क्या यह साहित्य की विफलता नहीं?

pushpendraपुष्पेंद्र कुमार। तो क्या यह घरवापसी कार्यक्रम की परिणति है कि आज साहित्यकार सम्मान वापसी करते दिखाई दे रहे हैं? नयन तारा सहगल ने साहित्य एकादमी सम्मान हासिल साहित्यकारों और अन्य विद्वानों से समाज में (बेहतर हो कि इसे भाजपा सरकार के दौर में पढ़ा जाए) बढ़ती असहिष्णुता और सरकार की कथित दक्षिणपंथी ताकतों पर नकेल कसने में विफलता को लेकर एकजुट विरोध प्रदर्शन में शामिल होने की अपील की है। सहगल, जो पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू परिवार की सदस्य हैं, ने अपना साहित्य एकादमी पुरस्कार लौटाकर तमाम साहित्यकारों द्वारा अपने पुरस्कारों को लौटाने के क्रम की शुरूआत की। सहगल ने साहित्य एकादमी सम्मान साल 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी सरकार के दौर में लिया था जिसके महज दो वर्ष पूर्व इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ देश में भीषण नरसंहार हुआ था और उसमें कांग्रेस कार्यकर्ताओं की सक्रिय भागीदारी पर सवाल उठाए गए थे। नयनतारा सहगल अकेली नहीं है जिन्हें सिखों के खिलाफ हुए नरसंहार में मानवीयता और सहिष्णुता का प्रश्न उद्वेलित नहीं कर पाया। कश्मीर के लेखक व कवि गुलाम नबी ख्याल भी उसी सूची में हैं जिन्होंने अब मूकदर्शक न बने रहने का फैसला किया। वे कहते हैं कि देश में अल्पसंख्यक असुरक्षित हैं और उनका भविष्य अंधकारमय होने के कारण वे अपना साहित्य एकादमी सम्मान वापस कर रहे हैं।
सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के मसले पर सम्मान वापसी की इस प्रक्रिया में अब तक बीस से अधिक साहित्यकारों ने अपने सम्मान वापस कर दिया है। यह सही है कि बीते साल भर में कलबुर्गी, पनसरे और दाभोलकर की हत्याएं हुईं और गोमांस पर प्रतिबंध या प्रतिबंध की मांग से लेकर दादरी की घटना जैसे कई मसलों से सांप्रदायिक तनाव और सियासत करने जैसी स्थितियां बनती दिखाई दीं हैं। लेकिन साहित्यकारों में सम्मान को वापस करने की व्यग्रता और व्याकुलता बताती है कि उनके निर्णयों में साहित्यक भावावेश से अधिक समयानुकूल सियासत का पुट है। सहगल से लेकर ख्याली तक, यदि वे चाहते तो उन्हें मिलने वाले सम्मान को तत्कालीन भारत की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रमों के संदर्भ में स्वीकारने को उन्हीं आधारों पर इंकार कर सकते थे जिनपर वे आज सम्मान को वापस कर रहे हैं, क्योंकि सांप्रदायिक विभाजन की चिंताएं बीते सात दशकों में कभी कम नहीं हुई हैं।
साहित्यकारों का सम्मान वापसी दरअसल केंद्र में काबिज भाजपा सरकार के विरूद्ध नकारात्मक छवि निर्माण का भी सचेष्ट प्रयास हो सकता है। साहित्यकारों की इस प्रकार की प्रतिक्रिया को लेकर पहला आश्चर्य यह है कि साहित्य एकादमी पुरस्कार सरकार नहीं बल्कि साहित्य एकादमी देती है। यानी सरकार को जिम्मेदारी की याद दिलाते दिलाते वे बेवजह साहित्यकारों की संस्था की साख को दांव पर लगा रहे हैं। हालांकि साहित्यकारों का यह तर्क स्वीकार्य हो सकता है कि केंद्र सरकार साहित्य व कला के संस्थानों पर अपनी विचारधारा के लोगों को काबिज करने की कोशिश कर रही है। लेकिन, यदि यह तर्क मान लिया जाए तो फिर सवाल उठता है कि क्या अब तक किसी विशेष प्रकार की खेमेबंदियां इन संस्थानों पर रही हैं और क्या यह साहित्यकार किसी सियासी खेमेबंदी से इतर हैं? जबाव हां में हो सकता है और संभव यह भी हो सकता है कि कुछ साहित्यकार विशेष प्रकार की विचारधारा के आग्रह में भी सम्मानित किए गए हों। साहित्यक संस्थानों पर काबिज होने या काबिज करने का तर्क से उनके नैसर्गिक अधिकार, औचित्य और वैधानिकता पर सवाल उठाती है। क्या सम्मान वापसी इन संस्थानों पर उनके अधिकारपूर्ण नियंत्रण की हताशा है, यदि ऐसा है तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
साहित्कार होना क्या विशेषाधिकार हो सकता है? वे समाज की प्रवृतियों और आर्दश मानवीयता के पहरेदार हैं और जाहिर सी बात है कि वे इस या उस घटना से आहत हो सकते हैं। लेकिन विशेष व चयनित घटनाक्रम पर चयनित और अतिरंजित भावावेश का प्रदर्शन किया जाना उनकी सदाशयता को संदिग्ध बनाता है। मैं एक सहज सवाल पूछना चाहता हूं कि साहित्य में सिद्धहस्त इन मूर्धन्य साहित्यकारों का साहित्यक संस्थानों पर नियंत्रण होने और उनके रचनाकर्म में सदभाव की भावुक व नाजुक अपील होने के बाद भी यदि देश में कट्टरता पैदा हुई तो इसके पीछे कारण क्या है? क्या उनका साहित्य भारत के कथित होते कट्टर होते समाज की समझ से बाहर है या उनकी रचना में सदभाव और सहअस्तित्व को स्थापित करने की व्यावहारिक ऊर्जा व प्रेरणा का अभाव है, या वे कथित सेकुलरिज्म को किसी विशेष नजरिए से देखने की अपेक्षा करते हैं? क्या यह असहिष्णुता व सांप्रदायिकता स्वजनित है या किन्हीं सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक परिस्थितियों और संदेहों की प्रतिक्रिया में उपजी है? क्या साहित्य ने सियासत के उन प्रवृतियों को जानबूझकर अनदेखा करने का जोखिम उठाया है जिसमें सहिष्णुता किसी पक्ष का कर्तव्य और दूसरों से सहिष्णुता की अपेक्षा दूसरे पक्ष का अधिकार है। मेरा मानना है कि साहित्यकार मनतंत्र की बात कर जनतंत्र को औचित्यविहीन साबित करने के खतरे से बेपरवाह नहीं हो सकते। लिहाजा अमुक सरकार में सहिष्णुता की चिंता के नाम पर सम्मान वापसी जनतंत्र में जनता के चयन पर अपने विचार, समझ और पसंद को थोपने का प्रयास ही कहा जा सकता है।
साहित्यकारों का समूह सभी सरकारों और सांप्रदायिक सियासी हसरतें पालने वाले राजनीतिक दलों से अधिक जिम्मेदार और संवेदनापूर्ण होने के लिए दबाव बना सकते हैं। साहित्यकारों ने अपने सम्मान को वापस लौटाने के लिए गोमांस खाए जाने के अपवाह पर दादरी में भीड़ द्वारा मुस्लिम परिवार के एक सदस्य की निर्ममतापूर्वक हत्या को आधार भले ही बनाया हो लेकिन उनका लक्ष्य बिहार में निर्णायक हो चुके चुनाव में भाजपा के प्रति नकारात्मक छवि बनाए जाने की रणनीति लगती है। साल 2014 में लोकसभा चुनाव से पहले अर्मत्य सेन समेत कई विद्वानों व साहित्यकारों ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने को दुर्भाग्यपूर्ण बताया था, जबकि कईयों ने देश तक छोड़ देने की घमकी दी थी। साहित्यकारों द्वारा सम्मान वापस किया जाना भारत की संविधानिक व्यवस्था और राजकीय प्रशासनिक तंत्र की विफलता और उसके प्रति उपजते अविश्वास को जाहिर करता है लेकिन सम्मान वापसी की यह प्रवृति जायज चिंताओं को खतरनाक आग्रह और आयाम में पेश कर रही है। साहित्यकारों की सम्मान वापसी में उनकी चिंता की अभिव्यक्ति भले ही हो रही है लेकिन इस प्रकरण में चतुराई और अवसरवादी सियासत के घालमेल की बू आती है। सवाल है कि क्या समाज इस सम्मान वापसी से समझदार हो जाएगा, या विडंबना के प्रश्नों का स्पष्ट जबाव न होने के कारण कहीं अधिक बिखर जाएगा?

लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।