चाहिए और जम्मूकश्मीर में सुरक्षा हालात को सुधारने के लिए सभी प्रभावी विकल्पों पर विचार होना चाहिए। बीते दो दशकों में आर्थिक स्थिरता की संभावनाओं वाले देश के रूप में भारत की पहचान इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी, आईटी, के निर्यातक के रूप में बनी है जबकि पाकिस्तान की पहचान वैश्विक अस्थिरता पैदा करने वाले इंटरनेशनल टेररिज्म, आईटी के निर्यातक और एक विफल होते राष्ट्र की है। विश्व मंच पर भारत की बढ़ती अपरिहार्यता के कारण ही कश्मीर प्रकरण में मध्यस्थता से सभी देश दूरी बनाते चले जा रहे हैं और बदलते हालात का प्रमाण है कि इस्लामाबाद में आयोजित होने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन को सभी भागीदार देशों की आपत्तियों, जिसमें पाकिस्तान ने भारतीय जम्मूकश्मीर विधानसभाध्यक्ष को आमंत्रित नहीं किया था, के कारण न्यूयार्क स्थानांतरित कर दिया गया। फिर भी भारत को आतंकवाद पर पाकिस्तान से सवाल पूछते रहने के लिए सही मंच बनाए रखने के अलावा सभी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान द्वारा जम्मू कश्मीर के चुने हुए जनप्रतिनिधियों से बातचीत न करने की विडंबना को उजागर करने की भी जरूरत है। भारत पाक संबंधों की विशेषज्ञ क्रिस्टीन फेयर अपनी किताब फाइटिंग टू द एंड में लिखती हैं कि पाकिस्तानी सेना का सामरिक संस्कार मानता है कि भारत के साथ उसका संघर्ष स्थायी, अस्तित्ववादी और मानो सभ्यता की रक्षा का संघर्ष है। लेकिन देर-सबेर ही सही पाकिस्तान को समझना होगा कि कश्मीर केंद्रित होने की उसकी मजबूरी के कारण उसका भूगोल आतंकवाद में घंस चुका है। कूटनीति यदि लक्षित परिणाम को हासिल नहीं कर सकती है तो अपेक्षित परिणाम को हासिल नहीं होने देना भी कूटनीति है।

लेखक- राजनीतिक विश्लेषक