लोकतंत्र का असली आनंद चाहिए तो जाति का बंधन खोल दो

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जुगुल किशोर सदस्य राज्यसभा । हमें अपने लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। जातियों का तोड़ दो बंधन खोल दो तो ही लोकतंत्र का असली आनंद मिलेगा। सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र नही चल सकता अगर इसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र नही है। सामाजिक लोकतंत्र का मतलब क्या है? इसका मतलब जीवन का एक मार्ग है जो जीवन के सिद्धातों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और भाई चारे को मान्यता देता है। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के ये सिद्धांत हमारे संविधान में है। इनको अलग अलग अस्तित्व में नही माना जा सकता है। ये एक अर्थ में लोकतंत्र की सामाजिक एकता बनाते है। जिसमें एक को दूसरे से अलग करना लोकतंत्र के उद्देश्य को ही पराजित करना है। स्वतंत्रता को समानता से अलग नही किया जा सकता, समानता के बिना स्वतंत्रता कुछ का कई पर प्रभुत्व लाएगी। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्तिगत पहल की हत्या कर देगी। भाईचारे के बिना स्वतंत्रता और समानता स्वभाविक वृत्ति की चीजें नही हो सकती हैं। उन्हे लागू करने के लिए एक सिपाही की जरूरत होगी। हमें यह तथ्य स्वीकारना शुरू करना चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों की पूर्ण अनुपस्थिति है। इनमें से एक है समानता। सामाजिक धरातल पर, हमारे देश में श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांत पर आधारित समाज है, जो एक ऐसा समाज है जिसमें जिसमें कुछ के पास प्रचुर धन है जबकि कई जो पतित दरिद्रता में रहते है। मै ऐसे विचार का हूं कि ये विश्वास करना कि हम एक राष्ट्र है, हम बड़ा भ्रम पाल रहें है। इसी लिए हमारे आलोचक सवाल उठाते है कि कई हजार जातियों में विभाजित लोग कैसे एक राष्ट्र हो सकते है? जितनी जल्दी आप ये समझोगे कि दुनिया के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मामले में हम अब तक एक राष्ट्र नही है। हमारे लिए बेहतर होगा। तब तक के लिए हमें एक राष्ट्र बनने की जरूरत को सिर्फ समझना होगा। और इस लक्ष्य को समझना बहुत कठिन होने वाला है। अमेरिका में जितना है उससे ज्यादा कठिन। अमेरिका में जाति की कोई समस्या नही है। लेकिन नस्ल और रंगभेद का असर अभी भी दिखता है। भारत में जातियां है। जातिवाद राष्ट्रद्रोही है, क्योंकि वे समाजिक ढांचें में अलगाव लाती है। जातिवाद इसलिए भी राष्ट्रद्रोही है क्योंकि जाति और जाति के बीच द्वेष व वैमनस्य लाती हैं। लेकिन अगर हम एक राष्ट्र बनने की वास्तविकता बनाना चाहते है तो हमें इन बाधाओं से उबरना होगा। भाईचारा तब ही हो सकता है जब एक राष्ट्र होगा। भाईचारे के बिना समानता और स्वतंत्रता पेंट की परतों से अधिक गहरा नही होगा।

इसका प्रतिवाद नही किया जा सकता कि इस देश में राजनीतिक सत्ता पर कुछ लोगों का लंबे समय तक एकाधिकार रहा है, और कई लोगों ने दूसरों को सिर्फ लद्दू जानवर समझा और कुछ हिंसक पशु की तरह उनके साथ व्यवहार करते रहे। इस एकाधिकार ने बेहतरी के उनके अवसर से न सिर्फ वंचित किया है, उन्हे उससे वंचित किया है जिसे जीवन का महत्व कहा जा सकता है। ये दलित-शोषित वर्ग शाषित किये जाने से थक गए है। वे स्वयं शासित होने को बेकरार है। दलित-शोषित वर्गो में आत्मबोध के लिए यह उत्कंठा वर्ग संघर्ष या वर्ग युद्ध में बदलने की अनुमति नही दी जानी चाहिए। स्वतंत्रता निसंदेह खुशी की बात है, लेकिन हमें यह नही भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता ने हम पर गहरा उत्तरादायित्व सौंपा है।